क़िस्सागोई- अध्याय 1
आज बात वहां पर खतम हुई, जहां से कभी शुरू होती थी। उम्र का एक पड़ाव ऐसा भी था, मानो सब कुछ वहीं आकर ठहर सा जाता हो। कल तक उस पल में हम भविष्य को लेकर चिंतित थे। लगता था आज नहीं तो कल सब हासिल कर लेंगे, बस थोड़ा सब्र और। बस थोड़ा समय और, बस थोड़े पैसे और, थोड़ा साथ और। लगता था जैसे भले ही वो कल न आए मगर ये पल भी कुछ बुरा तो नहीं है। मुफ़लिसी का भी अपना ही मजा हुआ करता था,क्योंकि उस मुफलिसी में तुम जो साथ थे।चाहिए तो सब कुछ था, मगर तुम्हारे बगैर नहीं। सच पूछा जाए तो कितनी ही दफा इस बात को सिरे से खारिज कर दिया कि क्या होगा अगर तुम कल साथ नहीं हुए तो। डर तो लगता था, कहीं छुपा हुआ सीने में किसी कोने में। मगर तुम्हें यकीन दिलाने के लिए कितनी ही दफा मैंने झूठ बोला कि ऐसा कुछ भी नहीं होगा। आज भी लगता है कि कहीं न कहीं तुम मेरा दुख समझती थी, मेरे झूठ को हर बार की तरह पकड़ लेने की काबिलियत थी तुम में। मगर फिर भी तुम्हारा मेरे चेहरे और मेरी आँखों को एकटक देखना और कुछ न कहना मानो मेरी दलीलों को सिरे से नकार देता था। मेरे सिर नीचे करने या मुंह फेर लेने की आदत से तुम वाकिफ थी। शायद ये बात तुमसे नजरें मिला कर कहने की हिम्मत नहीं थी मेरे अंदर। जबकि मैं खुद भी जानता था कि तुम जानती हो कि ये एक झूठे दिलासे के सिवा कुछ भी नही। मेरे नजरें फेर लेने का मतलब वास्तविकता से भागना कभी नही था, बल्कि उस प्रश्न से बचने की एक कोशिश मात्र थी जिसका जवाब मेरे पास कभी था ही नहीं। क्या होता अगर तुम पलट कर पूंछ लेती कि 'आखिर कब तलक'। भले ही तुमने कभी कहा न हो, मगर मुझे हमेशा से पता था कि ये सवाल तुम्हारे जहन में आता जरूर था। बहाना चाहे जो भी हो, वजह चाहे जो भी हो मगर वास्तविकता में वो एक सवाल ही था जो मुझे खुद से रूबरू कराता था। सपनो की काल्पनिक दुनिया से वास्तविकता के धरातल पर इतनी जोर से पटकता था कि सारे ख्वाब चकनाचूर हो जाते थे। उन टूटे ख्वाबो की किरमिचे बटोरते वक्त जितनी चुभती थी,उनके घाव उससे भी ज्यादा गहरे थे। काश किसी और समय में, किसी और परिस्थिति में हम मिले होते तो शायद बात कुछ और होती। या फिर तुम मेरी जगह होती और मैं तुम्हारी जगह तो शायद परिस्थिति कुछ और होती। और तो और होने को तो ये भी हो सकता था कि हमारे बीच ये 'शायद' ही नहीं होता। फिर सोचता हूँ कि अब इन सब बातों में क्या रखा है,और क्या पता हम सच में ऐसा कुछ कर पाते।अब बस खुद को दिलासा देने के अलावा और कुछ नहीं है। हां, बस कभी-कभी कुछ किस्से जेहन में तुम्हारी यादों को तरोताजा कर देते है। सावन की पहली बरसात में ही तुम्हारी यादो की बौछारों ने फिर एक किस्से को तरोताजा कर दिया।
लेखक-देवशील गौरव
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