फिल्मों की राजनीति


किसी ने क्या खूब कहा है कि फिल्मे जिंदगी का अक्स होती है और जिंदगी फिल्मों का अक्स. मतलब जो आप परदे पर देखते है वो कहीं न कहीं हकीकत का ही इक अंश होता है. सुनने में जितना अच्छा लगता है देखने में भी उतना ही अच्छा लगता है मगर जब बात सियासत की आ जाती है तो जो अच्छा लगता भी है उसमें खोट नजर आने लगता है. ठीक ऐसा ही कुछ वाकया देशभक्ति से भी जुड़ा है और इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बात में मुझसे इत्तेफाक रखने वाले भी बहुत कम ही होंगे. खैर सबा अफगानी का एक शेर नज़र करता हूँ-
                                            
                                              "वो पुर्सिश-ऐ-ग़म को आये हैं कुछ कह न सकूँ चुप रह न सकूँ
                                                    ख़ामोश रहूँ तो मुश्किल है कह दूँ तो शिकायत होती है" 

उन दिनों दूरदर्शन सिर्फ कुछ ख़ास लोगों तक ही सीमित था और अगर धार्मिक या पौराणिक सिरियलों को छोड़ दिया जाये तो सबसे ज्यादा जिसने लोगों को प्रभावित किया जो संभवतः आज भी कहीं-कहीं देखने को मिलती है वो थी देशभक्ति की फिल्में. जितना रोमांच और देशभक्ति इन फिल्मों को देखने से होती थी वो बदस्तूर भारत और पकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैचों के बीच आज भी देखी जा सकती है. लोगों की नफरत का नजरिया आज भी जस का तस ही है, भले ही भारतीय टीम बाकी अन्य किसी देश से हार जाए, वर्ल्ड कप न जीतें, ओलंपिक में कांस्य से संतोष कर ले मगर पकिस्तान से नहीं हारनी चाहिए. आज भी हमारी मानसिकता का पैमाना शायद ही कभी बदला हो. ये चिढ़न और बदले की भावना अब परदे से निकल कर लोगों की जिंदगी में कब दखल देने लगी पता ही नहीं चला. और आज सुबह जब फेसबुक खोला तो दैनिक अखबार जागरण द्वारा पोस्ट किये गए और एक मित्र द्वारा शेयर किये गए पोस्ट में पाकिस्तानी कलाकारों की भारतीय फिल्मों और सिरियलो के बहिष्कार के बारे में राय मांगी गयी थी. लाख कोशिशों के बाद खुद को रोक नहीं पाया और अपनी राय जाहिर तो कर दी पर लगा शायद इतने मात्र से ही इतिश्री न हो क्योंकि कुछ लोग तो आज भी इसी गफलत में जीते है कि देश भक्ति के नाम पर कुछ भी परोसा जायेगा वो खुद को सच्चा देशभक्त साबित करने के लिए किसी भी स्तर पर उतर जायेंगे. भले ही देशभक्ति के नाम पर लाइक बटोरने की हो या दूसरे देश को गरियाने की. क्या देश भक्ति का मतलब सिर्फ दिखावा मात्र है?
आम अवधारणा से इतर अगर सिर्फ व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष को खुश रखने में विश्वास रखते है तो निसंदेह आपको पसंद करने वाले लोगों का एक हुजूम मिलेगा जो अनायास ही आपको देश भक्तो में शुमार करने लगेगा भले ही इसके पीछे आपकी मंशा कुछ भी हो. तारीक फ़तेह, तस्लीमा नसरीन, एम्. ऍफ़ हुसैन हो या फिर सलमान रश्दी जिस घडी इन्होंने धर्म या देश विशेष के बारे में कुछ लिखा, बोला या कहा वो तबका उठ खड़ा हुआ और विरोध शुरू हो गया. ये लोग संपन्न लोग है उस पर अकीदतमंद और पढेलिखे भी. नतीजतन जब भी ये कुछ कहते है कुछ लोगों को बुरा लगता है जबकि दूसरों को एक मौका मिल जाता है अगले को नीचा दिखाने का. मानो खुद की कोई सोच या मानसिकता कुछ है ही नहीं. आप हिन्दू को गरियाओ तो मुसलमान खुश होते है, मुसलमान को गरियाओ तो हिन्दू. अपनी फिल्म ग़दर एक प्रेम कथा में निर्देशक अनिल शर्मा ने समाज में एक मैसेज देने की कोशिश की जिसमे नायक, खलनायक के कहने पर बड़ी आसानी से पाकिस्तान जिंदाबाद तो बोल देता है परंतु हिंदुस्तान मुर्दाबाद कहने के फरमान पर बिफर पड़ता है. निर्देशक ने गाहे बेगाहे ये पैगाम देने की बहुतायत कोशिश की, कि किसी देश विशेष कि बड़ाई करने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन खुद के मुल्क की तौहीन भी नाकाबिले बर्दाश्त है. और वास्तविकता में देखा जाये तो यह सही भी है. मगर अगर हम हालिया घटनाओ को देखे तो इसमें स्वार्थ कि राजनीती ज्यादा और देशप्रेम कम नजर आता है. मसलन ज़िन्दगी लाइव जैसे चैनलो का पाकिस्तानी धारावाहिको के प्रसारण पर रोक लगाना अथवा पाकिस्तानी कलाकारों के हिंदी पिक्चरों पर बैन लगा कर अपनी देशभक्ति का दिखावा करना महज एक पब्लिसिटी स्टंट के सिवा कुछ भी नहीं है.
गौरतलब है कि आतंकी घटनाएं पहले भी हुई है जवानों कि शहादत पहले भी हुई है मगर आज के पहले कभी इन्हें देशभक्ति नहीं सूझी. पाक कलाकारों को लाने वाले और उनको उन्हें सर आँखों पर बैठाने वाले ये चंद फिरकापरस्त लोग सिर्फ लोगों कि भावनाओ से खेलना जानते है और कुछ नहीं. आज भारतीय काबिलियत का डंका पीटने वाले राज्यसभा सांसद सुभाष चंद्रा ये क्यों भूल जाते है कि यही भारतीय टैलेंट उन्हें उस समय क्यों नज़र नहीं आया जब उन्होंने पाकिस्तानी सिरियल्स के राइट्स खरीदे थे और अब जबकि संभवतः मात्र 16 करोड़ के राइट्स का सवाल है तो देशभक्ति जाग उठी. ठीक इसी तरह सिनेमा घरों के मालिक आज जो दिखावा कर रहे है उसके पीछे सीधा सीधा कारण उन कलाकारों द्वारा अभिनीत फिल्मों के खराब कलेक्शन को लेकर है जिसके पेंच में ऐ- दिल है मुश्किल और रईस जैसी पिक्चरें फंस गयी है. दूसरी तरफ ये तर्क भी लाजमी है की बॉलीवुड पाक कलाकारों के लिए एक बाज़ार से बढ़कर कुछ नहीं है. वो आते है, पैसा कमाते है (कई बार तो अनुचित तरीके से भी, जैसे अदनान सामी फेमा के अन्तर्गत फंसे थे) और चले जाते है. ऐसे में एक जहनी सवाल उठना लाजमी है कि क्या सिर्फ बैन लगाने मात्र से देशभक्ति साबित हो जाएगी? और क्या पाक कलाकारों के अलावा उनको बाकायदा लाने वाले निर्माता निर्देशक दोषी नहीं है? दूसरी तरफ जबकि सरकार ने स्वयं उन कलाकारों को वीसा दिया है और वह स्वयं भी उन कलाकारों का वीसा रद्द करने के सुझाव को एक सिरे से ख़ारिज कर चुकी है ऐसे में देशभक्ति के नाम पर राजनीती करना आखिर कहाँ तक जायज है? राजनीति के नाम पर व्यापार करने वाले क्या कल फिर उन्ही लोगों से गलबहियां नहीं करेंगे जिनसे आज वो किनारा करने का दावा कर रहे है? और इन सबके बीच फंसी रियाया इन पब्लिसिटी स्टंट्स को देशभक्ति से जोड़ कर देखना कब छोड़ेगी?
डिस्क्लेमर- इस लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के स्वयं के है.

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