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Showing posts from January 17, 2016

MAIN HOON KI NAHI......................

She left me and left me for good, unconsciously and fanatically I kept trying finding the reasons. What annoyed her and what was my mistake; I couldn’t fathom. My umpteenth attempt to call her, meet her and even see her seems vague. She decided to leave me. I still remember the day when she called me in private and asked me to return her snap. The last possession of our deprived and unfortunate love was almost gone. I wanted to talk to her a lot, to apologize of what mistake I had made moreover to hold her hand and never let her go. But the only thing I could do is crying. She was stern and left behind me veiling. With every passing day my frustration dwindled and so do my hatred with her. No longer had I stopped going school until she left coming to school. I hearsay that she mingled with a new guy, people also say that they had been together for years; the rift of their relation is filled and she chose him over me. I had grudges with her; I truly hated her like anyth

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो........

महिला दिवस जा चुका है और बाकि अन्य दिनों की तरह महिलाओं और महिलाओं से जुड़े मुद्दों को एक बार फिर से हाशिये पे धकेल दिया गया है. अपनी इस पोस्ट के जरिये मैं वर्ण, जात, वर्ग या समूह विशेष पर नेताओं की तरह न तो कोई तंज कस्ना चाहता हूँ न ही मेरा उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुचाने का है फिर भी अगर किसी पाठक गण को मेरी पोस्ट से कोई आपत्ति हो तो मैं इसके लिए दिल से छमा मांगना चाहूँगा. महिला दिवस या नारी सशक्तिकरण जैसे मुद्दों का मैं विरोधी नहीं हूँ परन्तु इनकी प्रासंगिकता मेरी समझ के सर्वथा पर है. मैं अक्सर लोगों से पूछता हूँ की क्या वास्तव में नारीसशक्तीकरण एक विशेष मुद्दा है. मेरी समझ में तो ठीक इसके विपरीत पुरुष सशक्तिकरण की आवश्यकता है. निसंदेह आप मेरी बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते हो मगर हम २१ वीं शादी में जी रहे है जहाँ औरतो और मर्दों को लगभग सामान अधिकार प्राप्त है, बस, ट्रैन की आरक्षित सीट से लेकर ऑफिस के लचीले(फ्लेक्सिबल) टाइम की बात करें को ये फर्क साफ़ देखा जा सकता है. औरतों को ये आजादी है की वो किसी भी सीट पर बैठ सकती है, ऑफिस घडी के कांटे मिलते ही छोड़ सकती है और त

इतिहास के झरोखे से -

मश्हूर आइरिश लेखक और नोबेल पुरस्कार विजेता जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एक बार कहा था "हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते" भले ही ये बात उन्होने मजाक में कहीं हो या उसका उद्देश्य कुछ और ही रहा हो लेकिन उनकी इस बात की प्रासंगिकता आज भी व्यावहारिक और तर्कसंगत प्रतीत होती है. मेरा सद्दैव से ये मानना रहा है कि कुछ लोग महान होते है, जबकि कुछ पर महानता थोपी जाती है. शायद ऐसा ही कुछ हमारे तथाकथित आदर्शो के साथ भी है. भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष और उच्च न्यायालय पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने महात्मा गाँधीके विषय में कुछ ऐसी ही टिप्पणी करके मानो स्वयम के लिए एक नया विवाद खड़ा कर दिया है. गौर करने वाली बात ये है कि काटजू साहब रसूख वाले आदमी आदमी है और हमारे देश में रसूख वाले लोगों को ही अभिव्यक्ति कि आजादी है वरना ठाकरे साहब की मृत्यु पर उपजे विवाद ने किस तरह शाहीन धधा और रेनु श्रीनिवासन को अपनी जकड़ में ले लिया था ये तो जग जाहिर है. ठीक ऐसा ही विवाद वरिष्ठ सपा नेता आज़म खाँ पर की गयी टिप्पणी से उपजा तो राम चरित मानस कि चौपाई "समरथ को नहीं दोष गुसाईं" चरितार्थ

सुपात्र की पहचान

आप दो तरह के लोगो को कभी संतुस्ट नहीं कर सकते पहले वो जो पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो और दूसरा वो जो अपने को सम्पूर्ण मानते हो. यही बात शास्त्रो में ज्ञान, सलाह और सहायता के विषय में भी कही गयी है. पात्र का चयन ही इस सारी प्रक्रिया का मूल है, जब तक आप सुपात्र और कुपात्र में अंतर नहीं कर पाएंगे तो आप के द्वारा दी गयी मदद, सहायता अथवा ज्ञान व्यर्थ ही जाएगा. आधुनिक हथियार रिवाल्वर के निर्माता "कोल्ट" ने एक बार अपने व्याख्यान में कहा था कि रिवाल्वर कि खोज करना उनके लि ए एक अभिशाप के सामान है उन्होंने अनजाने ही मानवता को एक ऐसा हथियार दे दिया है जो सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरा है. ठीक इसी तरह कि गल्प का वर्णन विष्णु शर्मा ने अपनी पुस्तक "पंचतंत्र" में किया है जिसमे गुरुकुल से लौट रहे कुछ शिष्य अपने ज्ञान को परखने और उसकी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए एक मरे हुए शेर को जीवित कर देते है. और बाद में वही शेर उनका भक्षण कर लेता है. ठीक यही बात विद्यार्जन से भी जुडी हुयी है सीखने वाले को बिना किसी पूर्वाग्रह और सर्वविदित कि परिधि से बाहर निकल कर सोचना चाहिए. जिस प्रकार

वैश्विक स्तर पर भारत

आज जबकि भारत विश्व की एक बड़ी लोकतान्त्रिक तथा आर्थिक रूप से सुदृण राष्ट्र बन कर उभरने के करीब है और पूर्ववर्ती तथा तात्कालिक राजनयिकों तथा प्रधानमंत्रियों द्वारा लिए गए दूरदर्शी कूटनीतिक निर्णयों के दम पर आज जबकि भारत एक मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में अपनी छाप विश्व पर काबिज करने के लिए पूरा दमखम लगाये हुए है वही दूसरी तरफ भारत के पडोसी मुल्क उसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता तथा आर्थिक संवृद्धि को अपने बरसो से कायम दबदबे को एक खतरे के रूप में देख रहे है. बिना किसी लाग-लपेट के अथवा पूर्वाग्रह के मै अपनी बात को और स्पष्ट करने के विगत कुछ वर्षो में हुए आर्थिक तथा सुधारवादी घटनाचक्र को आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूंगा. विगत कुछ वर्षो में (यू. पी.ऐ ) सरकार के कार्यकाल से ही अमेरिका को भारत की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था फूटी आँख नहीं सुहा रही है. और पिछले कई वर्षो से अमेरिका और यू. के . जैसे देश इस बात का रोना रो रहे है की भारतीय कामगार उनके हिस्से का काम छीन रहे है. गौरतलब बात ये है की अमरीकी तथा अन्य विदेशी कम्पनियो को भारतीय कामगार काफी काम लागत पर अपनी सेवाएं दे रहे है. भारत में आउटस

साहित्यकारों का साहित्य प्रेम

अंग्रेजी की कहावत " एव्री पब्लिसिटी इस गुड पब्लिसिटी" अर्थात हर प्रकार का प्रचार एक अच्छा प्रचार होता है वर्तमान परिदृश्य में साहित्यकारों का साहित्य अकादमी सम्मान लौटा देने के का निर्णय निसंदेह साहित्य के राजनीतिकरण का ही एक स्वरुप है. गौर करने वाली बात ये है की आज तक हर सम- सामायिक मुद्दे पर चुप्पी साढ़े रहने वाले इन स्यूडो इंटेल्लेक्टुअल (छद्म बुद्धिमानो) की अचानक ही अंतकरण की जाग्रति का परिराम न होकर सिर्फ प्रचार बटोरने तक ही सीमित है. जिन ब ुद्धिजीवियों को दादरी कांड एक भयावह स्वप्न के सामान प्रतीत हो रहा है ये वो ही लोग है जिन्होंने गोधरा कांड, ईसाई मिशनरीज के तोड़-फोड़, गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी और मुज्जफर पुर के कांड पर चुप्पी साध रखी थी. क्यों नहीं इन घटनाओ के प्रतिरोध स्वरुप इन लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराया. क्या सिर्फ पब्लिसिटी के लिए दादरी कांड का हवाला दे कर साहित्य सम्मान लौटना एक पब्लिसिटी स्टंट नहीं तो और क्या है? कुछ साहित्यकार इसे मुरगन जैसे लेखको की मृत्यु से उपजी सरकारी अनदेखी से भी जोड़ कर देख रहे है , जबकि वास्तविकता इसके ठीक इतर है, अमे

गेंहूँ बनाम गुलाब

स्वतंत्रता प्रप्ति के संघर्ष के दौरान श्री रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित "गेंहूँ और गुलाब" का वर्णन अनायास ही अंतर्मन के चेत्नाओ को झंझावत कर गया. तात्कालिक कुलीन और बौद्धिक छमता और उस समय की वैचारिक और आर्थिक दुर्दशा का चित्रण जिस भली प्रकार से उन्होंने किया था वह शायद आज भी उतनी ही प्रासंगिक प्रतीत होती है जितना की स्वत्रता सग्राम के दौरान थी. बेनीपुरी जी अपनी रचना में लिखते है की गेंहू जो की कृषक वर्ग और गुलाब जो की वैचारिक और बुद्धिजीवियों का वर्ग था, दो नों ही अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे थे. कृषक वर्ग जहाँ भिन्न- भिन्न प्रकार के उत्पीड़न और सरकारी अपेक्छा का शिकार था वही दूसरी तरफ लेखको और बुद्धिजीवियों का वर्ग भी अनपेक्छित सा महसूस कर रहा था. तात्कालिक व्यवस्था ने स्वयं को केवल वक्तिगत स्तर पर खाने और जीने तक ही सीमित कर दिया था वही दूसरी तरफ बुद्धिजीवियों ने भी अपनी जीविका चलाने और ठौर-थंगर तलाशने में ही व्यस्त थे. हालाँकि बाद में उन्होंने एक बार पुनः साहित्य सृजन और आर्थिक संवृद्धि की आशा प्रकट की. विगत समय और वर्तमान समय के परिदृश्य में फर्क सिर्फ व

(सआदत हसन) मंटो और मैं

मंटो के साथ अपनी तुलना करना रेशमी लिबास में टाट का पैबंद लगाने जैसी बात होगी, लेकिन अब इस बात से कैसे मुकर जाऊं की मंटो की साफगोई और सादगी का सुरूर इस कदर जेहनोजिगर पर इस कदर काबिज है की मैं उनमे अपना ही अक्स देखता हूँ. फिर भी मेरा पाठको से नम्र निवेदन है की अगर किसी को मेरी रचना से कोई शिकायत हो तो मैं तहेदिल से माफ़ी चाहूंगा. बहरहाल मेरी मंटो से तुलना सिर्फ उनके विचारों और मेरे विचारो की समानता से है, अपने एक लेख "मैं क्या लिखता हूँ?" में वो अपनी जिंद गी के बारे में बहुत साफगोई और संजीदगी से लिखते है की मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे कुछ कहना होता है और मैं लिकता इसलिए हूँ ताकि कुछ कमा सकूँ ताकि कुछ कहने के काबिल हो सकूँ. वही दूसरी तरफ अपने दुसरे लेख " मैं अफ़साना क्यों लिखता हूँ?" में वो इस बात से भी गुरेज नहीं करते की खाली जेब से कोई कहानी या रचना नहीं लिखी जाती. सच भी है लोग चीजों के मायने बाजार में उसका दाम लगाकर करते है और शायद ही लोग इस बात से कोई इत्तेफाक रखते हो की आप क्या करते है बल्कि कितना कमाते है या आपके काम का दाम कितना है. खैर मंटो इस ब

Book Preview

Dear Friends, Here i am sharing you an interesting part of my book for your review. Please let me know your views for the same. Next month I have my birthday, barring few relatives and family members and off- course some of our office college will be sooner notified about it and the celebration of one more year of commitment and satisfaction will be rewarded in terms of cake and snacks. And there will be one more year and perhaps couple of more years of same monotonous melodrama. I could clearly imagine the cake and the growing numbers of gone by years mentioned on candles over the cake. 30 is considered an age when all of your friends and colleges are almost settled in life, earning great money, visiting foreign countries, owning new houses and wagons. And most importantly they are married and some of them are blessed with kids where as few still find it vague and ridiculous to plan so early. Parents no more fight with their son and daughter of what they are up

क्योंकि वो कहते है.........

" हम होंगे कामयाब , हम होंगे कामयाब एक दिन " बचपन के दिनों में अभिप्रेरित करने वाले इस गीत के बोल बीते दिनों के साथ ही धुंधलाते चले गए . आगे बढ़ने के लिए जीवन के सबसे बड़े अनुत्तरित प्रश्न का जवाब खोजना शायद अभी भी जारी है . इससे क्या होगा ? आखिर क्या भविष्य है तुम्हारे इन बेकार के प्रयोजनों का ? ऐसे ही न जाने कितने ही प्रश्न आज भी पूछे जाते है और आज भी उनकी प्रासंगिकता उतनी ही है , फिर भी जवाब नदारत है . अक्सर ही मैं खुद भी इस सवाल के जवाब को लेकर पसोपेश में पड़ जाता हूँ लेकिन दुसरे ही छड फिर उसी कीमियागिरी में लग जाता हूँ . शायद अन्तर्निहित एक आवाज मुझे ऐसा करने को प्रेरित करती है . क्योंकि वो कहते है की मैं एक दिन कामयाब हूँगा और चूँकि उन्हें मुझसे ज्यादा दुनियादारी का पता है तो निसंदेह वो गलत नहीं हो सकते . विगत सालो में उन्होंने न जाने कितनी बार ये बात कही और न जाने कितनी बार मदद का आश्वासन भी दिया . हालांकि गु