मृत्यु और भय


जीवन और मृत्यु के बीच की एक अहम् कड़ी है डर. शिव मृत्युंजय है क्योंकि शिव ने मृत्यु के भय पर जीत पायी है. जीवन आरम्भ होने के साथ ही डर का प्रारम्भ हो जाता है, और यही डर जीवन पर्यन्त चलता रहता है. डर ही दुखों का मूल है, जिसने भय पर विजय प्राप्त कर ली वह स्वयं ही मृत्युंजय हो जाता है. वास्तविकता में मृत्यु ही सबसे बड़ा भय है. ये मत करो, वहां मत जाओ, उससे मत मिलो और ऐसे ही न जाने कितने अनगिनत भय रोज ही पैदा होते है. अपनों को खोने के डर से अनिक्षा पूर्ण सहमति, अत्यधिक परवाह करना, भविष्य को लेकर अनिश्चित रहना ये सब अनदेखे और कपोल जनित भय ही तो है. एक अस्पताल में हाल ही में शोध किया गया कि मृत्य शैय्या पर पड़ा व्यक्ति आखिर क्या सोचता है? अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सो का इंटरव्यू करने पर पता चला कि हर मरने वाले अपने अधूरे छोड़े गए कार्यो, या फिर ऐसे कार्य जो किसी कारणवश नहीं शुरू कर पाए उनको लेकर सशंकित थे, कुछ अपनी गलतियों का पश्चाताप कर रहे थे, वही कुछ लोगों को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना करने का भी मलाल था.
ज्ञान तो मिला परंतु उम्र निकल गयी और इस ज्ञान की महत्ता को दूसरा तभी समझेगा जब स्वयं उसी परिस्थिति में होगा. परंतु क्या ज्ञान मात्र से भय से छुटकारा संभव है? नहीं, क्योंकि फिर उस ज्ञान का उपयोग करने का समय ही कहाँ मिला. बल्कि ज्ञान की प्राप्ति से एक नए भय की उत्पत्ति जो हो गयी, मेरे बाद मेरे परिवार का क्या होगा? अभी तो बच्चे ढंग से सेटल भी नहीं हुए है? बेटी की शादी नहीं कर पाया? और तो और एक मकान तो अपना बना लिया होता. पत्नी का क्या होगा? वगैरह वगैरह. शायद मुझे और थोड़ा समय मिल जाता, शायद इस बात को लेकर मैं पहले ही संजींदा होता. और फिर जीवन के अंतिम छड़ो में अर्जित ज्ञान विस्मृत हो जाता है. महाभारत में श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान तो दिया परंतु फिर भी सशरीर स्वर्ग पहुंचे केवल युधिष्टिर. फिर ऐसे ज्ञान का क्या उपयोग? कमोबेश ऐसे ही न जाने कितनी ही बार हमारी अंतरात्मा हमे झकझोरती है, जगाने की कोशिश करती है परंतु हम व्यर्थ की शंकाएं पाल लेते है और उन्ही शंकाओ को ही ज्ञान की संज्ञा दे देते है. खुद के ही पैर में बेड़ी बाँध लेते है फिर असहाय होने का दिखावा करते है. हमारे डर हमारी काबिलियत और ज्ञान से बढ़कर हो जाते है और हम अपने डर को छिपाने के लिए वो होने या बनने का दिखावा करते है जो की वास्तविकता में हम होते नहीं है. हम अपने चारो ओर एक दीवार बना लेते है और विश्वास करते है उन दीवारों के पीछे हम सुरक्षित है. बहादुरी का ढोंग करते है, काबिलियत को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते है. खुश होने तथा सम्पूर्ण होने का स्वांग रचते है जबकि वास्तविकता में हम डरे हुए होते है. चाहते है लोग हमे पहचाने, हमसे डरे, हमारा वर्चस्व गूंजे परंतु हम सच सुनने और जानने से कतराते है. सच बोलने वालो का तिरस्कार करते है, बहिष्कार करते है और तो और उनका अहित तक करने से पीछे नहीं हटते.
सुकरात, ईसामसीह, और ऐसे ही अनगिनत महापुरुष जिन्होंने सच को अंगीकार किया उनका न केवल घोर विरोध हुआ बल्कि उनका जीवन ही संकट में पड़ गया. विरोध करने वाले भूल गए की जिस व्यक्ति ने भय पर विजय प्राप्त कर ली उसे भला मृत्यु का भय क्या होगा? शरीर नश्वर होता है और एक न एक दिन नष्ट हो ही जायेगा मगर विचार तो सदियों तक अमर रहेंगे.

आलेख- देवशील गौरव


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