मानसिक द्वन्द


जल्दी ही भूल जायेंगे, बहुत शीघ्र ही सिर्फ एक नाम बनकर दफ़न हो जाते लोग और उनकी यादें. बाकी कुछ अगर रह जाता है तो केवल इतिहास के गर्द में लिपटी हुई एक भूली- बिसरी याद. तो फिर फर्क ही क्या पड़ता है अच्छे या बुरे होने में या फिर होने का आडम्बर करने में. कुछ लोगों को खुश करना और कुछ से दूर रहना तो वास्तविकता में दुनियादारी की एक छोटी सी रीत हो सकती है, परंतु वास्तविक जुड़ाव तो मन और विचारो का होता है. कौन भला जिंदगी भर बीती बातों और उचित-अनुचित का ख़याल करके जीवन भर उस याद को जीवित रखने की कोशिश करता है. कुछ लोगों के लिए विदाई हमेशा के लिए मुक्ति का जरिया होता है, जबकि कुछ के लिए यह सिर्फ भौगोलिक या सामयिक होती है. अंग्रेजी की कहावत 'आउट ऑफ़ साईट, आउट ऑफ़ माइंड' अर्थात जो चीज नजर आना बंद कर देंती है वह शीघ्र ही विस्मृत कर दी जाती है परंतु यह सन्दर्भ उन छणिक जुड़ावों के लिए तो सही साबित होता है जो सिर्फ देशकाल अथवा समयसीमा की परिधि से बंधे होते है परंतु उन लोगों के लिए जिनका जुड़ाव आध्यात्मिक अथवा वैचारिक होता है. और सच पूछा जाए तो केवल और केवल समय ही परख होता है जुड़ाव और जुड़ाव के कारणों का. न ही कोई व्यक्ति इतना समर्थवान होता है कि जुड़ाव के पीछे छुपे उस असली मंतव्यों को जान सके और न ही इनकी भविष्वाणी की जा सकती है. वस्तुतः यह रहस्योघाटन केवल समपर्यन्त ही संभव होता है. जुड़ाव और अलगाव के पीछे सिर्फ और सिर्फ दो ही कारक काम करते है:-हमारे अपने मत और दार्शनिकता.
जैसे जैसे जीवन मैं हम आगे बढ़ते है वैसे -वैसे हम अपने ज्ञान और विचारो को ही प्राथमिकता देने लगते है और दूसरे के विचार और ज्ञान गौड़ हो जाते है. उम्र के साथ साथ अड़ियल हो जाते है हम, और हमें दुनिया वैसी ही दिखती है जैसी हम देखना चाहते है. अब भले ही ऊपरी तौर पर हम अपने आप को कितना भी अलग सह्रदय,विचारशील और सज्जन दिखने की कोशिश क्यों न करें हमारे अन्तर्निहित व्यसन, अभिलाषाएं, आकांक्षाएं और मैं का दवानल भीतर सुशुप्तावस्था में क्यों न पड़ा हो परंतु वास्तविकता में कभी भी भड़क सकने वाली भयावह अग्नि की परणिति होती है. जहाँ व्यक्तिगत क्षति हो या जहाँ व्यक्तिगत आकांक्षाएं समान हो वहां प्रायः जुड़ाव हो ही जाता है. एक प्राचीन कहावत "खग जाने खग ही की भाषा" के अनुरूप समान व्यक्तिगत आकांक्षाएं लोगों को समीप लाती है, परंतु जब ही कभी किसी अन्य की अकांछाओं की पूर्ती हो जाती है तो अनायास ही दूसरे के मन में वियोग, असफलता,नाकारापन और हीनभावना जैसे कुरीतियां घर कर लेती है. विरक्ति की प्रबलता जोर मारने लगती है. एक अजीब सी छटपटाहट और बेचैनी अन्य व्यक्तियों को घेर लेती है और जुड़ाव का अंत हो जाता है. कल तक आँखों का तारा अगले ही पल में आँख का नासूर बन जाता है. असफल व्यक्ति अपनी कमियों को छिपाने के लिए दूर भागने लगता है, वह इस बात को सिरे से नकारने लगता है कि उसकी खुद की काबिलियत और हुनर में कुछ कमी है, बल्कि ईर्ष्या का पर्दा उसके विवेक को ढक लेता है और अच्छे -बुरे का फर्क सिर्फ शाब्दिक रह जाता है. कुछ लोग समयपर्यंत इस बात को सहर्ष स्वीकार कर आगे बढ़ जाते है, जबकि कुछ लोगों के लिए जीवन वही ठहर जाता है. व्यक्तिगत अपेक्षाएं पूरी न हो पाने का मलाल साल दर साल उन्हें कचोटता रहता है. अलगाव की भावना बलवती होने लगती है, अब जब अवसर हाथ से निकल चुका होता है ऐसे में नए अवसर की तलाश करना या उसके मुताबिक खुद को ढाल पाना असंभव हो जाता है. व्यक्ति अपने समाज से कटने लगता है. हर किसी में उसे अपनी असफलता का अक्स दिखाई देता है और वह व्यक्ति स्वयं की नजरों में खुद ही गिर जाता है.  



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