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Showing posts from 2016

टटपूंजिये स्टार्ट अप और भारतीय अर्थव्यवस्था

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दिसंबर का महीना आमतौर पर अमेरिका में खरीदारी के लिए सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है, और जहाँ एक तरफ बड़ी बड़ी कंपनिया स्टॉक क्लीयरिंग सेल का बोर्ड लगा कर अच्छा ख़ासा डिस्काउंट देती है वही दूसरी तरफ आम जनता के लिए अपनी पुरानी चीजों का परित्याग करके, न सिर्फ सस्ते दामों पर अपनी पसंदीदा सामान खरीद लेते है बल्कि अपनी जमापूंजी का सदुपयोग भी कर लेते है. और अगर ईयर एंडिंग सेल की बात दरकिनार भी कर दी जाए तो भी नयी कंपनियों के लिए ये एक सुअवसर से कम नहीं होता कि वे इस पवित्र महीने (जीसस क्राइस्ट के जन्मदिन के कारण) अपने प्रोडक्ट की लॉन्चिंग करे. हालांकि ऐसा हर प्रोडक्ट की लॉन्चिंग के लिए शुभ हो ऐसा जरूरी नहीं, गौरतलब है कि इसी तरह के पूर्वाग्रह कि शिकार अमेरिकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट भी हो चुकी है जिसने विंडोज 7 का आगाज दिसम्बर महीने में किया. भले ही प्रोडक्ट उतना सफल नहीं रहा परंतु अमेरिकी कंपनिया और वहां कि जनता में इस पवित्र महीने को लेकर क्रेज कुछ ज्यादा ही है. कमोबेश यही परिस्थितियां इस बार भारतीय बाज़ारों में भी है परंतु यहाँ इस रुझान का कारण कुछ और न होकर बल्कि नोटबंदीकरण से जुड़ा हुआ है. जहाँ

क्या वास्तव में नोटबंदी से वापस आएगा कालाधन?

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विगत 8  नवंबर को प्रधानमंत्री द्वारा लिए गए नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले का मिलाजुला असर देखने को मिल रहा है. जहाँ एक तरफ कुछ लोग इसके विरोध में है वहीँ कुछ लोग इसका समर्थन भी कर रहे है. हालांकि जहाँ एक तरफ सरकार के इस फैसले से विपक्छ लामबंध होकर हर आड़े-टेढ़े हथकंडे अपना कर सरकार को घेरने की हर संभव प्रयास कर रहा है वहीँ सरकार अपने पूर्ववत निर्णय पर अड़ा हुआ है. दूसरी तरफ इन सब से इतर आम जनता है जो अपनी मजबूरी पर अच्छे दिन आने के सपने संजो रही है. भले ही आप इस निर्णय से खुश हो या नहीं. सहमत हो या नहीं परंतु यहाँ एक यक्ष प्रश्न नोटबंदी से कालेधन की वापसी का है, क्या वास्तव में नोटबंदी से कालाधन वापस आ जायेगा? सिर्फ अगर मीडिया और रिपोर्ट्स की बात की जाए तो अनुमानतः लगभग 4 लाख करोड़ रुपये अभी बैंको में जमा हुआ है जबकि सिर्फ 1 हज़ार करोड़ रुपये ही लोगों को बदली  कराये है.इस बाबत जहाँ बैंको में तरलता (लिक्विडिटी) बढ़ी जिसके कारण बैंको की लोन देने की छमता भी बढ़ गयी है और यस. बी. आई. समेत कई बैंक या तो ब्याज दरों में कटौती कर चुके है या फिर तैयारी कर रहे है. और लोन रेट कम हुए है जिनका निसंदेह

दूरसंचार का सच

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विगत कुछ वर्षो में जब ट्राई (TRAI) की ओर से एक आधिकारिक बयान दिया गया था. जिसमे देश में बढ़ती हुयी टेलीकॉम प्रतिस्पर्धा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया था कि अगर प्रतिस्पर्धा की इस खतरनाक प्रवित्ति पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब टेलीकॉम कंपनिया अपना स्वयं का नुक्सान कर लेंगी. और इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की पारस्परिक बढ़ती प्रतिस्पर्धा का फायदा उपभोक्ता को मिला. गौरतलब है की पिछले कुछ वर्षो में टेलीकॉम कंपनियों की प्रतिस्पर्धा सिर्फ वॉइस कालिंग रेट, मेसेजिंग सर्विसेज और रोमिंग दर को ही केंद्रित रख कर निर्धारित की गयी. हालाँकि बीतते वक़्त के साथ बीएसएनएल जैसे सरकारी उपक्रम का रोमिंग फ्री प्लान ने अगले नए वॉर की न सिर्फ शुरूआत भर की बल्कि बीएसएनएल जैसी मृतप्राय कंपनी को मानो एक मृत संजीवनी दे दी. प्रत्यक्छ रूप से बीएसएनएल के इस नए प्रयोग का कोई सीधा फायदा भले ही उतना न रहा हो परंतु निसंदेह यह उन लोगो के लिए बहुत फायदेमंद रहा जो प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते है. अब चूँकि संचार माध्यमो में प्रगति को हम दूरसंचार की क्रांति से जोड़ कर देख रहे है ऐसे मे

फिल्मों की राजनीति

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किसी ने क्या खूब कहा है कि फिल्मे जिंदगी का अक्स होती है और जिंदगी फिल्मों का अक्स. मतलब जो आप परदे पर देखते है वो कहीं न कहीं हकीकत का ही इक अंश होता है. सुनने में जितना अच्छा लगता है देखने में भी उतना ही अच्छा लगता है मगर जब बात सियासत की आ जाती है तो जो अच्छा लगता भी है उसमें खोट नजर आने लगता है. ठीक ऐसा ही कुछ वाकया देशभक्ति से भी जुड़ा है और इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बात में मुझसे इत्तेफाक रखने वाले भी बहुत कम ही होंगे. खैर सबा अफगानी का एक शेर नज़र करता हूँ-                                                                                            "वो पुर्सिश-ऐ-ग़म को आये हैं कुछ कह न सकूँ चुप रह न सकूँ                                                     ख़ामोश रहूँ तो मुश्किल है कह दूँ तो शिकायत होती है"  उन दिनों दूरदर्शन सिर्फ कुछ ख़ास लोगों तक ही सीमित था और अगर धार्मिक या पौराणिक सिरियलों को छोड़ दिया जाये तो सबसे ज्यादा जिसने लोगों को प्रभावित किया जो संभवतः आज भी कहीं-कहीं देखने को मिलती है वो थी देशभक्ति की फिल्में. जितना रोमांच और देशभक्ति इन फिल्मों को देख

अपनी- अपनी ढपली अपना-अपना राग

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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ऐसा मैंने समाजशास्त्र में पढ़ा था और बहुधा यही तर्क और बात गाहे-बेगाहे सही भी प्रतीत हुयी. लेकिन आज जब मैं इस बात को सोचता हूँ तो लगता है की किताबी बातें महज सतही ही होती है वरना समाज की वास्तविक रूपरेखा जैसी आज हम देखते है क्या वास्तविकता में वैसी ही है? संभवतः नहीं क्योंकि समाज के लिए निर्धारित मापदंड बेमानी से लगते है. आजसे लगभग नौ साल पहले जब मैं ब्रसेल में अपने अध्ययन के सिलसिले में गया हुआ था. ठीक उसी समय सेकंड लाइफ नामक सोशल नेटवर्किंग साइट का चलन जोर पकड़ रहा था. और मुझे यह बात कहते हुए कतई भी गुरेज नहीं है की अन्य लोगों की भाँती मैं भी इसका सदस्य बना. गौरतलब बात यह है की सेकंड लाइफ ने आदमी की पहचान को एक छदम आवरण दिया और साथ ही उन्हें अपनी निजता छिपाकर वह सभी काम करने की आजादी दी जो शायद वास्तविक जीवन में या तो वह करने में सछम नहीं थे अथवा शायद वास्तविक जीवन में उन्हें करने की इजाजत समाज नहीं देता. एक संभावित सा प्रश्न मेरे दिमाग में पहले- पहल कौंधा की आखिर ऐसा एक मंच(प्लेटफॉर्म) तैयार करने की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ी? अन्य लोगों की अपेछा मैं अपन

बैंको का काला दिवस

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मित्रो और सज्जनो इस बार बिना किसी लाग- लपेट के और बिना किसी प्रस्तावना के आज आपके सामने अपनी बात रखना चाहूंगा, और यकीन मानिये आज जिस मुद्दे पर मैं अपनी राय रखूँगा वह मामला वास्तविकता में इतना गंभीर है जिसके लिए किसी प्रस्तावना या लाग-लपेट की जरूरत ही नहीं. परंतु यहाँ एक बात मैं स्पष्ट रूप से साफ़ कर देना चाहूंगा कि चूँकि यह लेख अभी आरंभिक अवस्था में है और इससे जुड़े हुए कुछ टेक्निकल बिंदु संभवतः मेरी अज्ञानता वश छूट गए हो अतएव मेरा आप सब से यह नम्र निवेदन है कि प्रस्तुत लेख के सम्बन्ध में अपने विचार और सुझाव अवश्य साझा करें ताकि भविष्य में आपके ज्ञान का उपयोग करके जन मानस हेतु एक अच्छा ज्ञानवर्धक लेख प्रस्तुत किया जा सके. आशा करता हूँ कि यह लेख आपको पसंद आएगा और किसी भी त्रुटि के लिए आप मेरी अज्ञानता को माफ़ कर देंगे. हाल ही में उजागर हुए बैंकिंग फ्रॉड के मामले से आप लोग अच्छी तरह वाकिफ होंगे और निसंदेह आप में से काफियों को तकलीफ उठानी पड़ी होगी. भले ही तुरत- फुरत में बैंको ने कार्ड ब्लॉकिंग के द्वारा कस्टमर को फौरी तौर पर राहत देने और उनका पैसा सुरक्छित करने की कोशिश भले ही की हो मग

आदाब अर्ज है......

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पहले भी कई बार सुना और पढ़ा है कि बॉलीवुड में पढ़े-लिखे लोगों की निहायतन कमी है और वैसे भी जो है भी उन्हें संभवतः इस बात से शिकायत भी नहीं होगी आखिरकार पढ़ाई और कमाई दो अलग अलग बातें है. और अगर ऐसा नहीं होता तो मेरे जैसे न जाने ही कितने लोग ऐसी बकवास चीजों पर भी अपना सर धुनने का निरर्थक प्रयास नहीं करते. खैर, न चाहते हुए भी मन में एक टीस सी रह रह कर उठती है और हाथ अनायास ही कुछ न कुछ लिखने को मचल ही उठते है. फिलहाल इस बार की मेरी शिकायत केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन श्री पहलाज निहलानी जी से है, जिन्होंने कुछ दिनों पूर्व ही हॉलीवुड के एक्टर पियर्स ब्रोसनन के तथाकथित पान बहार के विज्ञापन पर दी है. निहलानी जी का कहना है की टीवी पर शराब और तम्बाखू के प्रोडक्ट बैन है ऐसे में पियर्स ब्रोसनन का पान बहार का विज्ञापन पब्लिक हेल्थ सम्बंधित कारणों की वजह से बैन किया जा सकता है. पहली नजर में देखने से तो उनकी बात बिलकुल तर्कसंगत लगती है और संभवतः होना भी यही चाहिए मगर यहाँ एक सवाल का जवाब अभी भी मुझे अनुत्तरित सा लगा. क्या वास्तव में पहलाज जी को दिक्कत तम्बाखू और शराब के विज्ञापन से है

how pink is really pink?? -Review by Devsheel Gaurav

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Well let me assured you that it is really vogue to write a review after a great delay of time. In fact it's like writing a burial post for gone by things. Yet if you are reading it, rest assured that though the dish is stale yet the garnishing is fresh. Off late when I saw the movie, it was more of public opinion than self made decision. But believe me I am not those pals who like flicks out of hearsay but critically examin e it through. Pink as the normal heuristics suggests, is not a girlie movie. Had Aniruddh Roy (Director) named it court room that probably would have been better. As barring few scenes rest all the movie revolves around it. I often argued people as whether story is the king or the actor? But certainly in case of pink it's otherwise. In fact there is no story line but a small incident and unlike Ronit Roy's famous soap Adalat, they made pink. Ritesh Shah (the story and screen play writer) could neither justify at either front. Even he missed certain p

Raaz Reboot - A critical review by Devsheel Gaurav

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At time I wonder as if it a movie or a operating system or any software program, Raman Raghav 2.0 and now Raaz Reboot. However, unlike serious movie buffs, who believes in sequel, let me warn you that the new series of ghotic movie Raaz can quite disappoint you. The beginning of movie is rather slow and could not justify the timeline of the movie by ending up a hasty and clumsy climax. The total timing of movie is approx. 2 hours and 20 minutes. The slow paced first part of the movie takes a galloping leap in second half and the final 20 minutes remains for end of the climax. There is nothing new in the movie except a connection between rest of the movies like 1920 and 1920 returns. In fact few scenes of movie seem copy pasted from them. Same situations, same possessed girl and same exorcism ritual reminds old ghotic movies. There ar only songs in the movie mark their presence "Lo Maan Liya humn" written by Kausar Munir, sung by Arjit Singh and "Raaz aakhen Teri"

THE CONFESSION

“From past couple of days I have been observing that you are very upset. Is there something that bothering you? Something that you want to ask or share with me?” wife asked his husband. “A girl……there is a girl in my life.” Husband replied. Silence prevailed for a while. “I don’t know how you are going to react to this but from past few days she is insisting me to marry.” Husband continued. “So what have you decided?” wife calmly asked. “Look I don’t want to leave you but cannot live without her either.” Husband gave the concise answer. “Does she know that you are married and a father of a kid?” wife grilled again. “Yes, she knows it and she agreed to take care of our kid.” Husband gave the answer. “So what’s big problem? Do you want to divorce me?” the question was tricky. “Honey I didn’t intend to but have got no solution of it. Would you except someone as your husband’s second wife?” husband explained his situation to her. Silenced prevailed again. Both sit in different corner o

पूर्वाग्रह

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बड़ा ही अजीब होता है पूर्वाग्रह की परिधि से पार जाना. कितनी ही बार कोशिश कर के देख लो, मगर गाहे-निगाहे अनचाहे ही पूर्वाग्रह की छाया मन को ढक ही लेती है. चलो भले ही कुछ समय के लिए यह धुंध मन-मष्तिष्क से हट जाये परंतु सदा के लिए इसका समापन शायद ही संभव हो. एक-आध बार कोशिश करके, मन कड़ा करके और दृण संकल्प का वचन लेकर कोशिश करो. संभव है छणिक शांति मिले परंतु क्या वास्तव में यह स्थायी समाधान है, शायद नहीं. फिर अचानक ही आपके मन में अगला प्रश्न उठ खड़ा होता है और फिर आप अपने मन को उन्ही घनघोर अँधेरी गलियों में पाते है, जिनका कोई ओर-छोर नहीं है. आपका मन प्रश्न करता हैकि क्या वास्तव में अपनी आँखें फेर लेने मात्र से संसार पुनः वैसा ही हो जायेगा जैसा पहले था? और यदि कदाचित ऐसा न हुआ तो? यह तो स्वयं को मूर्ख बनाने वाली बात होगी. ठीक ऐसा ही कुछ शुतुरमुर्ग नामक पछी के साथ उसी प्रकार संभावित खतरे से जुडी प्रतिक्रिया स्वरुप होता है. रेत के विशाल तूफ़ान की आशंका मात्र से यह पछी अपनी गर्दन रेत के ढेर में छुपा लेता है और कल्पना करता है की वह सुरक्छित है जबकि वास्तविकता में उसका सम्पूर्ण शरीर अभ

आदमी और जूता

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अभी हाल ही में मेरे दफ्तर के एक पुराने कर्मचारी सेवा निवृत्त हुए. हालाँकि मेरा और उनका परिचय कुछ ख़ास नहीं था. फिर भी वे मेरे खासमखास बने हुए थे. वैसे भी यांत्रिक सी चल रही इस जिंदगी में नाते-रिश्तो के लिए जगह ही कहाँ बची है? और फिर भी नाते रिश्ते या तो जन्म के साथ जुड़ते है या मतलब के लिए बनते है. ठीक ऐसा ही कुछ रिश्ता उनका मेरे साथ था, चूँकि मेरी और उनकी पहचान बचपन या रिश्ते  से जुडी नहीं थी इसलिए ये कहना अतिशयोक्ति होगी कि हमारी पहचान दोस्ती की जद में आती है. परंतु इस बात से भी सर्वथा इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसी अन्य रिश्ते से इस परिचय को पारिभाषित किया जाये. बहरहाल अब तक तो आप समझ ही चुके होंगे की दोस्ती के भी कई आयाम होते है और शायद हमारी दोस्ती के भी आयाम कुछ अलग रहे होंगे. गौरतलब बात ये है कि हमारी दोस्ती की मुख्य वजह उनकी उच्च, कुलीन और संभ्रांत कहे जाने वाले आधिकारिक वर्ग से निकटता ही थी. और शायद यही वजह थी जिससे अनचाहे ही वे मेरे मित्र कम और अधिकारी अधिक हो गए. जिस प्रकार मालिक का कुत्ता भी मालिक के समान ही अधिकारों द्वारा पोषित होता है कमोबेश यही हाल यहाँ भी था. म

Nothing official about it

An official circular combining two different information was posted on notice board. The first one was of a holiday notice and second was a confirmation notice about nullifying a holiday on a particular date. Readers wits came to end to apprehend it. Few believed that the vacation will continue till the date mentioned in it. However such interpretation was not apprehend by the management and either to save paper or showing some extra brilliance they clubbed it together and it created a chaotic situation. Later on when matter was brought to the notice of management, mistake was realized and a different notice was prepared to clear the wind. Meanwhile someone from the management suggested to strike off the second part of notice as when we are not declaring a holiday it would be assumed that the office will remain open. The confusion can be averted. I was asked the same thing and I narrated an interesting incident to make it more clear as what I believe. Once a person was going somewh

Iss Kahani Ke Sabhi Paatr aur Ghatnayein Kaalpanik Hai

Remember the notification often used to mentioned in most of the soaps and flicks, all the names, characters and incidents are portrayed in this production are fictitious and bears no resemblance and if any resemblance is found it would be purely a coincidence. You might or might not have taken it seriously and believed that the disclaimer is the only part of the copy write act and it's statutory. But have you ever though t that the philosophy of our life is more like this disclaimer where people and place seldom bears any importance until a real coincidence happens and force you to believe that your life is not like this disclaimer where nothing matters to you. On Wednesday a mishap happened with a Delhi height Mahabul. In the wee hour when he was returning to his home after his night duty. He was hit by an auto, the auto driver halted there and when he realized that nobody noticed him. He left Mahabul dying and ran away. Passer by did not come to help him later on a rickshaw

ऊँची जात बनाम पिछड़ी जात

आज भले ही हम अपने विशाल जीवन दर्शन और ज्ञान कि बात करें तो अनचाहे ही समाज के एक ख़ास हिस्से से ख़ुद को जोड़े रखने का ख्याल आते ही हमारे मन और मस्तिष्क में एक अजब ही द्वंद शुरू हो जाता है. दुनिया को दिखाने के लिए हम भले ही जात-पांत को एक ढकोसला मान कर अपनी दरियादिली और वसुधैव कुटुम्बकम् का परचम लहराते रहे, परंतु मन ही मन हम शायद ही इस विचार से निजात पा सके कि जात-पाँत एक ढकोसला मात्र है. सच पूछा जाएँ समाज के दोनों तबकों में यह एक झुँझलाहट और खीज साफ़ तौर पर देखी जा सकती है. एक तरफ़ जहाँ पिछड़ी जात अपने प्रति सदियों तलक किए गए उपेक्छा, अपमान और अनदेखी के वर्षो तक सृजित कुंठा के परिराम स्वरूप ऊँची जात को नफरत कि निगाह से देखती है वही दूसरी तरफ़ ऊँची जात वाले बाबा भीम राओ अंबेडकर द्वारा निर्धारित आरक्षण द्वारा ख़ुद को शोषित मेह्सूस कर रहे है और गाहे- बेगहे आरक्षण समाप्त करने कि वकालत करते नजर आ रहे है. गौरतलब बात ये है कि भले ही रज्नितिक पार्टियों द्वारा पिछड़ी जातियों को लुभाने के लिए चला गया यह तुरुप का एक्का पिछड़ी जातियों के लिए एक बैसाखी से बढ़ कर कुछ भी नही है. आजादी कि इतने समय ब

आखिर क्यों जरूरी है राम मंदिर

अगर विगत कई सालों के राजनितिक फायदों को दर किनार कर दिया जाये तो भी एक यछ प्रश्न प्रायः ही हमारे सामने खड़ा होता है की अयोध्या में राम मंदिर आखिर क्यों जरूरी है? और क्या वास्तव में इससे किसी को (खासकर हिन्दुओं को) वास्तव में कोई दिलचस्पी होनी चाहिए या नहीं? तो सबसे पहले मैं इस विषय को काल खण्डों से निर्दिष्ट कुछ तथ्यों और तर्कों से जोड़कर आपको इसके महत्त्व के बारे में बताना चाहुगा. मंदिर बनाम मस्जिद :-इतिहास के पन्नो को अगर पलटकर देखे तो हम पाते है  की मुग़ल वंश का संस्थापक और लुटेरा बाबर कोई और नहीं बल्कि हिन्दुओं का कट्टर शत्रु और उनके धार्मिक रीति रिवाजों को को ठेस पहुंचाने वाला एक विदेशी आक्रान्ता था. जिंसने बड़ी ही क्रूरता और अमानुषिक ढंग से हिन्दुओं का नरसंहार कराया और अनेक हिन्दू तथा जैन मंदिरों को नस्ट कर दिया. बाबर के तात्कालिक गवर्नर मीर बाकी ने पुजारियों से यह स्थान छीनने के बाद हिन्दुओं के पूज्य स्थान राम मंदिर को 1527 ईस्वी में गिराकर मस्जिद का निर्माण कराया. इस बात की पुष्टि करता हुआ एक शिला लेख 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाए गए अवशेषों से भी प्राप्त हुआ है. यही नहीं भार

kabhi yun bhi kabhi

main kya likhta hoon isse shayad hi kisi ko fark padta ho, sirf tarref bhar kar dena ya fir nighahein feir lene bhar se is baat ki itishree ho jaati hai. kuch baat jehan mein tikti to nahi, bajahir taur par ise jehni gawariyat ya aalsipan na kahe to aur kya kahe? mumkin taur par aaj jab hum jehni aur ehsasiyat se pare ek aisi duniya mein reh rahe hai Jahan aksar ye baatein deewanapan lagti hai, us par turra yeh ki mukhatib shakhs aapki baaton se ittefaq ra khe ye hargij bhi jarrori nahi. Sahi Mayne mein aap jalaliyat ki ek aisi hakiki duniya mein ji rahe hai, Jahan kuch bhi kehne ya sunne ke talabgaar bahut ki gine chune hi honge. usse bhi buri aur napasandgi ki baat ye hai ki aapko unlogon ko apni guftgoo rabta karni pade jo shayad hi aapke maslo se tarruf rahte ho? kai baar to Yun bhi hua hai, ki aap jehni taur par kisi khaas masle par apni rai shumaar kar rahe ho aur tarruf Karne Wala shakhs apni hi masroofiyat mein mashgool ho. yakeenan jis waqt aapko iska ilm hota hai, aap ko jeh

Experience Speaks

I have always been a supporter of frugality be it money or words. But in reality you have to devoid most of the pleasantries that otherwise you have enjoyed. I practiced it years but neither too much frugality nor extravagance will help you all the time. moreover in dictionary being frugal to express the feeling is termed 'Coy' though I am not very sure as whether it justifies my personality or not. But those who know me from pretty long will surely buy this  logic. Altruism does not lie of being frugal or extravagant because in both the cases until it has any monetary value. In my case I had to cut sorry figures many a time for being frugal in expressing my feeling. The worst thing about being frugal in expression is most of the people assume that either you are arrogant or don't have knowledge. The second one is applicable to me. I remember an incident when I was doing matriculation from the same school where my father was teaching. It made me more frugal and humble to s

THE WISE AND THE OTHER WISE

Hindu are fools and Muslim are no better than them; we are living in the global era they are still fighting for stupid reason like religion which has seldom any importance in today’s world. People are fighting over cow and goat, over beef and mutton. Who came first and who preceded whom, Islam is big or Hinduism? However I hardly see someone serving the humanity over religion. If you are dying and have an urgent requirement of blood, will you ask from the blood bank that only Hindu donor’s blood would be given or only Muslim’s. Never why, because when it comes to save your life you seldom ask someone’s religion. So should I interpret it that religion is for self satisfaction and nothing else. Yes you guessed it right. You can call me atheist because I say so. People are still fighting over trifles and most of the time important things are sidelined from the discussion. May be or may not be you are agree it or not but if any of you would stand up and ask any of your spiritual leader a

सेकेण्ड चैप्टर-रूबरू

 उद्घोषणा- इस प्रोग्राम में इंगित किया गया रेडियो चैनल एक कल्पना मात्र है, इसका वास्तविकता से कोई समबन्ध नहीं है. अगर कोई समानता पायी जाती है तो ये मात्र एक संजोग है. स्टार्ट अप-रेडियो नाइन सेकेण्ड चैप्टर-रूबरू  कुछ चूक हुयी शायद परन्तु शीघ्र ही भूल सुधार कर लिया गया. एक तसल्ली सी हुयी की अब शायद सब ठीक है. और संभवतः ऐसा ही होता तो ठीक होता. वक्त बीता समय बदला लेकिन शयद खुश-फहमी में हम कुछ ज्यादा ही बेपरवाह हो गए थे. वक्त ने सिर्फ तासीर बदली थी तामीर अब भी वही थी. कुछ देर ठहरे, सोचा और कुछ कयास लगाये. ताश के पत्तो का महल, शुष्क हवा के एक हलके से झोके से भर-भराकर गिर गया. कमबख्त दिल न जाने क्या-क्या आरजू पल बैठा था, बिना ये सोचे की क्या खुद पर इख्तेयार है जो दूसरों पर ऐतबार करें. किसकी गलती थी? खुद की, ताश के पत्तों की या फिर हवा के उन सुर्ख झोको की, जो पल भर में ही औकात की पहचान करा गए. कुछ देर झुंझलाहट हुयी, खुन्नस भी आई पर बाद में बेसाख़्ता हंसी ने सच से हमे रूबरू कराया. दोस्तों कितनी ही बार हमारे साथ ऐसा होता है की हम किसी चीज के पूरी होने की कल्पना मात्र से ही खुश हो जाते है बल्कि
Dear Friends, As promised,sharing herewith the first chapter of program. please provide me your valuable feedback. उद्घोषणा- इस प्रोग्राम में इंगित किया गया रेडियो चैनल एक कल्पना मात्र है, इसका वास्तविकता से कोई समबन्ध नहीं है. अगर कोई समानता पायी जाती है तो ये मात्र एक संजोग हैΙ स्टार्ट अप-रेडियो नाइन फर्स्ट चैप्टर आम आदमी की ख्वाहिशे भी आम आदमी की तरह ही जिंदगी भर ये ही समझने में बीत जाती है कि आखिर उसका आस्तित्व है क्या? क्या सही है, क्या गलत, कौन पहले है और कौन बाद मेंΙ किसी मशहूर शायर का एक कलाम अचानक ही जेहन में कुछ भूली- बिसरी यादों को कितनी आसानी से बयान कर जाता है:- "मैं दुकानो पर खिलौने ढूंढता ही रह गया, और मेरे बच्चे सयाने हो गए." सच पुछा जाये तो हम आप सभी अगर इस बात से मुतमईन (विश्वास करना/इतिफाक रखना) नहीं है तो और क्या है? रोज सुबह कि वही भागमभाग और रोज शाम का यूँ ही आहिस्ते से गुजर जानाΙ आपको नहीं लगता कि हमारी जिंदगी कोल्हू के उस बैल की तरह हो गयी है, जो भले ही कितने चक्कर लगा ले, घूम-फिर कर फिर से उसी जगह पहुँच जाता हैΙ लोग-बाग़ भले ह