अपने पतन के स्वयं जिम्मेदार कायस्थ
किसी जमाने में अपनी बुद्धि चातुर्य का लोहा पूरे विश्व में मनवाने वाले कायस्थ आज अपनी दुर्गति और उपेक्षा के स्वयं जिम्मेदार है। अन्य जातियों की भांति जहाँ उन्होंने भी अपने मन में ये दम्भ पाल लिया कि बुद्धि, चतुराई और ज्ञान जैसे अर्जित गुण सिर्फ पारिवारिक और कुल विशेष के पैतृक गुणों में तक ही सीमित है वही दूसरी ओर उन्होंने तेजी से आगे बढ़ रहे समाज के नए वर्गों और कार्यो की उपेक्षा करनी शुरू कर दी। ब्राह्मणों और क्षत्रियो के समान उन्हें भी इस बात का गुमान हो गया कि वे केवल समाज को शासित करने के लिए ही उत्पन्न हुए है। अन्तरजातोय विवाह संबंधों और उच्च जातियों के विखंडन से पैदा हुए एक नए सामाजिक परिवेश में वे स्वयं को ढालने में न केवल बुरी तरह असफल हुए बल्कि उन्होंने ज्ञानार्जन और लोक व्यवहार जैसे व्यवहारिक और उपयोगी गुणों से मुंह मोड़ लिया। कुछ एक उदाहरणों जैसे परिहार, चालुक्य, सतवाहन और कुछ अन्य उदाहरणों को अगर छोड़ दिया जाए तो कायस्थ कभी भी लड़ाकू जनजाति नही रही है। संभवतः ये कायस्थों के पतन का सर्वप्रथम कारण था जब उन्होंने सत्तायुक्त होने के स्थान पर केवल राजकाज, प्रशानिक कार्यो और सलाहका