Posts

Showing posts with the label #India

समाजवाद में धर्म का स्थान

Image
  समाजवाद के विकास के साथ-साथ जिस विषय पर सबसे कम प्रकाश डाला गया वह था ईश्वर में विश्वास अथवा ईश्वर के प्रति आस्था। सभी समाजशास्त्रियों ने किस प्रकार इस विषय को समाज का एक अपरिहार्य न मानते हुए समाजवाद की परिकल्पना प्रस्तुत की, यह निसंदेह एक शोध का विषय हो सकता है। जिस प्रकार अनेक व्यक्ति ईश्वर की संकल्पना एक सर्वशक्तिमान एवं समाज को दिशा देने वाले मार्गदर्शक श्रोत के रूप में करते है वह वास्तव में बहुत अनूठा है। ईश्वर के बिना समाज की कल्पना करना प्राण के बिना प्राणी अथवा शरीर की कल्पना करने जैसा है। सृष्टि के आरंभ से ही व्यक्ति अपने अज्ञान के कारण एक ऐसी शक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा जो जीवोत्पत्ति के लिए तथा सृष्टि को निर्बाध रूप से चलाने हेतु जिम्मेदार समझी गयी। हालांकि पाश्चात्य दर्शन एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने काफी हद तक इस भ्रम को तोड़ने का काम किया और ईश्वर की उपासना जिसे धर्म का नाम दिया गया था उसका स्थान पूंजीवादी मानसिकता ने लिया परंतु पश्चिमी देश धर्म की वास्तविक व्यख्या करने में विफल रहे और समाज का एक बहुत बड़ा तबका आस्तिक बन गया। धर्म का यह अनुसरण ईश्वर के प्रति आस्था एवं

भारतीय अर्थव्यवस्था की दुर्दशा के कारण

Image
अक्सर ही मेरे पिताजी एक चुटकुला सुनाते थे। एक बार एक व्यक्ति ने अपना रेस्टोरेंट खोला। रेस्टोरेंट के बाहर उसने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए मेनू का बोर्ड लगाया और उसके नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में यह लिख दिया कि हमारे रेस्टोरेंट में हर दिन एक नया व्यंजन खाने को मिलेगा और कोई भी डिश दोहराई नही जाएगी। एक दिन मेनू में उसने एक नई डिश लिखी, कद्दू और अंगूर की सब्जी। एक व्यक्ति उत्सुकतावश रेस्टोरेंट में गया और उसने वह डिश आर्डर कर दी। खाना परोसे जाने तक उसने मैनेजर से बात करने का सोचा। उसने मैनेजर से पूंछा की कद्दू और अंगूर की सब्जी के बारे में उसने पहले कभी नही सुना। मैनेजर ने कहा हमारा बावर्ची बहुत ही होनहार है वह हर दिन कोई न कोई नई डिश बनाता ही है। डिश के बारे में अधिक जानकारी के लिए उस व्यक्ति ने बावर्ची से मिलने की इच्छा व्यक्त की। बावर्ची ने उसे बताया कि इस डिश को बनाने के लिए कद्दू और अंगूर का सही अनुपात होना बहुत जरूरी है और हम इसी अनुपात को ध्यान में रखकर ही डिश बनाते है। व्यक्ति ने अधिक जानकारी के लिए बावर्ची से पूछ लिया कि ये अनुपात है क्या। बावर्ची ने कहा एक कद्दू पर एक अंगूर। ठीक

जिन्दा आदमी बनाम मुर्दा आदमी

Image
  मुर्दा आदमी, जिन्दा आदमी से कहीं ज्यादा सम्मान पाता है. लोगों को जिन्दा आदमी से उतना सरोकार नहीं होता जितना मुर्दा आदमी से होता है. जिन्दा आदमी की परवाह केवल गिने-चुने लोग ही करते है जबकि मुर्दा आदमी की परवाह अक्सर वे लोग भी करते है नजर आते है जिसका उनके जिन्दा होते हुए कोई सरोकार नहीं रहा. एक-आध अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो अक्सर ही मरे हुए के लिए ही मंदिर व दरगाह इत्यादि बनाये जाते है. इसे समाज की विडम्बना न कहिये तो और क्या कहिये कि समाज में मरे हुए लोगों को जिन्दा रखने का एक रिवाज सा चल पड़ा है. धर्म कोई भी हो, कोई भी सम्प्रदाय हो मगर सभी मुर्दों को जिन्दा रखने और जिन्दा से गुरेज करने में व्यस्त है. हिन्दुओ में पितृ विसर्जन का वही महत्तव है जो ईसाईयों में मरने वाले की याद में उसकी कब्र पर प्रत्येक वर्ष फूल चढाने का, जन्मदिन हो या मृत्यु का दिन कमोबेश यही सिलसिला जारी रहता है. भले ही उस व्यक्ति के जीवित रहने पर उसे उन लोगों के प्यार, सहयोग व अपनेपन से दूर क्यों न रहना पड़ा हो. वहीँ समाज का एक तबका इनके नाम पर धर्मशाला, मंदिर, दरगाह बनाकर मरे हुए लोगों के नाम पर भी पैसे बनाने में ल