भारतीय अर्थव्यवस्था की दुर्दशा के कारण

 


अक्सर ही मेरे पिताजी एक चुटकुला सुनाते थे। एक बार एक व्यक्ति ने अपना रेस्टोरेंट खोला। रेस्टोरेंट के बाहर उसने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए मेनू का बोर्ड लगाया और उसके नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में यह लिख दिया कि हमारे रेस्टोरेंट में हर दिन एक नया व्यंजन खाने को मिलेगा और कोई भी डिश दोहराई नही जाएगी। एक दिन मेनू में उसने एक नई डिश लिखी, कद्दू और अंगूर की सब्जी। एक व्यक्ति उत्सुकतावश रेस्टोरेंट में गया और उसने वह डिश आर्डर कर दी। खाना परोसे जाने तक उसने मैनेजर से बात करने का सोचा। उसने मैनेजर से पूंछा की कद्दू और अंगूर की सब्जी के बारे में उसने पहले कभी नही सुना। मैनेजर ने कहा हमारा बावर्ची बहुत ही होनहार है वह हर दिन कोई कोई नई डिश बनाता ही है। डिश के बारे में अधिक जानकारी के लिए उस व्यक्ति ने बावर्ची से मिलने की इच्छा व्यक्त की। बावर्ची ने उसे बताया कि इस डिश को बनाने के लिए कद्दू और अंगूर का सही अनुपात होना बहुत जरूरी है और हम इसी अनुपात को ध्यान में रखकर ही डिश बनाते है। व्यक्ति ने अधिक जानकारी के लिए बावर्ची से पूछ लिया कि ये अनुपात है क्या। बावर्ची ने कहा एक कद्दू पर एक अंगूर।

ठीक ऐसी ही स्थित भारतीय अर्थव्यवस्था एवं इसकी जानकारी रखने वालों की है। गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था पर चर्चा करने वाले समस्या तो बता देते है मगर समाधान नदारत रहता है। वहीं दूसरी तरफ कुछ विद्वान तो विदेशी अर्थव्यवस्था का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ लेते है। विगत कुछ दिनों में क्रेडिट रेटिंग एजेंसी के एक उच्च अधिकारी का लेख एक प्रतिष्ठित अखबार में छपा। लेख में आंकड़ो के अलावा अन्य कुछ भी नही बताया गया था और मुख्य विषय को केवल अंतिम दो-तीन पंक्तियों तक सीमित कर दिया गया था। आश्चर्य की बात ये है कि तो पब्लिक और ही अखबार के प्रकाशक को इस लेख में कुछ ऐसा नजर आया जिससे इसका प्रकाशन अपरिहार्य हो गया हो। यही नही अर्थव्यवस्था से संबंधित अधिकतर लेख और वक्तव्य आपको अधिकतर ऐसे मिलेंगे जिसका कोई सार ही नही होता दूसरी तरफ लेखक को भी इससे कोई फर्क नही पड़ता क्योंकि अधिकतर लोग ऐसे लेख को नजरअंदाज कर देते है और उनकी रुचि इस विषय मे होती ही नही है।

कुछ दिनों पूर्व ही मेरा कुछ शिक्षाविदों के साथ साक्षात्कार का अवसर प्राप्त हुआ। वार्तालाप के दौरान ही उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को सोशलिस्ट इकॉनमी कहे जाने पर ऐतराज जताया और मुझे बताया कि भारतीय अर्थव्यवस्था मिक्स्ड इकॉनमी अर्थात मिश्रित अर्थव्यवस्था है। बातचीत का विषय कैपटलिज्म के असफल होने की संभावनाओं एवं इसके प्रभाव का भारतीय अर्थव्यवस्था पर असर को रेखांकित करना था। निसन्देह कैपिटलिज्म फेल होने के कगार पर पहुंच भी चुका है। रूस, ब्रिटेन और अमेरिका इसके गवाह भी है। परंतु यह कहना सरासर गलत होगा कि भारत एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है। मिश्रित अर्थव्यवस्था से तात्पर्य एक ऐसी अर्थव्यवस्था से है जहां पब्लिक और प्राइवेट कंपनियां साथ साथ विद्यमान हो एवं काम करती हो। ऐसी परिभाषा के अनुसार तो कैपिटलिस्ट इकॉनमी में भी प्राइवेट और पब्लिक इंटरप्राइजेज साथ-साथ विद्यमान होते है। दूसरी तरफ अगर रेश्यो अर्थात प्रतिशतता की बात करें तो भी यह बात गले नही उतरती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में सरकारी एवं निजी कंपनियां बराबर संख्या में विद्यमान है। डिसइनवेस्टमेंट का अर्थ ही प्राइवेटाइजेशन है। और सरकार की विभिन्न कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचना एवं रिजर्व्ड सेक्टर्स जैसे न्यूक्लियर, सेना, अंतरिक्ष खोजे एवं आयुध निर्माण संबंधी क्षेत्रो (कुल मिलाकर 5 सेक्टर) को छोड़ दिया जाए तो सरकारी परिसंपत्तियां बची ही कितनी? दूसरी ओर अन्य विकसित देशों में भी निजी संपतियां सरकारी संपत्तियों से अधिक है ऐसे में मिश्रित अर्थव्यवस्था की यह परिभाषा गले के नीचे नहीं उतरती। भारतीय अर्थव्यवस्था को लोक कल्याणकारी कार्यों से जोड़कर देखना एक भयंकर भूल होगी। इस प्रकार अर्थव्यवस्था को केवल दो श्रेणियों में रखा जा सकता है, कैपिटलिस्ट इकॉनमी अर्थात पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तथा दूसरी सोशलिस्ट इकॉनमी अर्थात समाजवादी अर्थव्यवस्था।

अगर बात भारतीय परिपेक्ष में अथवा भारतीय अर्थव्यवस्था पर कैपिटलिज्म की जाए तो यह तेजी से कैपिटलिज्म की ओर गतिशील है। मगर नीतिकार अभी भी एक आदर्शवादी अर्थव्यवस्था के स्वप्न से बाहर नहीं निकल पाए है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आपको लोक कल्याणकारी योजनाओं जैसे मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी एवं अन्य सुविधाएं मुफ़्त में देने के रूप में देखा जा सकता है। जिसका सीधा प्रभाव राजकोषीय घाटे के रूप में परिलक्षित हो रहा है। एक तरफ तो जहां सरकारे लोक लुभावन नीतियों के जरिये अपनी सत्तालोलुपता की लालसा को हवा दे रही है वहीं दूसरी तरफ महत्वपूर्ण संसाधनों जैसे पेट्रोल, डीजल एवं खाद्य तेलों एवं अन्य पदार्थो के निर्यात पर निर्भर है। इंफ्रास्ट्रक्चर की अनदेखी के परिणामस्वरूप वैश्विक रूप से भारतीय व्यवस्था में निवेशकों का भरोसा कम ही है। नतीजतन लगभग 212 के करीब स्टार्टअप्स बंद हो चुके है या बंद होने के कगार पर है। वही अति उत्साही इंटरप्रेन्योर 100 के करीब फिर से इस विश्वास के साथ एंट्री लेने के लिए उत्सुक है कि उनका उद्यम सफलता के नए परचम गढ़ देगा। जबकि सरकार द्वारा सिर्फ 22 स्टार्टअप ही फाइनेंस प्रोवाइड करने हेतु चुने गए थे जिनमें से अभी तक सिर्फ 3 स्टार्टअप को ही फाइनेंस की सुविधा का लाभ प्राप्त हुआ है। दूसरी तरफ ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स में भारत की स्थिति सुधरने का मुख्य कारण नए व्यापार को आरंभ करने के रास्ते को आसान बनाने से जुड़ा होकर व्यापार को बंद करने के तरीके को सुगम बनाने से जुड़ा हुआ है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदु जो इस पूरे प्रकरण से जुड़ा हुआ है वो है यूनिकॉर्न कंपनियों की संख्या (1 अरब से अधिक का कारोबार करने वाली कंपनियां)जो कि विदेशों की तुलना में बहुत कम संख्या में विद्यमान है।

वर्तमान परिदृश्य में देखा जाए तो रुपये का डॉलर की तुलना में गिरना (वर्तमान में 1 डॉलर= 80 रुपए) वैश्विक नीतियों का परिणाम भले ही हो। लेकिन संस्थागत निवेशकों (FII) का भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति घटते रुझान एवं अमेरिकी बैंको द्वारा अधिक ब्याज देने के लालच के रूप देखा जा सकता है। मगर वास्तविकता में किसी भी सरकार ने निजी निवेश को प्रोत्साहित करने एवं इनके अनुकूल माहौल बनाने का प्रयास नहीं किया। अमेरिकी बैंको का अधिक ब्याज देने का निर्णय भारत का रूस के प्रति अधिक लगाव के प्रतिउत्तर के रूप में भी देखा जा सकता है। जहाँ दो परस्पर विपरीत शक्तियां (रूस और अमेरिका) एक दूसरे को कमजोर करने में लगी है। 1956 के वैश्विक परिदृश्य को देखे तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किस प्रकार अमेरिका ने ईरान जैसे देश के प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण हासिल करने के उद्देश्य से राजनीतिक उथल-पुथल के द्वारा ईरान की सत्ता ही पलट दी। ठीक ऐसा ही परिदृश्य अनेको बार दोहराया गया, जैसे ईराक, अफगानिस्तान संकट इत्यादि। मगर इन सब का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला ही रहा है।

इस बात में कोई दो राय नही है कि पूंजीवाद टूट के कगार पर है परंतु जिस प्रकार बुझने से पहले दीपक की लौ फड़फड़ाती है ठीक वैसी ही बेचैनी विकसित देशो के मध्य भी देखने को मिल रही है। नो परमानेंट एनिमी, नो परमानेंट फ़्रेंड वाली रणनीति भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक चिंता की बात हैं। विभिन्न अमेरिकी कंपनियों जैसे वीसा एवं मास्टर कार्ड, वालमार्ट, टेस्ला इत्यादि के प्रति कठोर व्यापारिक रुख अपनाये जाने से खार खाये अमेरिकी कभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने समकक्ष होते नहीं देख सकते। ऐसे में भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी केवल चुनिंदा कंपनियों एवं सेक्टर्स जैसे बैंकिंग एवं इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के भरोसे ही नहीं छोड़ी जा सकती है। वीजा संबंधी नियमो में बदलाव एवं आउटसोर्सिंग जैसे व्यापार का अन्य देशों को स्थानांतरित किये जाना केवल भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी को बढ़ाने वाला बल्कि अर्थव्यवस्था को पीछे धकेलने हेतु प्रमुख रूप से जिम्मेदार है।

भारतीय अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने एवं इसे वैश्विक उथल-पुथल से बचाने की जिम्मेदारी निसंदेह सरकार की है और इस हेतु कुछ तात्कालिक निर्णय लेना अत्यंत आवश्यक हो गया है। सर्वप्रथम तो सरकार को लोक लुभावन योजनाओं से बचने की आवश्यकता है जिससे राजकोष पर अतिरिक्त बोझ को कम किया जा सके। ऐसी योजनाओं को तत्काल समाप्त करने की आवश्यकता है। दूसरी ओर सरकार को केवल इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी योजनाओं के क्रियान्वयन की प्रक्रिया में तेजी एवं पारदर्शिता लाने की आवश्यकता है। तीसरी बात सरकार को आर्थिक विकास हेतु एक स्थिर आर्थिक ढांचे का निर्माण करना होगा।

अर्थव्यवस्था की रूप रेखा निर्धारित करने हेतु हमें यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि कद्दू और अंगूर के किस्से में कद्दू कौन है और अंगूर कौन। सिर्फ़ किताबी ज्ञान और वास्तविक परिदृश्य से अनजान व्यक्ति से इस प्रकार की समझदारी की अपेक्षा करना एक भयानक भूल होगी।

लेखक-देवशील गौरव

 

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