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निंदक नियरे राखिये

जिस दिन सुना उसे कहते हुए कि मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ जो देश के काम आये, समाज के काम आए, मैं मन ही मन मुस्काया अपनी दाढ़ी के कुछ सफेद हो चुके लहराते हुए सफेद बालों का ख़याल करके सोचा, लगता है मियां अभी तक ख्वाबो की ही दुनिया में जी रहे हो शायद l वरना कौन भला इन पचड़ों में पड़ता है, उस पर से जब खुद न कुछ बन सके तो दुनिया को वनाने लगे। अब आप भले ही इसे मेरी तुक्ष्य मानसिकता कहे या फिर मेरी नकारात्मक सोच, परंतु वास्तविकता तो यही है। इसी वक्त के मुफीद ग़ालिब का एक शेर याद आ गया, "चली न जब कोई तदबीर अपनी ए ग़ालिब, तो हम भी कह उठे यारों यहीं मुकद्दर था"। अब जबकि आप मेरी बातों को मेरी मानसिकता और मेरी उस शख़्स से जलन के तौर पर देख रहे है तो यहाँ मैं आपके कुछ पूर्वाग्रह को दूर करना चाहूंगा, अव्वल तो यह कि दुनिया में कोई भी सम्पूर्ण नही है, समर्थवान भी नही है, मसलन कुछ न होने पर यह सोच कर खुद को और दूसरों को दिलासा देना की कुछ होने पर या समर्थवान बन जाने पर अमुक-अमुक काम करूंगा, और फिर कुछ बन जाने के बाद अपनी ही कही बातों को मूर्खता की संज्ञा देकर मजाक उड़ाना। आपको ये भी भली प्रकार य

भारत-पाक बंटवारे का किस्सा एक साहित्यिक दृष्टिकोण

प्रस्तुत उदाहरण ओशो के एक प्रवचन से उद्धत है हालांकि इसका उद्देश्य सर्वथा भिन्न है और उदाहरण का प्रयोग सिर्फ विषय वस्तु की श्रेष्ठता को बनाये रखना है, शेष विचार लेखक के स्वयं के है और मौलिक है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बटवारे के दौरान एक पागलखाना भी बटवारे की जद में आ गया। अब चूंकि पागलखाना भारत और पाकिस्तान की सीमा पर था इसलिए अब उसका बंटवारा होना भी तय था, यही बात अगर किसी इबादतगाह के लिए, मकान के लिए या किसी संपत्ति के लिए होती तो लोग बाग या तो उसे गिरा देते या फिर लूट लेतेI बहरहाल, कुछ बुद्धिमानो ने पागलखाने का भी बंटवारा करने का फैसला किया, नतीजतन सीमा-रेखा के अनुसार ही पागलखाने में पागलो को अलग करने के लिए एक दीवाल बना दी गयीI  गुजरते वक्त के साथ एक दिन दीवाल का ऊपरी कुछ हिस्सा टूट कर गिर गयाI दोनों तरफ के पागल बारी-बारी से दूसरी तरफ झांकते और ये सोच कर आश्चर्यचकित होते कि दूसरी तरफ भी वैसा ही कुछ है जैसा इधर और फिर जैसे पहले था. पागल खुश होकर, ताली बजा-बजा कर एक दुसरे से कह रहे थे कि ये लोग भी अजीब है पागल हमें बोलते है और पागलपन खुद करते हैI  सच भी है, इस बंट

बर्बादी के कगार पर खड़े भारतीय बैंक

अपने पुराने लेख में जहाँ मैंने नोटबंदी और उसके दीर्घकालिक प्रभाव तथा एक अन्य लेख जिसमे तात्कालिक बैंकिंग सिस्टम तथा उसकी दुर्दशा का हवाला दिया था को जब मैं हाल ही में बैंकिंग सिस्टम द्वारा लिए गए नए आधिकारिक निर्णयो का जब मैं से जोड़कर देखता हूँ तो मैं अपनी पुनः उसी बात का समर्थन करता हूँ की मौजूदा बैंकिंग नीतियां कितनी अदूरदर्शी और खामियों से भरी हुयी है. गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था कि नींव कहे जाने वाले बैंकिंग सिस्टम की इतनी दयनीय हालात के बावजूद केंद्रीय बैंक तथा सरकारी नीतियां किसी भी स्थायी समाधान को खोज पाने में न सिर्फ विफल साबित हो रही है बल्कि बैंको तथा कस्टमर को उनके हाल पर छोड़ देने के अलावा शायद की कोई अन्य विकल्प तलाश पाने में कामयाब रही है. हालिया उदारहरण स्वरुप यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक्स यूनियन (यूएफबीयू) की हड़ताल और बैंकिंग इंस्टिट्यूशन द्वारा मनमाना ट्रांसक्शन चार्ज वसूला जाना निसंदेह अपनी दुर्दशा की कहानी आप बयां कर रहा है. विगत दिनों में नए बैंकिंग नियम के मुताबिक खातेधारकों को एटीएम से सिर्फ 4 मुफ्त ट्रांसक्शन करने को मिलेंगे जो की पहले के पांच मुफ्त ट्रांसक्शन से कम ह

मानसिक द्वन्द

जल्दी ही भूल जायेंगे, बहुत शीघ्र ही सिर्फ एक नाम बनकर दफ़न हो जाते लोग और उनकी यादें. बाकी कुछ अगर रह जाता है तो केवल इतिहास के गर्द में लिपटी हुई एक भूली- बिसरी याद. तो फिर फर्क ही क्या पड़ता है अच्छे या बुरे होने में या फिर होने का आडम्बर करने में. कुछ लोगों को खुश करना और कुछ से दूर रहना तो वास्तविकता में दुनियादारी की एक छोटी सी रीत हो सकती है, परंतु वास्तविक जुड़ाव तो मन और विचारो का होता है. कौन भला जिंदगी भर बीती बातों और उचित-अनुचित का ख़याल करके जीवन भर उस याद को जीवित रखने की कोशिश करता है. कुछ लोगों के लिए विदाई हमेशा के लिए मुक्ति का जरिया होता है, जबकि कुछ के लिए यह सिर्फ भौगोलिक या सामयिक होती है. अंग्रेजी की कहावत 'आउट ऑफ़ साईट, आउट ऑफ़ माइंड' अर्थात जो चीज नजर आना बंद कर देंती है वह शीघ्र ही विस्मृत कर दी जाती है परंतु यह सन्दर्भ उन छणिक जुड़ावों के लिए तो सही साबित होता है जो सिर्फ देशकाल अथवा समयसीमा की परिधि से बंधे होते है परंतु उन लोगों के लिए जिनका जुड़ाव आध्यात्मिक अथवा वैचारिक होता है. और सच पूछा जाए तो केवल और केवल समय ही परख होता है जुड़ाव और जुड़ाव के कारणो

एक भाग्यवादी सोच

क्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम, देवो न जानपी,मनुष्यो कृतो. अर्थात क्रिया चरित्र और पुरुष के भाग्य को देवता भी नहीं जान सकते है फिर भला मनुष्य की बिसात ही क्या? वास्तव में मेरे इस लेख का प्रयोजन भाग्यवादी सोच को बढ़ावा देने का नहीं है परंतु कहीं न कहीं हम सभी की सोच 'भाग्य वादी" हो ही जाती है. कर्मपरायण लोग सिर्फ कर्म के महत्त्व को ही सब कुछ मानते है जबकि कहीं न कहीं कर्म के साथ भाग्य का जुड़ाव ही उन्हें सफल या असफल बनाता है. और भले ही व्यक्ति कितना भी कर्मपरायण क्यों न हो समयपर्यन्त भाग्यवादी हो ही जाता है.आखिर क्यों पूजते है हम देवी देवताओ को? व्रत, उपवास, दान, पुण्य सब इसी लिए तो है. अगर मेरा फलां काम हो गया तो तीर्थ करने जाऊँगा, परीक्षा में पास हो गया तो सवा किलो शुद्ध देसी घी के लड्डू चढ़ाऊंगा वगैरह वगैरह. उस पर भी अगर सफलता न मिली तो दोष किसका? छत्तीस कोटि देवी देवताओ में से अगर एक आध की मनुति मानने के बावजूद भी अगर पूरी न हो तो क्या हम भगवान् को मानना छोड़ देते है नहीं न? फिर हो सकता है किसी और देवी देवता की आराधना करने लगे और अगर वहां से भी असफल ह

प्रेम की तलाश

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कक्षा में एक छोटे बच्चे से अध्यापिका से प्रश्न किया , " मैम , प्यार क्या होता है ?" अध्यापिका ने एक एक पल सोचने के बाद गेंहू के खेत की तरफ इशारा करते हुए बच्चे से कहा की , " गेंहू की सबसे बड़ी बाली को ले आओ . मगर शर्त ये है कि एक बार तुम खेत में अंदर चले जाओगे , तो वापस पीछे आकर बाली नहीं चुन सकते हो ." बच्चे ने कहे अनुसार किया . लौटकर आने के बाद अध्यापिका ने बच्चे का अनुभव पूछा . बच्चे ने कहा , " सबसे पहले मुझे एक लंबी बाली दिखी , मगर मुझे लगा शायद आगे खेत में मुझे इससे भी बड़ी बाली मिले . इसी उम्मीद में मैंने उसे छोड़ दिया , मगर आगे जाकर मुझे एहसास हुआ कि सबसे बड़ी बाली तो मैं पहले ही छोड़ आया हूँ ." अध्यापिका ने उसे समझाते हुए कहा , " ठीक ऐसा ही कुछ प्यार के साथ होता है . हमें लगता है हमें इससे भी अच्छा , इससे भी बेहतर कोई मिलेगा . और हम जीवन में आगे बढ़ जाते है . लेकिन कुछ समय बाद हमे एहसास होता है

मृत्यु और भय

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जीवन और मृत्यु के बीच की एक अहम् कड़ी है डर. शिव मृत्युंजय है क्योंकि शिव ने मृत्यु के भय पर जीत पायी है. जीवन आरम्भ होने के साथ ही डर का प्रारम्भ हो जाता है, और यही डर जीवन पर्यन्त चलता रहता है. डर ही दुखों का मूल है, जिसने भय पर विजय प्राप्त कर ली वह स्वयं ही मृत्युंजय हो जाता है. वास्तविकता में मृत्यु ही सबसे बड़ा भय है. ये मत करो, वहां मत जाओ, उससे मत मिलो और ऐसे ही न जाने कितने अनगिनत भय रोज ही पैदा होते है. अपनों को खोने के डर से अनिक्षा पूर्ण सहमति, अत्यधिक परवाह करना, भविष्य को लेकर अनिश्चित रहना ये सब अनदेखे और कपोल जनित भय ही तो है. एक अस्पताल में हाल ही में शोध किया गया कि मृत्य शैय्या पर पड़ा व्यक्ति आखिर क्या सोचता है? अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सो का इंटरव्यू करने पर पता चला कि हर मरने वाले अपने अधूरे छोड़े गए कार्यो, या फिर ऐसे कार्य जो किसी कारणवश नहीं शुरू कर पाए उनको लेकर सशंकित थे, कुछ अपनी गलतियों का पश्चाताप कर रहे थे, वही कुछ लोगों को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना करने का भी मलाल था. ज्ञान तो मिला परंतु उम्र निकल गयी और इस ज्ञान की महत्ता को दूसरा तभी समझेगा