निंदक नियरे राखिये
जिस दिन सुना उसे कहते हुए कि मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ जो देश के काम आये, समाज के काम आए, मैं मन ही मन मुस्काया अपनी दाढ़ी के कुछ सफेद हो चुके लहराते हुए सफेद बालों का ख़याल करके सोचा, लगता है मियां अभी तक ख्वाबो की ही दुनिया में जी रहे हो शायद l वरना कौन भला इन पचड़ों में पड़ता है, उस पर से जब खुद न कुछ बन सके तो दुनिया को वनाने लगे। अब आप भले ही इसे मेरी तुक्ष्य मानसिकता कहे या फिर मेरी नकारात्मक सोच, परंतु वास्तविकता तो यही है। इसी वक्त के मुफीद ग़ालिब का एक शेर याद आ गया, "चली न जब कोई तदबीर अपनी ए ग़ालिब, तो हम भी कह उठे यारों यहीं मुकद्दर था"। अब जबकि आप मेरी बातों को मेरी मानसिकता और मेरी उस शख़्स से जलन के तौर पर देख रहे है तो यहाँ मैं आपके कुछ पूर्वाग्रह को दूर करना चाहूंगा, अव्वल तो यह कि दुनिया में कोई भी सम्पूर्ण नही है, समर्थवान भी नही है, मसलन कुछ न होने पर यह सोच कर खुद को और दूसरों को दिलासा देना की कुछ होने पर या समर्थवान बन जाने पर अमुक-अमुक काम करूंगा, और फिर कुछ बन जाने के बाद अपनी ही कही बातों को मूर्खता की संज्ञा देकर मजाक उड़ाना। आपको ये भी भली प्रकार य