टू बी ऑर नॉट टू बी
विलियम शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक हैमलेट के एक दृश्य का आरंभिक संवाद है,"टू बी ऑर नॉट टू बी,दैट इज़ दी क्वेश्चन" अर्थात किसी चीज का होना या न होना,करना या न करना ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। हमारे निर्णय लेने की प्रकृति प्रायः इस बात पर निर्भर करती है कि क्या ऐसा किया जाना चाहिए अथवा क्या यह उचित है? यहां ध्यान देने वाली बात प्रश्न की प्रकृति पर निर्भर करती है। जैसे क्या ऐसा किया जाना चाहिए का तात्पर्य निर्णय लेने वाले की मनोस्थिति पर निर्भर करती है। आप संभवतः किसी कठोर निर्णय लेने में असहजता महसूस कर सकते है क्योंकि यह आपकी चारित्रिक दुर्बलता को दर्शाता है जबकि उचित अथवा अनुचित का बोध आपको समाज के कारण होता है। ठीक ऐसी ही स्थिति आपके विश्वास से भी जुड़ी हुई होती है, धर्म-अधर्म, सच-झूठ,कर्मफल सभी इसी के चारो ओर घूमते है।
धर्म, राजनीति, खेल के बाद यदि सबसे अधिक चर्चा का विषय कोई है तो वह संभवतः भूत-प्रेत की संभावना पर विमर्श करना ही है। इंग्लैंड की ओकल्ट सोसाइटी अर्थात भूत-प्रेत पर अनुसंधान एवं निदान करने वाली संस्था के स्थापक ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि दुष्ट शक्तियों एवं आत्माओं का किसी के शरीर पर कब्जा करने अथवा उसे अपना शिकार बनाने का एक खास पैटर्न होता है। सबसे पहले वे उस व्यक्ति को चुनते है जिनकी मानसिक शक्ति अपेक्षाकृत कम होती है। ऐसे लोग प्रायः कमजोर इच्छा शक्ति के होते है और कठोर एवं तर्कसंगत निर्णय लेने की क्षमता इनमें नहीं होती है। दूसरे शब्दों में कहे तो ये डरपोक प्रवित्ति के होते है। इनके विश्वास और अविश्वास के बीच बहुत पतली सी लकीर होती है और ये बहुत ही जल्दी किसी चीज पर यकीन कर लेते है अथवा यकीन खो देते है। दुष्ट शक्तियां अथवा आत्माएं इन्हें सबसे पहले दिखाई देती है और इनको अपने अस्तित्व से रूबरू कराती है। चूंकि इनका विश्वास पहले से ही कमजोर होता है अतः ये तुरंत ही उस शक्ति के प्रभाव में आ जाते है। किसी पर प्रभाव जमाने के लिए उसे मानसिक तौर पर अपने अधिकार एवं शक्तियों से भयभीत करना इस प्रक्रिया का सबसे प्रथम चरण होता है। यदि आप किसी ऐसी शक्ति पर यकीन नहीं करते अर्थात आप उसके प्रभाव क्षेत्र से मुक्त रहते है। इसीलिए कुछ व्यक्ति (कमजोर इच्छा शक्ति वाले) ऐसी शक्तियों के अस्तित्व पर यकीन रखते है अथवा देखे जाने की पुष्टि करते है जो कि सही भी है। ठीक इसके विपरीत दृण इच्छा शक्ति वाले व्यक्ति न केवल ऐसी शक्तियों के अस्तित्व से इनकार करते है बल्कि ऐसे किसी साक्षात्कार एवं प्रमाण को भी संदिग्ध दृष्टि से देखते है। परंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ऐसी शक्तियों के अस्तित्व से इनकार किया जा सके बल्कि यह उस शक्ति अथवा आत्मा की स्वयं की सामर्थ्य अथवा शक्ति पर भी निर्भर करता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो ऐसी शक्तियां मजबूत अथवा दृण इच्छा शक्ति वाले व्यक्ति को भी अपना शिकार बना सकती है यदि उनकी स्वयं की शक्ति उस व्यक्ति की इच्छाशक्ति से अधिक है। व्यक्ति को वश में करने अथवा उसके शरीर पर कब्जा करने का दूसरा चरण प्रतिक्षण भिन्न परिणाम देने वाला होता है। जिसके अंतर्गत दुष्ट शक्ति व्यक्ति के शरीर को अपने अस्थायी घर के तौर पर इस्तेमाल करती है। चूंकि व्यक्ति की मानसिक शक्तियों एवं सद्गुणों का अंश अभी भी उस व्यक्ति के शरीर में वास होता है जो कि उस बाहरी शक्ति का विरोध करती है। ऐसे टकराव के कारण प्रायः दुष्ट शक्ति के आवेग एवं समर्थ में कमी आती है और वह कुछ समय के लिए उस व्यक्ति का शरीर को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाती है। इस स्थिति में दुष्ट शक्ति उस व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से कई आघात देने की कोशिश करती है ताकि व्यक्ति की मानसिक शक्तियां न तो संघटित हो पाए और न ही अतिरिक्त शक्तियां ग्रहण कर पाए। किसी भी व्यक्ति का उपचार केवल इसी स्टेज अथवा चरण तक किया जा सकता है। तीसरा चरण अत्यंत भयानक और असाध्य होता है इसमें दुष्ट शक्ति द्वारा उस व्यक्ति से अनेक अनैतिक एवं अधार्मिक कर्म कराएं जाते है जिससे न केवल उस व्यक्ति का शरीर दूषित हो जाता है बल्कि उसके द्वारा अर्जित सभी पुण्य कर्मों का भी लोप हो जाता है। व्यक्ति का शरीर एवं आत्मा दोनो ही उस दुष्ट शक्ति के अधीन हो जाते है। दुष्ट शक्ति इस स्थिति में उस व्यक्ति के शरीर का इस्तेमाल सभी अनैतिक कृत्यों के लिए करती है एवं उसे अपना स्थायी घर बना लेती है। धीरे-धीरे वह उस व्यक्ति के शरीर एवं आत्मा की शक्तियों का उपयोग अपनी भूख मिटाने के लिए करने लगती है और व्यक्ति धीरे-धीरे मौत की कगार पर पहुंच जाता है। भले ही डॉक्टर, वैद्य कितने भी इलाज क्यों न कर ले और व्यक्ति को बचाने के लिए कुछ भी क्यों न कर ले और अगर वे इस कोशिश में कामयाब भी हो जाये फिर भी व्यक्ति का शरीर एवं आत्मा को बांधे रख पाने वाली डोर बहुत कमजोर हो चुकी होती है और अंततः व्यक्ति की मौत हो जाती है।
आप आस्तिक हो अथवा नास्तिक, ईश्वर पर विश्वास रखना या न रखना आपका एक व्यक्तिगत दृष्टिकोण हो सकता है परंतु आप कितने आस्तिक या नास्तिक है यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक जापानी कहावत के अनुसार, किसी भी वस्तु का निर्माण सृष्टि में दो बार होता है। सर्वप्रथम व्यक्ति के मन मे और दूसरी बार वास्तविकता में। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप अपनी सोच की दिशा मोड़ सकते है। आप ऐसा कर ही नहीं सकते क्योंकि आप ऐसा करने में अक्षम है, दूसरी बात यदि आप ऐसा चाहेंगे भी तो अनायास आपका दिमाग आपकी सोच को उसी दिशा में ले जाएगा। मनोविज्ञान जिसे कहने के लिए तो विज्ञान की एक शाखा माना गया है ऐसे तर्क और प्रसंगों की व्याख्या करने में असफल रही है। हां, अपितु कई स्थानों पर धर्म एवं विश्वास को मनोविज्ञान में भी स्थान दिया गया है। अपने व्याख्यान में मैं अक्सर ही ऐसे सवालो का यथासंभव तर्क संगत उत्तर देता हूं। जैसे मेरे कई व्याख्यानों में मेरे स्वयं के विश्वास के बारे में पूछा गया कि क्या मैं भूतों में यकीन रखता हूँ? जिसका उत्तर प्रायः मेरे साइकोलॉजिकल ज्ञान से जुड़ा होता है। मैं सिर्फ एक ही बात कहता हूँ, "बिलीव एवरीथिंग, ट्रस्ट नथिंग" अर्थात विश्वास सभी पर करो मगर यकीन किसी पर नहीं। विश्वास और यकीन में एक बारीक अंतर होता है। यकीन धीरे-धीरे होने वाली एक क्रमागत प्रक्रिया है जबकि विश्वास एक क्षणिक घटना। मनुष्य की प्रकृति विश्वास करने की है यकीन करने की नहीं। व्यक्तित्व निर्माण का प्रथम अध्याय विश्वास से ही आरम्भ होता है। मसलन जब आप पहले पहल किसी से मिलते है तो उसके स्वभाव से आकर्षित हो सकते है क्योंकि व्यक्ति दिखावे पर जोर देता है। परंतु यह दिखावा दीर्घकालिक नहीं होता और जितना अधिक आप उस व्यक्ति के संपर्क में रहेंगे उसके गुण-दोष आपको नजर आने लगेंगे। एक दूसरे उदाहरण के अनुसार अगर आप किसी को बहुत अधिक नहीं जानते है फिर भी उस व्यक्ति के द्वारा किसी प्रकार का अनुरोध किये जाने पर आप उसके अनुरोध को स्वीकार कर लेते है क्योंकि आप उस पर विश्वास करते है भले ही उस व्यक्ति ने आपसे कुछ पैसे ही उधार क्यों न मांगे हो। आप उसे पैसे इसलिए नहीं देते है क्योंकि वह लौटा देगा उल्टा आपको तो इसका यकीन भी नही होता। परन्तु व्यक्ति द्वारा पैसे लौटा देना विश्वास को हटाकर यकीन को स्थापित कर देता है। अगली बार पुनः पैसे मांगे जाने पर आप उस व्यक्ति को बिना सोचे-समझे पैसे देने को तैयार हो जाते है। अब यदि वह व्यक्ति पैसे नही लौटाता है तो आपका यकीन उस पर से उठ जाता है। ठीक इसी प्रकार मैं ऐसी शक्तियों के अस्तित्व पर संदेह नहीं करता बल्कि यदि कोई मुझसे कहता है तो उसकी बात पर विश्वास अवश्य करता हूँ परन्तु मेरा स्वयं का अनुभव ऐसा नही होने के कारण मैं इसपर यकीन नही करता हूँ।
कमोबेश ऐसी ही मनोवृत्ति मनुष्यों की भी होती है यदि कोई लालसा या इच्छा किसी मन्नत व देवता के सामने रखने से पूरी हो जाती है तो वे उसे चमत्कार मानने लगते है अन्यथा या तो देव या ऐसी शक्तियों के आस्तित्व को संदेह की दृष्टि से देखते है। हां ये बात और है कि इनके इस विश्वास या अविश्वास का फायदा कुछ ढोंगी लोग उठाकर अपना उल्लू सीधा करते है।
शेक्सपियर, जॉन कीट और ऐसे अन्य पश्चिमी लेखक एवं कवि भी इस बात से अछूते नही रहे है। कुछ दावो के अनुसार कई पश्चिमी लेखक ऐसे सीक्रेट सोसाइटी का हिस्सा भी रह चुके है। एक किवदंती तो यह भी है कि शेक्सपियर जैसे साधारण लेखक को इतनी प्रसिद्धि का कारण उनके एक तांत्रिक दोस्त द्वारा दिया जादुई पेन था, जिसके बल पर उन्होंने इतने बेहतरीन नाटक लिखे। बात सिर्फ यहीं तक खतम नहीं होती, शेक्सपियर का सबसे विवादित नाटक मैकबेथ था। जिसमें चुडैलों का एक अहम किरदार भी था। ऐसा माना जाता है कि जिसने भी इसमें मुख्य किरदार निभाया या निभाने की कोशिश की उसके साथ कई अनहोनियाँ घटी। और अंततः यह किरदार स्वयं शेक्सपियर को निभाना पड़ा। शेक्सपियर की मृत्यु के बाद काफी बार इस नाटक के मंचन का प्रयास भी किया गया लेकिन बदकिस्मती ने इसका पीछा नहीं छोड़ा। शेक्सपियर की उस कलम की खोज भी बाद के वर्षों में कई लोगों द्वारा की गई परन्तु वह हासिल नहीं की जा सकी। अलबत्ता एक किवदंती यह भी मशहूर है कि आखिरकार शेक्सपियर ने उसे स्वयं ही तोड़ दिया था। परन्तु इस सच्चाई को कभी भी पूरी तरह अपनाया नहीं जा सका।
अब आपका विश्वास किसी शक्ति के होने या न होने के जुड़ा हुआ है और परन्तु प्रश्न वहीं का वहीं रहेगा, "टू बी ऑर नॉट टू बी"।
लेखक-देवशील गौरव
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