Posts

Showing posts from October 25, 2016

दूरसंचार का सच

Image
विगत कुछ वर्षो में जब ट्राई (TRAI) की ओर से एक आधिकारिक बयान दिया गया था. जिसमे देश में बढ़ती हुयी टेलीकॉम प्रतिस्पर्धा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया था कि अगर प्रतिस्पर्धा की इस खतरनाक प्रवित्ति पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब टेलीकॉम कंपनिया अपना स्वयं का नुक्सान कर लेंगी. और इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की पारस्परिक बढ़ती प्रतिस्पर्धा का फायदा उपभोक्ता को मिला. गौरतलब है की पिछले कुछ वर्षो में टेलीकॉम कंपनियों की प्रतिस्पर्धा सिर्फ वॉइस कालिंग रेट, मेसेजिंग सर्विसेज और रोमिंग दर को ही केंद्रित रख कर निर्धारित की गयी. हालाँकि बीतते वक़्त के साथ बीएसएनएल जैसे सरकारी उपक्रम का रोमिंग फ्री प्लान ने अगले नए वॉर की न सिर्फ शुरूआत भर की बल्कि बीएसएनएल जैसी मृतप्राय कंपनी को मानो एक मृत संजीवनी दे दी. प्रत्यक्छ रूप से बीएसएनएल के इस नए प्रयोग का कोई सीधा फायदा भले ही उतना न रहा हो परंतु निसंदेह यह उन लोगो के लिए बहुत फायदेमंद रहा जो प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते है. अब चूँकि संचार माध्यमो में प्रगति को हम दूरसंचार की क्रांति से जोड़ कर देख रहे है ऐसे मे

फिल्मों की राजनीति

Image
किसी ने क्या खूब कहा है कि फिल्मे जिंदगी का अक्स होती है और जिंदगी फिल्मों का अक्स. मतलब जो आप परदे पर देखते है वो कहीं न कहीं हकीकत का ही इक अंश होता है. सुनने में जितना अच्छा लगता है देखने में भी उतना ही अच्छा लगता है मगर जब बात सियासत की आ जाती है तो जो अच्छा लगता भी है उसमें खोट नजर आने लगता है. ठीक ऐसा ही कुछ वाकया देशभक्ति से भी जुड़ा है और इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बात में मुझसे इत्तेफाक रखने वाले भी बहुत कम ही होंगे. खैर सबा अफगानी का एक शेर नज़र करता हूँ-                                                                                            "वो पुर्सिश-ऐ-ग़म को आये हैं कुछ कह न सकूँ चुप रह न सकूँ                                                     ख़ामोश रहूँ तो मुश्किल है कह दूँ तो शिकायत होती है"  उन दिनों दूरदर्शन सिर्फ कुछ ख़ास लोगों तक ही सीमित था और अगर धार्मिक या पौराणिक सिरियलों को छोड़ दिया जाये तो सबसे ज्यादा जिसने लोगों को प्रभावित किया जो संभवतः आज भी कहीं-कहीं देखने को मिलती है वो थी देशभक्ति की फिल्में. जितना रोमांच और देशभक्ति इन फिल्मों को देख

अपनी- अपनी ढपली अपना-अपना राग

Image
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ऐसा मैंने समाजशास्त्र में पढ़ा था और बहुधा यही तर्क और बात गाहे-बेगाहे सही भी प्रतीत हुयी. लेकिन आज जब मैं इस बात को सोचता हूँ तो लगता है की किताबी बातें महज सतही ही होती है वरना समाज की वास्तविक रूपरेखा जैसी आज हम देखते है क्या वास्तविकता में वैसी ही है? संभवतः नहीं क्योंकि समाज के लिए निर्धारित मापदंड बेमानी से लगते है. आजसे लगभग नौ साल पहले जब मैं ब्रसेल में अपने अध्ययन के सिलसिले में गया हुआ था. ठीक उसी समय सेकंड लाइफ नामक सोशल नेटवर्किंग साइट का चलन जोर पकड़ रहा था. और मुझे यह बात कहते हुए कतई भी गुरेज नहीं है की अन्य लोगों की भाँती मैं भी इसका सदस्य बना. गौरतलब बात यह है की सेकंड लाइफ ने आदमी की पहचान को एक छदम आवरण दिया और साथ ही उन्हें अपनी निजता छिपाकर वह सभी काम करने की आजादी दी जो शायद वास्तविक जीवन में या तो वह करने में सछम नहीं थे अथवा शायद वास्तविक जीवन में उन्हें करने की इजाजत समाज नहीं देता. एक संभावित सा प्रश्न मेरे दिमाग में पहले- पहल कौंधा की आखिर ऐसा एक मंच(प्लेटफॉर्म) तैयार करने की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ी? अन्य लोगों की अपेछा मैं अपन

बैंको का काला दिवस

Image
मित्रो और सज्जनो इस बार बिना किसी लाग- लपेट के और बिना किसी प्रस्तावना के आज आपके सामने अपनी बात रखना चाहूंगा, और यकीन मानिये आज जिस मुद्दे पर मैं अपनी राय रखूँगा वह मामला वास्तविकता में इतना गंभीर है जिसके लिए किसी प्रस्तावना या लाग-लपेट की जरूरत ही नहीं. परंतु यहाँ एक बात मैं स्पष्ट रूप से साफ़ कर देना चाहूंगा कि चूँकि यह लेख अभी आरंभिक अवस्था में है और इससे जुड़े हुए कुछ टेक्निकल बिंदु संभवतः मेरी अज्ञानता वश छूट गए हो अतएव मेरा आप सब से यह नम्र निवेदन है कि प्रस्तुत लेख के सम्बन्ध में अपने विचार और सुझाव अवश्य साझा करें ताकि भविष्य में आपके ज्ञान का उपयोग करके जन मानस हेतु एक अच्छा ज्ञानवर्धक लेख प्रस्तुत किया जा सके. आशा करता हूँ कि यह लेख आपको पसंद आएगा और किसी भी त्रुटि के लिए आप मेरी अज्ञानता को माफ़ कर देंगे. हाल ही में उजागर हुए बैंकिंग फ्रॉड के मामले से आप लोग अच्छी तरह वाकिफ होंगे और निसंदेह आप में से काफियों को तकलीफ उठानी पड़ी होगी. भले ही तुरत- फुरत में बैंको ने कार्ड ब्लॉकिंग के द्वारा कस्टमर को फौरी तौर पर राहत देने और उनका पैसा सुरक्छित करने की कोशिश भले ही की हो मग

आदाब अर्ज है......

Image
पहले भी कई बार सुना और पढ़ा है कि बॉलीवुड में पढ़े-लिखे लोगों की निहायतन कमी है और वैसे भी जो है भी उन्हें संभवतः इस बात से शिकायत भी नहीं होगी आखिरकार पढ़ाई और कमाई दो अलग अलग बातें है. और अगर ऐसा नहीं होता तो मेरे जैसे न जाने ही कितने लोग ऐसी बकवास चीजों पर भी अपना सर धुनने का निरर्थक प्रयास नहीं करते. खैर, न चाहते हुए भी मन में एक टीस सी रह रह कर उठती है और हाथ अनायास ही कुछ न कुछ लिखने को मचल ही उठते है. फिलहाल इस बार की मेरी शिकायत केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन श्री पहलाज निहलानी जी से है, जिन्होंने कुछ दिनों पूर्व ही हॉलीवुड के एक्टर पियर्स ब्रोसनन के तथाकथित पान बहार के विज्ञापन पर दी है. निहलानी जी का कहना है की टीवी पर शराब और तम्बाखू के प्रोडक्ट बैन है ऐसे में पियर्स ब्रोसनन का पान बहार का विज्ञापन पब्लिक हेल्थ सम्बंधित कारणों की वजह से बैन किया जा सकता है. पहली नजर में देखने से तो उनकी बात बिलकुल तर्कसंगत लगती है और संभवतः होना भी यही चाहिए मगर यहाँ एक सवाल का जवाब अभी भी मुझे अनुत्तरित सा लगा. क्या वास्तव में पहलाज जी को दिक्कत तम्बाखू और शराब के विज्ञापन से है