एक भाग्यवादी सोच



क्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम, देवो न जानपी,मनुष्यो कृतो.


अर्थात क्रिया चरित्र और पुरुष के भाग्य को देवता भी नहीं जान सकते है फिर भला मनुष्य की बिसात ही क्या? वास्तव में मेरे इस लेख का प्रयोजन भाग्यवादी सोच को बढ़ावा देने का नहीं है परंतु कहीं न कहीं हम सभी की सोच 'भाग्य वादी" हो ही जाती है. कर्मपरायण लोग सिर्फ कर्म के महत्त्व को ही सब कुछ मानते है जबकि कहीं न कहीं कर्म के साथ भाग्य का जुड़ाव ही उन्हें सफल या असफल बनाता है. और भले ही व्यक्ति कितना भी कर्मपरायण क्यों न हो समयपर्यन्त भाग्यवादी हो ही जाता है.आखिर क्यों पूजते है हम देवी देवताओ को? व्रत, उपवास, दान, पुण्य सब इसी लिए तो है. अगर मेरा फलां काम हो गया तो तीर्थ करने जाऊँगा, परीक्षा में पास हो गया तो सवा किलो शुद्ध देसी घी के लड्डू चढ़ाऊंगा वगैरह वगैरह. उस पर भी अगर सफलता न मिली तो दोष किसका?
छत्तीस कोटि देवी देवताओ में से अगर एक आध की मनुति मानने के बावजूद भी अगर पूरी न हो तो क्या हम भगवान् को मानना छोड़ देते है नहीं न? फिर हो सकता है किसी और देवी देवता की आराधना करने लगे और अगर वहां से भी असफल हुए तो किसी और की, परंतु ये क्रम चलता ही रहता है. फिर कहीं से किसी ने बताया की पूजा पाठ में फलां फलां कमी रह गयी थी इसी वजह से मनुति पूरी नहीं हुयी. और फिर एक चक्र हमेशा चलता ही रहेगा. हालांकि हिन्दू धर्म के अतरिक्त बाकि अन्य धर्मो में जहाँ सिर्फ एक ईश्वरवाद अथवा अनीश्वरवाद में विश्वास रखते है वहां कमोबेश ऐसी परिस्थितियां नगण्य ही होती है.जितना विशाल धर्म उतनी ही अजीब मान्यताएं. फिर भी धर्म के परे फैटालिस्ट एप्रोच अर्थात भाग्यवादी विचारधारा सबमे होती है. और व्यक्ति अपने को असफलता से दूर रखने और सफल होने की तिकडम में लगा ही रहता है. और इस चक्कर में न जाने क्या क्या हथकंडे अपनाता रहता है.

एक आदमी ने काफी उद्यम किया परंतु सफल नहीं हुआ. जिस भी कार्य में हाथ लगाया असफलता ही हाथ लगी.बहुत दुखी होकर आत्महत्या करने की सोच रहा था तभी किसी ने उसे सुझाया कि संभवतः इस जगह कि ही प्रवित्ति कुछ ऐसी है जो तुम्हें सफलता नहीं मिल रही, क्यों न तुम कहीं और जाकर अपनी किस्मत आजमाओ? शायद तुम्हारे भाग्य का सितारा वहां चमक जाये. उस व्यक्ति को सुझाव ठीक लगा सो उसने किसी दूसरे गाँव जाने का निश्चय किया.दूसरे गाँव पहुंचकर उसने देखा कि ठीक सामने कुएं कि जगत पर उसी की शक्ल- सूरत का एक काला सा अपंग व्यक्ति बैठा हुआ है. उत्सुकता वश वह व्यक्ति उसके करीब जाकर पूछता है कि वह कौन है? कुए की जगत पर बैठा व्यक्ति जोर- जोर से हँसते हुए कहता है, "अरे मूर्ख, तूने मुझे पहचाना नहीं, मैं हूँ तेरी किस्मत." और वह व्यक्ति अपना सर पीट लेता है. कहानी का सार यही है, आपके प्रयोजन कितने भी भले क्यों न हो, बिना भाग्य के सहयोग के पूरे नहीं हो सकते. और भाग्य को समझ पाना संभव ही नहीं, अंकज्योतिष, सामुद्रिकशास्त्र, वास्तुशास्त्र, हस्तरेखा सब इसी जोड़-तोड़ में लगे है की आदमी का भाग्य जाना जा सके, परंतु सब धाक के तीन पात साबित हो रहे है. विद्वान् बना व्यक्ति जिज्ञासु व्यक्ति को ग्राहक की नजर से देखता है, और हर रोज नए नए स्वांग रचे जाते है. आम आदमी तो छोड़िये, विद्वान और काबिल लोग भी अपनी भाग्यवादी सोच पैर लगाम नहीं लगा पाए. मसलन, अपने मुफलिसी के दिनों में काफी कोशिशो के बाद भी जब सफलता दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही थी तो मशहूर शायर मीर तकी मीर ने अपनी हालत कुछ यूँ बयां की-

"अब तो घबरा के यूँ कहते है, कि मर जाएंगे,
मिला न मर के सुकू भी, तो कहाँ जायेंगे."

ठीक ऐसा ही कुछ हाल ग़ालिब का भी था, पारिवारिक अनबन, बच्चो कि असामयिक म्रत्यु और उस पर ख़राब आर्थिक स्थिति. और फिर जब काफी कोशिशो के बाद भी मुग़ल दरबार में अपनी पहुँच बना पाने और अपनी नाकामयाबी को दूर करने की कोशिश उन्हें कारगर नहीं लगी तो फिर आखिरकार उन्होंने भी खुदा का ही सहारा लिया, मसलन-

"कुछ न था तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,
डुबोया मुझको मेरे होने ने, न होता मैं तो क्या होता."

अर्थात जब मेरे पास कुछ नहीं था तो मैं सिर्फ खुदा के भरोसे था और अगर आगे भी कुछ नहीं होता तो शायद मैं आज भी उसी के भरोसे होता.और अब जबकि मैं कुछ बनना चाहता हूँ तो मेरी किस्मत मुझे आगे ही नहीं बढ़ने दे रही है, कितना अच्छा होता अगर मेरी कुछ लालसा ही नहीं होती.

हालाँकि अभी भी आप संभवतः मेरी इस बात से सरोकार न रखते हो तो आप को एक रोचक कहानी और सुनाता हूँ और फिर आप स्वयं ही निर्णय लीजिये. एक बार एक गुरुकुल में दो शिष्यों के बीच कर्म और भाग्य को लेकर बहस हो गयी. एक कहता कर्म श्रेष्ठ है तो दूसरा कहता भाग्य. बहस का कोई अंत न होते देख दोनों गुरु के पास गए गुरु ने शांतिपूर्वक दोनों शिष्यों की बातें सुनी फिर दोनों शिष्यों को एक रात के लिए आश्रम की एक कुटी में बंद करने का निर्णय सुनाया. दोनों शिष्यों को कुटी में बंद कर दिया गया, रात घिर आयी परंतु न तो प्रकाश और न ही भोजन का कोई प्रबंध उन शिष्यों के लिए किया गया. भाग्यवादी शांतिपूर्वक धरती पर बैठ गया और कहने लगा जो मेरे भाग्य में होगा मुझे मिलेगा, फिर व्यर्थ प्रयोजन करने से क्या लाभ. वही दूसरी तरफ कर्मवादी शिष्य अँधेरे में इधर-उधर हाथ मारने लगा की शायद खाने के लिए कुछ मिल जाये. कुछ समय बाद कर्मवादी को एक घड़े में कुछ चने मिल गए. उसने हँसते हुए कहा कि मैनेकर्म किया तो मुझे फल मिला. तुम तो भूखे ही मरोगे. कर्मवादी शिष्य न चने खाये तो उसमें कुछ कंकड़ भी मिले. उसने हँसते हुए वे कंकड़ भाग्यवादी को देते हुए कहा ये है तुम्हारे भाग्य का परिराम लो अब कंकड़ ही बैठ कर चबाओ. सुबह हुयी और जब कुटी का द्वार खोला गया तो दोनों शिष्य बाहर निकले. कर्मवादी बहुत खुश था जबकि भाग्यवादी निराशा में मुंह लटकाये हुए आ रहा था. गुरु जी के पास पहुंचकर दोनों ने अपनी बात आप बीती सुनाई. गुरु जी ने भाग्यवादी से घड़े के बारे पूछा. भाग्यवादी ने घड़ा गुरु जी को दिखाने लिए उठाया तो उसमें हीरे मोती चमक रहे थे. अब खुश होने कि बारी भाग्यवादी की थी. परंतु फिर वही यक्ष प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ, कर्म बड़ा या भाग्य? तो गुरु जी ने दोनों शिष्यो को समझते हुए कहा, किसी के लिए भाग्य बलवान है क्योंकि उसकी सफलता भाग्य की ही बदौलत मिली है, जबकि किसी के लिए कर्म. परन्तु केवल कर्म ही आपकी सफलता की गारंटी नहीं हो सकते सफलता के लिए भाग्य का योगदान होना परम आवश्यक है.

सुलेख- देवशील गौरव






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