दूरसंचार का सच


विगत कुछ वर्षो में जब ट्राई (TRAI) की ओर से एक आधिकारिक बयान दिया गया था. जिसमे देश में बढ़ती हुयी टेलीकॉम प्रतिस्पर्धा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया था कि अगर प्रतिस्पर्धा की इस खतरनाक प्रवित्ति पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब टेलीकॉम कंपनिया अपना स्वयं का नुक्सान कर लेंगी. और इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की पारस्परिक बढ़ती प्रतिस्पर्धा का फायदा उपभोक्ता को मिला. गौरतलब है की पिछले कुछ वर्षो में टेलीकॉम कंपनियों की प्रतिस्पर्धा सिर्फ वॉइस कालिंग रेट, मेसेजिंग सर्विसेज और रोमिंग दर को ही केंद्रित रख कर निर्धारित की गयी. हालाँकि बीतते वक़्त के साथ बीएसएनएल जैसे सरकारी उपक्रम का रोमिंग फ्री प्लान ने अगले नए वॉर की न सिर्फ शुरूआत भर की बल्कि बीएसएनएल जैसी मृतप्राय कंपनी को मानो एक मृत संजीवनी दे दी.
प्रत्यक्छ रूप से बीएसएनएल के इस नए प्रयोग का कोई सीधा फायदा भले ही उतना न रहा हो परंतु निसंदेह यह उन लोगो के लिए बहुत फायदेमंद रहा जो प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते है. अब चूँकि संचार माध्यमो में प्रगति को हम दूरसंचार की क्रांति से जोड़ कर देख रहे है ऐसे में तकनीकी रूप से बेहतर संचार माध्यम के मंच (प्लेटफॉर्म) जैसे व्हाट'स अप, वी चैट, हैंगआउट और फेसबुक मैसेंजर ने न सिर्फ दूरसंचार के छेत्र में एक क्रांति का सृजन किया बल्कि दूरसंचार कंपनियों के पूर्वनियोजित ढर्रे को भी विखंडित करना शुरू कर दिया. जहाँ एक तरफ फेसबुक ने अपने प्लेटफॉर्म से फ्री कालिंग और विडियो कालिंग की सुविधा विकसित करने की कोशिश की वहीँ दूसरी तरफ व्हाट'स अप जैसे ऍप्लिकेशन्स ने मोबाइल मेसेजिंग सर्विसेज की कब्र खोद दी. दूरसंचार कंपनियों को एक बार पुनः बाजार में अपने -आपको स्थापित करने हेतु उपभोक्ताओं को दी जाने वाली सेवाओ की पुनः समीक्छा करने के पश्चात कालिंग रेट और डेटा प्लान जैसे न केवल नयी सुविधाओ को और बेहतर बनाने की जी तोड़ कोशिश करनी पड़ी वही दूसरी तरफ यस.एम्.यस. और एम्.एम.यस. जैसी सुविधाओ के प्रति उपभोक्ताओं के घटते रुझान को देखते हुए इन्हें इन सेवाओ को बंद या लगभग बंद करना पड़ा. दूरसंचार के छेत्र में आगामी क्रांति नेट पैक और उसकी स्पीड द्वारा निर्धारित की गयी और इस क्रांति को अगर जनरेशन क्रांति भी अगर कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. २जी को स्थानापन्न किया 3 जी ने जिसके बारें बारे में यह दावा किया गया की स्पीड के मामले में यह २ जी को मात दे देगा और काफी हद तक यह तर्क सही भी साबित हुआ. एयरटेल जैसी कंपनियों के लिए ३ जी लाइसेंस मिलना निसंदेह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं कही जा सकती है क्योंकि रेडियो फ्रीक्वेंसी अधिक होने की वजह से (लगभग १२००-१५०० मेगाहर्ट्ज) पहले भी जहाँ कॉल कनेक्टिविटी और नेट कनेक्टिविटी बाकी अन्य सर्विस प्रोवाइडर (लगभग ७००-८०० मेगाहर्ट्ज) के मुकाबले अधिक थी. वहां सबसे पहले ३ जी नेटवर्क की शुरुवात करने और इसको अत्यधिक भुनाने हेतु जहाँ एयरटेल ने न सिर्फ मौजूदा २ जी की स्पीड घटाई बल्कि चर्निंग (पुराने सर्विस प्रोवाइडर को छोड़कर नए सर्विस प्रोवाइडर को चुनना) जैसे हथकंडे भी अपनाये. एक अंग्रेजी कहावत " ए अर्ली बर्ड गेट्स द वार्म" की कहावत एयरटेल के लिए सही साबित हुयी और न सिर्फ इसके प्रमोशन बल्कि अलाइड सर्विसेज के बारे में भी बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया. एयरटेल द्वारा निर्धारित लीक पर चलते हुए भले ही बाकी टेलीकॉम कंपनियों को बाद में ३ जी लाइसेंस तो मिल गए मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
चूँकि भारत जैसे देश में जहाँ युवा जनसँख्या का ज्यादा रुझान मोबाइल इन्टरनेट की तरफ रहता है वहां अब ४ जी का आगाज होना निसंदेह कंजयूरिस्म (उपभोक्तावाद) को बढ़ावा देने के अतिरिक्त अन्य क्या हो सकता है. हालांकि वैश्वीकरण के कारण उपभोक्ता को नयी और बेहतर सुविधाएं देना न सिर्फ टेलीकॉम कंपनियों की मजबूरी बन गयी बल्कि इसी उपभोक्तावाद की आड़ में इन कंपनियों ने जम कर मुनाफाखोरी की. बेहतर सुविधाएं देने का वादा करने वाली कंपनियों ने न सिर्फ उपभोक्ताओं से मनमाफिक उगाही की बल्कि सुविधाओ के स्तर के साथ भी खिलवाड़ किया. ३ जी के डेटा प्लान न सिर्फ ओवर प्राइस्ड किये गए बल्कि २ जी की स्पीड और घटिया करके इनको प्रमोट किया गया. इसके बावजूद शुरूआती कुछ दिनों को छोड़ कर ३ जी के स्पीड के दावे भी फर्जी साबित हुए.
गौरतलब है की रिलायंस के जिओ ४ जी सर्विसेज के तीन महीने के फ्री नेट ट्रायल ने जहाँ न सिर्फ केवल बाकी अन्य टेलीकॉम ऑपरेटरो की रातों की नींदें उड़ा दी वही बाकी अन्य कंपनियों को यह सोचने को विवश कर दिया कि रिलायंस की इस रणनीति का जवाब किस तरह दिया जाये? एयरटेल ने जहा ख़राब नेटवर्किंग का हवाला देकर ओपन नेटवर्क को प्रमोट करना शुरू किया और अपनी सेवाओं को और बेहतर बनाने की कोशिश की ताकि चर्निंग जैसी समस्या से निपटा जा सके. हालाँकि इससे अंशकालिक फायदा भी उसे मिला तब पर भी इसे एक बेहतर विकल्प के रूप में नहीं देखा जा सकता है. वही रिलायंस के इस अभूतपूर्व प्रयोग से घबराई बाकी अन्य कंपनियों ने न सिर्फ सरकार और ट्राई से रिलायंस की ऐसी सेवाओ पर लगाम लगाने की सिफारिश की वही दूसरी तरफ अपने नेटवर्क को रिलायंस के साथ शेयर (साझा) करने में भी हीला-हवाली करने लगे. वर्षो से उपभोक्ताओं को शोषित करने वाली यह कंपनिया जहाँ अक्सर कॉल- ड्राप जैसी समस्याओं के लिए न कभी गंभीर थी न रहेंगी. बल्कि ट्राई के फेवर में फैसला सुनाते हुए जब हाइकोर्ट ने सीधे-सीधे टेलीकॉम कंपनियों को कॉल ड्राप के लिए न सिर्फ जिम्मेदार ठहराया बल्कि उन पर कॉल ड्राप के लिए हर्जाना भी लगाया. हालांकि हाइकोर्ट के फैसले से इतर जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने टेलीकॉम कंपनियों के ख़राब इंफ्रास्ट्रक्चर और स्पेक्ट्रम नीलामी के खर्च को ध्यान में रखते हुए टेलीकॉम कंपनियों को कॉल ड्राप के हर्जाने से जहाँ मुक्त कर दिया वहीँ एक बार पुनः इन कंपनियों को लूटखसूट करने का दुबारा मौका मिल गया.
वर्तमान परिदृश्य में भले ही रिलायंस का जिओ प्रयोग उपभोक्ताओं के लिए सौगात लेकर आया हो और दूरसंचार कंपनियों के लिए एक सबक हो परंतु एक गहन विश्लेषण के अनुसार यह एक यक्ष प्रश्न है की क्या वास्तव में यह योजनाएं दीर्घकालिक हो सकती है? और क्या वास्तव में दूरसंचार कंपनिया सस्ते दामो में बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध करा सकती है अथवा यह सिर्फ एक छलावा मात्र है? ठीक इसी प्रकार क्या उपभोक्ता से तय नियम शर्तो के साथ मनमाफिक पैसा वसूलने के बाद भी क्या कंपनिया बाध्य नहीं तयशुदा सुविधाएं मुहैय्या करने के लिए?
दूसरी तरफ अगर इस बात के दूसरे पहलू पर भी गौर करें तो हम पाते है कि संभवतः दूरसंचार कंपनियों के खराब इंफ्रास्ट्रक्चर और सुविधाओं का रोना और तयशुदा सुविधाओं के नाम पर अत्यधिक पैसा वसूलना महज कोरी गप्प है और ऐसा करना सिर्फ उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने के अलावा कुछ नहीं? अथवा अपने पिछले कार्यकलाप की तरह इस बार भी रिलायंस किसी अनैतिक तरीके से अपना बिज़नस मॉडल चमकाने की फिराक में है.
लेखक- देवशील गौरव

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