ऊँची जात बनाम पिछड़ी जात


आज भले ही हम अपने विशाल जीवन दर्शन और ज्ञान कि बात करें तो अनचाहे ही समाज के एक ख़ास हिस्से से ख़ुद को जोड़े रखने का ख्याल आते ही हमारे मन और मस्तिष्क में एक अजब ही द्वंद शुरू हो जाता है. दुनिया को दिखाने के लिए हम भले ही जात-पांत को एक ढकोसला मान कर अपनी दरियादिली और वसुधैव कुटुम्बकम् का परचम लहराते रहे, परंतु मन ही मन हम शायद ही इस विचार से निजात पा सके कि जात-पाँत एक ढकोसला मात्र है. सच पूछा जाएँ समाज के दोनों तबकों में यह एक झुँझलाहट और खीज साफ़ तौर पर देखी जा सकती है. एक तरफ़ जहाँ पिछड़ी जात अपने प्रति सदियों तलक किए गए उपेक्छा, अपमान और अनदेखी के वर्षो तक सृजित कुंठा के परिराम स्वरूप ऊँची जात को नफरत कि निगाह से देखती है वही दूसरी तरफ़ ऊँची जात वाले बाबा भीम राओ अंबेडकर द्वारा निर्धारित आरक्षण द्वारा ख़ुद को शोषित मेह्सूस कर रहे है और गाहे- बेगहे आरक्षण समाप्त करने कि वकालत करते नजर आ रहे है. गौरतलब बात ये है कि भले ही रज्नितिक पार्टियों द्वारा पिछड़ी जातियों को लुभाने के लिए चला गया यह तुरुप का एक्का पिछड़ी जातियों के लिए एक बैसाखी से बढ़ कर कुछ भी नही है. आजादी कि इतने समय बीतने के बाद भी समाज के इस विशेष तबके ने ना तो स्व्यं के विकास के तरफ़ ध्यान दिया ना ही अपने को पिछड़ेपन कि मानसिकता से स्व्यं को आज़ाद कर सके. परन्तु इसके विपरीत समाज की ही अन्य जातियों ने स्व्यं को पिछड़ेपन का तमगा देने के लिए अभियान तक छेड़ दिया, जाट आरक्छन के लिए किया गया आंदोलन इनमें सबसे प्रमुख है.  वही दूसरी तरफ व्यर्थ के आडम्बर और सिर्फ ऊंची जाती के वंशानुगत होने मात्र से अगड़ी जातियों ने स्वयं के प्रति एक मिथ्या भ्रम पाल लिया की जाती विशेष के तौर पर ही सही कुलगत विशेषताएं उनमे वंशानुगत है और वे ही उसके वास्तविक उत्तराधिकारी है. हालाँकि जब हम मनुस्मृति का उदाहरण देखते है तो पाते है की व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर जातिगत चयन की प्रक्रिया अपनाई गयी और जाती विशेष के लिए कोई विशेष अधिकार निर्धारित नहीं किये गए जैसे शुद्र भी ज्ञान अर्जित कर सकते है और शिक्षण जैसे प्रतिष्ठित कार्य में अपना योगदान दे सकते है वही दूसरी तरफ सिर्फ जाती विशेष में जन्म लेने वाला भी अपनी छमता और योगयता के आधार पर अपने जीवन निर्वहन का व्यवसाय चुन सकता है. ठीक इसी तरह के प्रशासनिक और निति निर्धारक तथ्यों का वर्णन विख्यात लेखक अमीश त्रिपाठी अपनी पुस्तक "मेलुहा के मृत्यंजय" में किया है जिसमें उन्होंने पालना प्रथा का वर्णन किया है, इसके अनुसार विद्या ग्रहण करने की आयु हो जाने के बाद वर्षो के ज्ञानार्जन के लिए छोटे अबोध बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता था जहाँ प्रारम्भ में सभी बालको को समान शिक्षा दी जाती थी तदुपरांत उनकी रूचि के अनुसार के उद्योग अर्थात कार्य के विषय में उन्हें विभाजित करके यथायोग्य शिक्षा दी जाती थी. पारिवारिकजनों तथा सम्बन्धियों का ब्रह्मचर्य आश्रम अर्थात विद्याभ्यास के इस समय तक मिलना जुलना सर्वथा वर्जित था. शिक्षा पूर्ण होने के उपरांत विद्यार्थियों के मातापिता को उनके व्यवसाय के अनुसार ही योग्य बालक को सौंपा जाता था. जैसे ब्राह्मण को वेदपनिषद तथा छत्रिय को शस्त्र विद्या में निपुण बालक दिया जाता था. यह व्यवस्था इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इस दौरान न ही पुत्र और न ही उसके मातापिता को उसके जैविक पुत्र था मातापिता होने का पता अथवा ज्ञान होता था. दूसरी बात यह की कुलगत विशेषाधिकार वंशानुगत होने के अवसर बहुत ही कम होते और सबको बराबरी का अधिकार मिलता.   
इसी प्रकार के एक अन्य प्रसंग महाभारत काल से जुड़ा हुआ है जिसमें पंचाली मृत्यूशैय्या पर पड़े भीष्म पितामह से प्रश्न करती है की न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म और राजनीति का ज्ञान होते हुए भी वह चुप क्यूँ रहे? आख़िरकार क्यूँ दुर्योधन जैसे कुपुत्र और धर्मांध व्यक्ति के लिए धृतराष्ट्र का प्रेम राष्ट्र्धर्म से बढ़कर हो गया? जिसपर भीष्म पितामह ने कहा, "यह सारा दोष हमारे प्रशासन और प्रबंधन का है. हमने ही शिक्षा पद्वति को भ्रस्ट कर दिया, व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ही हमने व्यवस्था को चौपट कर दिया. और प्राय; ही हमारे आदर्श और पूर्वकालिक वचन ही हमारे पतन का कारण बनते है." गौरतलब बात ये है की सामाजिक व्यवस्था की नीव जो कल तक शिक्षा व्यवस्था पर टिकी थी उसी भ्रस्ट हित की भेंट चढ़ गयी. और इसी का ख़ामियाजा ना केवल कर्ण जैसे शूरवीर और पराकर्मी को ऊची जाती का होते हुए भी तिरस्कृत जीवन व्यतीत करना पड़ा और आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी कभी भी ना ख़तम होने वाला नासूर दे दिया. इसी प्रकार के एक अन्य प्रसंग महाभारत काल से जुड़ा हुआ है जिसमें पंचाली मृत्यूशैय्या पर पड़े भीष्म पितामह से प्रश्न करती है की न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म और राजनीति का ज्ञान होते हुए भी वह चुप क्यूँ रहे? आख़िरकार क्यूँ दुर्योधन जैसे कुपुत्र और धर्मांध व्यक्ति के लिए धृतराष्ट्र का प्रेम राष्ट्र्धर्म से बढ़कर हो गया? जिसपर भीष्म पितामह ने कहा, "यह सारा दोष हमारे प्रशासन और प्रबंधन का है. हमने ही शिक्षा पद्वति को भ्रस्ट कर दिया, व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ही हमने व्यवस्था को चौपट कर दिया. और प्राय; ही हमारे आदर्श और पूर्वकालिक वचन ही हमारे पतन का कारण बनते है." गौरतलब बात ये है की सामाजिक व्यवस्था की नीव जो कल तक शिक्षा व्यवस्था पर टिकी थी उसी भ्रस्ट हित की भेंट चढ़ गयी. और इसी का ख़ामियाजा ना केवल कर्ण जैसे शूरवीर और पराकर्मी को ऊची जाती का होते हुए भी तिरस्कृत जीवन व्यतीत करना पड़ा और आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी कभी भी ना ख़तम होने वाला नासूर दे दिया.
गाहे-बेगाहे राजनीतिक पार्टियों ने सिर्फ़ अपने स्वार्थ वश् शायद ही कभी इनकी तरफ ध्यान दिया, बल्कि कुछ राजनयिक दलो ने इनका भी वर्गीकरण कर दिया मसलन यादव, कुर्मी वग़ैरह और अपनी जाती के प्रति अंध निष्ठा और अल्प ज्ञान, अशिक्षा जैसी कुरीतियों की देन इन्हें वर्षों के पिछड़ेपन और समाज की मुख्य धारा से और दूर कर दिया. सर्वाधिक ध्यान देने वाली बात यह भी है की जिन नेताओ ने आरक्षण को मुद्दा बनाकर पिछड़ी जाती वालो के घावो पर मरहम लगाने के बजाय सिर्फ़ अपने वोट बैंक सुनिश्चित करने का कार्य किया. हरिजन, यादव, कुर्मी, ब्राह्मण जैसे जाती सूचक शब्दो का प्रयोग व्यक्तिगत भढ़ास निकालने, जातिगत और सामाजिक वैमनस्य बढ़ाने के लिए होने लगा. सारा दोष अन्य जातियों पर मढ़ दिया गया. बारीकी से अद्ध्यन करने पर हम पाते है की कमोबेश यही सारी परिस्थितियाँ मुस्लिम समुदाय से भी जुड़ी हुई प्रतीत होती है और वास्तविकता में कहीं ना कहीं उनमें भी वैचारिक समझ की कमी है और यह बात राजनीतिक घटक अच्छे से समझते है की अगर इस तबके का विकास हो गया तो निसंदेह उनकी राजनीतिक महत्वकचछाओं का अंत सुनिश्चित है. समाज की ऐसी जटिल समस्याओं और विकास के प्रलोभनो में फंसकर धर्म परिवर्तन करने वालो की दुर्दशा तो धोबी के कुत्ते के समान हो गयी है जो ना तो अपने वास्तविक जाती में गिने जाते है और ना ही नयी जाती में उनकी कोई ख़ास पूंछ ही है. दो पाटो के बीच फँसे हुए वेत्रिशंकु का सा जीवन जी रहे है, जहाँ एक तरफ तो ईसाई मिशनरियों से प्रभावित होकर वे धर्म परिवर्तन तो कर लेते है परंतु शादी, विवाह, मृत्यु यहाँ तक की अपनी दैनिक दिनचर्या को अपने नये धर्म से नही जोड़ पाते, अपने बच्चों को नये धर्म का पाठ तो पढ़ते है परंतु नामकरण जैसे गंभीर मुद्दों पर अपने पुराने धर्म का ही अनुसरण करते है. अल्पसंख्यक होने का रोना रोने वाले ये भूल जाते है की सिख, पारसी, यहूदी, ईरानी जैसी जातियाँ कैसे अल्पसंख्यक होने के बावजूद तरक्की के नित नये सोपान गढ़ रही है.

ठीक उसी प्रकार वर्षों से संचित महिमामंडन को ही अपनी जागीर समझने वाली सवर्ण जातियाँ भी अपने व्यक्तिगत और कुलगत श्रेष्टा हो ही अपनी वंशानुगत जागीर समझ कर अपना पतन स्वयं सुनिश्चित कर रही है. जैसे पहलवान का बेटा पहलवान, बुद्धिमान का बेटा बुद्धिमान हो ये वंशानुगत नही हो सकता ठीक उसी तरह सिर्फ़ कुल का ठप्पा आपकी जातिगत विशेषतायें सुनिश्चित नही कर सकता. भारतीय सेना, प्रशासनिक सेवायें तथा ऐसी कई अन्य सेवाओं का मूल्यांकन सिर्फ़ जातिगत अथवा कुलगत योग्यताओं के आधार पर नही किया जा सकता. समाज के हर एक तबके की अपनी एक ख़ास विशेषता है और जबकि हम इक्कीसवी ष्ताब्दी में जी रहे है जातिगत आधारित कार्य व्यवस्था नगण्य हो गयी है. ज़रूरत इस बात को समझने की है की हमारी वास्तविक लड़ाई सामाजिक कुरीतियों, आर्थिक अनिश्चीयता तथा ग़रीबी जैसे मुख्य अभिशापो के खिलाफ होनी चाहिए ना की जाती विशेष के.          

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