आदमी और जूता


अभी हाल ही में मेरे दफ्तर के एक पुराने कर्मचारी सेवा निवृत्त हुए. हालाँकि मेरा और उनका परिचय कुछ ख़ास नहीं था. फिर भी वे मेरे खासमखास बने हुए थे. वैसे भी यांत्रिक सी चल रही इस जिंदगी में नाते-रिश्तो के लिए जगह ही कहाँ बची है? और फिर भी नाते रिश्ते या तो जन्म के साथ जुड़ते है या मतलब के लिए बनते है. ठीक ऐसा ही कुछ रिश्ता उनका मेरे साथ था, चूँकि मेरी और उनकी पहचान बचपन या रिश्ते  से जुडी नहीं थी इसलिए ये कहना अतिशयोक्ति होगी कि हमारी पहचान दोस्ती की जद में आती है. परंतु इस बात से भी सर्वथा इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसी अन्य रिश्ते से इस परिचय को पारिभाषित किया जाये. बहरहाल अब तक तो आप समझ ही चुके होंगे की दोस्ती के भी कई आयाम होते है और शायद हमारी दोस्ती के भी आयाम कुछ अलग रहे होंगे.
गौरतलब बात ये है कि हमारी दोस्ती की मुख्य वजह उनकी उच्च, कुलीन और संभ्रांत कहे जाने वाले आधिकारिक वर्ग से निकटता ही थी. और शायद यही वजह थी जिससे अनचाहे ही वे मेरे मित्र कम और अधिकारी अधिक हो गए. जिस प्रकार मालिक का कुत्ता भी मालिक के समान ही अधिकारों द्वारा पोषित होता है कमोबेश यही हाल यहाँ भी था. मातहतों को सिर्फ उतनी ही आज़ादी होती है कि वे सिर्फ अपने अधिकारियों और उनके खासमखास की आवभगत में ही अपना जीवन समर्पित करें और उनकी अनुकंपा ही उनके लिए प्रसाद होती है. भले ही आप उनसे सहमत हो या नहीं मगर यहाँ आप से ज्यादा उनकी राय मायने रखती है.
खैर, गिले-शिकवे जाहिर करने के लिए अगर मैं कुछ लिखूँ तो ये गलत होगा . फिर जब तक वे थे तब पीठ पीछे भला- बुरा बोलकर भड़ास निकाल लेना अलग बात थी. लेकिन किसी के जाने के बाद उसकी आलोचना करना मुझे अप्रासंगिक ही लगता है. संभवतः यही परेशानी उन अधिकारीगड़ो  को भी हुयी होगी जिनके साथ उनका उठना-बैठना था. शुरूआती दिनों में तो गाहे-बेगाहे ये परिचर्चा आम रही कि दफ्तर में आखिर समय कैसे काटा जाये? और यहाँ हम गोया इसी गफलत में जिंदगी गुजार रहे थे कि दफ्तर लोग काम-काज करने जाते है. कुछ दिन इसी उदेडबुन में लोग लगे रहे और अंततः ये निर्णय लिया गया कि आमुक व्यक्ति का काम अत्यंत महत्वपूर्ण है और उसके बिना पूरे दफ्तर का काम-काज प्रभावित हो रहा है, लिहाज़ा उन्हें वापस बुलाया जाये. चूँकि वे अन्यत्र ही कहीं व्यस्त थे और संभवतः वे स्वयं भी दूसरी जगह स्वयं को स्थापित करने में लगे थे. अतः काफी मानमनौवल और निसंदेह वेतन वृद्धि का लालच देकर उन्हें बुलाया गया. जनाब आये और इस बार बदले हुए कलेवर के साथ. कल तक जो मित्रता का छद्दम आवरण था वह भी अब हट चुका था. और अधिकारियों की जमात में एक नया नाम और जुड़ चुका था.
ठीक ऐसा ही एक प्रसंग मेरे मित्र से जुड़ा हुआ भी है. काफी लोगों की तरह उन्हें भी एक ख़ास व्यसन है. और उस व्यसन की तलब ऐसी है कि जब तक पूरी न हो वे अपने दैनिक कार्य (नेचर्स कॉल ) से निवृत्त नहीं हो पाते है. जैसे कोई सुबह सिगरेट पीता है, तो कोई पान मसाला खता है, और कोई गर्म पानी या चाय पीता है निवृत्त होने के लिए. परंतु मेरे मित्र के निवृत्त होने का एक ख़ास तरीका है उनका एक खासमखास जूता. अगर वह जूता उनके पैर में न हो तो वे चाह कर भी पूरी तरह दैनिक कार्य से निवृत्त नहीं हो पाते है, और तो और उस जूते कि अहमियत का पता इस बात से लगा सकते है कि मियाँ जब भी कभी किसी काम से बाहर जाते है तो बदस्तूर उस जूते को अपने साथ ले जाना हरगिज नहीं भूलते. हालाँकि एक बार गफलत में उनकी माता जी जो कि बजाहिर तौर पर उनकी इस मोहब्बत से अनजान थी उस जूते को कूड़े वाले को दे बैठी. और जब भाई साहब निवृत्त होने के लिए चले तो जूता नादारथ था.  बड़ी भाग- दौड़ के बाद अंततः जब वह कबाड़ी से मुखातिब हुए तो ऐसे गिड़गिड़ाने लगे मानो जूता नहीं जवाहरात हो और गलती से ही सही कबाड़ी वाले ने उस पर अपना मालिकाना हक़ जाता दिया हो.
खैर, भले ही आप इन दोनों बातो से इत्तेफाक न रखते हो और भले ही मेरे तथाकथित मित्र और उस जूते कि कोई ख़ास अहमियत न हो किसी अन्य कि जिंदगी में, परंतु वही दूसरी तरफ यही छोटी-छोटी चीजें कब हमारी जिंदगी का हिस्सा बन जाती है पता ही नहीं चलता. "आदमी खुद ही ढूंढ लेता है, दिल बहलाने के मंजर", ठीक ऐसा ही कुछ हम सभी के साथ जुड़ा होता है. 


लेखक:- देवशील गौरव

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