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क़िस्सागोई- अध्याय 1

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  आज बात वहां पर खतम हुई, जहां से कभी शुरू होती थी। उम्र का एक पड़ाव ऐसा भी था, मानो सब कुछ वहीं आकर ठहर सा जाता हो। कल तक उस पल में हम भविष्य को लेकर चिंतित थे। लगता था आज नहीं तो कल सब हासिल कर लेंगे, बस थोड़ा सब्र और। बस थोड़ा समय और, बस थोड़े पैसे और, थोड़ा साथ और। लगता था जैसे भले ही वो कल न आए मगर ये पल भी कुछ बुरा तो नहीं है। मुफ़लिसी का भी अपना ही मजा हुआ करता था,क्योंकि उस मुफलिसी में तुम जो साथ थे।चाहिए तो सब कुछ था, मगर तुम्हारे बगैर नहीं। सच पूछा जाए तो कितनी ही दफा इस बात को सिरे से खारिज कर दिया कि क्या होगा अगर तुम कल साथ नहीं हुए तो। डर तो लगता था, कहीं छुपा हुआ सीने में किसी कोने में। मगर तुम्हें यकीन दिलाने के लिए कितनी ही दफा मैंने झूठ बोला कि ऐसा कुछ भी नहीं होगा। आज भी लगता है कि कहीं न कहीं तुम मेरा दुख समझती थी, मेरे झूठ को हर बार की तरह पकड़ लेने की काबिलियत थी तुम में। मगर फिर भी तुम्हारा मेरे चेहरे और मेरी आँखों को एकटक देखना और कुछ न कहना मानो मेरी दलीलों को सिरे से नकार देता था। मेरे सिर नीचे करने या मुंह फेर लेने की आदत से तुम वाकिफ थी। शायद ये बात तुमसे नजरें मिल

भारतीय अर्थव्यवस्था की दुर्दशा के कारण

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अक्सर ही मेरे पिताजी एक चुटकुला सुनाते थे। एक बार एक व्यक्ति ने अपना रेस्टोरेंट खोला। रेस्टोरेंट के बाहर उसने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए मेनू का बोर्ड लगाया और उसके नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में यह लिख दिया कि हमारे रेस्टोरेंट में हर दिन एक नया व्यंजन खाने को मिलेगा और कोई भी डिश दोहराई नही जाएगी। एक दिन मेनू में उसने एक नई डिश लिखी, कद्दू और अंगूर की सब्जी। एक व्यक्ति उत्सुकतावश रेस्टोरेंट में गया और उसने वह डिश आर्डर कर दी। खाना परोसे जाने तक उसने मैनेजर से बात करने का सोचा। उसने मैनेजर से पूंछा की कद्दू और अंगूर की सब्जी के बारे में उसने पहले कभी नही सुना। मैनेजर ने कहा हमारा बावर्ची बहुत ही होनहार है वह हर दिन कोई न कोई नई डिश बनाता ही है। डिश के बारे में अधिक जानकारी के लिए उस व्यक्ति ने बावर्ची से मिलने की इच्छा व्यक्त की। बावर्ची ने उसे बताया कि इस डिश को बनाने के लिए कद्दू और अंगूर का सही अनुपात होना बहुत जरूरी है और हम इसी अनुपात को ध्यान में रखकर ही डिश बनाते है। व्यक्ति ने अधिक जानकारी के लिए बावर्ची से पूछ लिया कि ये अनुपात है क्या। बावर्ची ने कहा एक कद्दू पर एक अंगूर। ठीक

स्थायित्व का अर्थ

मेरे पिताजी अक्सर कहा करते थे, कि सैटेल तो केवल डस्ट होती है। उम्र के लगभग 33 बसंत देख चुकने के बाद आज भी जब कभी इस विषय में सोचता हूँ तो लगता है कि ये बात कितनी प्रासंगिक है। बचपन से ही हमें सपने दिखाए जाते है कि हम ये कर सकते है, वो कर सकते है और हमारे सामने संभावनाओं का एक विशाल समुद्र होता है। समय के साथ-साथ इसकी परिणीति अपनी प्रासंगिकता खोने लगती है। और धीरे-धीरे संभावनाओं की प्रकृति भी संकुचित होने लगती है। फिर भी बचपन के उसी स्वप्नलोक में से हम अपने लिए एक लक्ष्य का चुनाव करते है। अच्छा-बुरा, कैसा भी हो लक्ष्य सिर्फ लक्ष्य होता है। और हम मे से काफी लोग उस लक्ष्य को हासिल करने में अपना सब कुछ होम कर देते है। परंतु वो लोग जो अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त भी कर लेते है, भले ही दूसरों के लिए उदाहरण बन जाये परंतु अक्सर वास्तविकता के धरातल पर उनके सपनों का दुखद अंत हो जाता है। बचपन से जिस सपने को जिया, जिसके अतिरिक्त कुछ और सोचा ही नही। वो तो बिल्कुल वैसा नही है, जैसा सुना था या विश्वास था। आदमी की हालत उस कुत्ते के जैसी हो जाती है, जो हर गुजरने वाली गाड़ी के पीछे भागता तो है मगर गा

दण्ड और विधान

संसार ऐसे मूर्खो से भरा पड़ा है जो सामंजस्य को ही प्रत्येक समस्या का उचित समाधान समझते है। घर - परिवार में मतभेद है तो सामंजस्य बैठाओ, वैचारिक मतभेद है तो सामंजस्य बैठाओ, जीवन की प्रत्येक उथल - पुथल का एक ही समाधान लोगों को नजर आता है, सामंजस्य। पति पत्नी में नहीं बनती तो बच्चा हो जाने के बाद सब कुछ ठीक हो जाने से लेकर जीवन की प्रत्येक असफलता और दुर्बलता का मूल इसी सामंजस्य में मानो छिपा हो। परन्तु मै इस तर्क से सदैव असंतुष्ट रहा हूं। सामंजस्य आदमी की विफलता को दर्शाता है। एक व्यक्ति मेरे पास आया और सकुचाते हुए उसने बताया कि विवाहित होते हुए भी उसे किसी अन्य स्त्री से प्रेम हो गया है। उसने जानना चाहा कि क्या ये गलत है। मैंने उसे समझाते हुए कहा कि वह इस रिश्ते को किस नजर से देखता है यह महत्वपूर्ण हैं न कि ये कि समाज उसे किस नजर से देखता है। हमारा समाज ऐसे लोगो से भरा पड़ा है जो अपने मन की भड़ास निकालने को जोर शोर से नैतिकता की दुहाई देते है, परन्तु मन ही मन में वे यह आकांक्षा भी पाले होते है कि भला ऐसे मौके उनको क्यों नहीं मिले। आखिर कैसे वे इस दुर्लभ सुख से वंचित रह गए।ये समाज कभी भी द

THE WAY I SEE THE WORLD

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THE WAY I SEE THE WORLD A famous story goes as 4 blind people got the opportunity to understand as how an elephant feels like. Each one chose different parts of elephant. Someone took trunk and formed his opinion as elephant looks likes a huge pipe. Similarly, the rest of people had their own opinion about elephant. The clash started amongst them when they share their opinion with others and none of them agreed to the others. Meanwhile, a wise man passed through. He saw them fighting and told them that it is not the entire elephant they noticed/observed rather different body part of it and that is how they formed their opinion. Though the story is old enough and so do with learning. However, people have a tendency to forget the learning and apply it in practical life. It is not the matter that the learning has forbidden but confined to mere a story only. I personally feel that there are two genres of people in the world, one who has developed expertise in their field and another on