भारत-पाक बंटवारे का किस्सा एक साहित्यिक दृष्टिकोण



प्रस्तुत उदाहरण ओशो के एक प्रवचन से उद्धत है हालांकि इसका उद्देश्य सर्वथा भिन्न है और उदाहरण का प्रयोग सिर्फ विषय वस्तु की श्रेष्ठता को बनाये रखना है, शेष विचार लेखक के स्वयं के है और मौलिक है।
हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बटवारे के दौरान एक पागलखाना भी बटवारे की जद में आ गया। अब चूंकि पागलखाना भारत और पाकिस्तान की सीमा पर था इसलिए अब उसका बंटवारा होना भी तय था, यही बात अगर किसी इबादतगाह के लिए, मकान के लिए या किसी संपत्ति के लिए होती तो लोग बाग या तो उसे गिरा देते या फिर लूट लेतेI बहरहाल, कुछ बुद्धिमानो ने पागलखाने का भी बंटवारा करने का फैसला किया, नतीजतन सीमा-रेखा के अनुसार ही पागलखाने में पागलो को अलग करने के लिए एक दीवाल बना दी गयीI 
गुजरते वक्त के साथ एक दिन दीवाल का ऊपरी कुछ हिस्सा टूट कर गिर गयाI दोनों तरफ के पागल बारी-बारी से दूसरी तरफ झांकते और ये सोच कर आश्चर्यचकित होते कि दूसरी तरफ भी वैसा ही कुछ है जैसा इधर और फिर जैसे पहले था. पागल खुश होकर, ताली बजा-बजा कर एक दुसरे से कह रहे थे कि ये लोग भी अजीब है पागल हमें बोलते है और पागलपन खुद करते हैI सच भी है, इस बंटवारे से आखिर उन्हें क्या मिला, आखिर क्या फर्क पड़ा उन पर? मित्रो, यही प्रश्न मैं और आप अक्सर अपने आप से पूछते है मगर जवाब वही सिफरI अपने इसी सवाल का जवाब ढूंढते-ढूंढते आखिर मैं मुखातिब हुआ उस दौर के कुछ लेखको, कलमकारों से और उनकी आप बीती मैं इस लेख के माध्यम से आपके साथ साझा करना चाहूँगाI

उस दौर के प्रसिद्द शायर मोमिन खान मोमिन से जब लोगों ने कहा की मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया जा रहा है और हमे इस गैर मुल्क को छोड़ कर वहां चलना चाहिए, तो मोमिन ने बहुत ही उम्दा सा जवाब देते हुए एक शेर कहा,

उम्र सारी कटी इश्क-ए-बुतां में मोमिन,
आखरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसल्मा होंगेI     

हालाँकि बाकी नामचीन लेखको जैसे सादत हसन मंटो को मजबूरी की वजह से पाकिस्तान जाना पड़ा, ऐसा कहा जाता है की मंटो अपना बसा बसाया काम और कामयाबी छोड़ कर नहीं जाना चाहते थेI मगर अपनी बेगम की जिद के आगे उनकी एक न चली और वो पाकिस्तान चले गएI गौरतलब बात ये भी है कि उस समय मंटो न सिर्फ पत्र-पत्रिकाओं बल्कि फ़िल्मी जगत में भी अपनी लेखनी की धाक जमा चुके थेI हाँ मगर ये बात अलग है कि वह इसे पेशे के तौर पर पूरी तरह अपना न सके और ताउम्र मुफलिसी में ही जिन्दगी बसर कीI हालंकि,पाकिस्तान में उनका इस्तेकबाल तो शुरू-शुरू में जरूर हुआ, मगर अपनी बेबाक राय रखने के लिए मशहूर मंटो पर फिरकापरस्त होने का इल्जाम लगाI तमाम रोक-टोक भी लगायी गयी, कामकाज ठप्प हो गयाI कोई भी उनके लेख छापने को भी तैयार नहीं, मुकद्दमे चले और उस पर से यह भी इल्जाम लगा की अपने रिश्तेदारों की जमीन हड़पने के लिए वो पाकिस्तान आयेI और इसी बात का उन्हें जीवन भर पछतावा रहाI
इन्ही की तरह मशहूर शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी भी पाकिस्तान चले गए थे और फिर एक दिन सवेरा नामक पत्रिका जिसके वे खुद संपादक थे,में छपे उनके एक लेख से नाराज होकर पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारंट तक निकाल दिया थाI उसी समय की बात है एक नामी फिल्म डायरेक्टर और उपन्यासकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने इंडिया वीकली में उन्हें एक खुला ख़त लिखाI जिसमे उन्होंने लिखा था कि जब तक वो अपना नाम नहीं बदल लेते भारतीय शायर के नाम से ही जाने जायेंगेI हाँ ये बात अलग है अगर पाकिस्तान भारत पर हमला करके लुधियाना पर कब्ज़ा कर लेI बात फैलते-फैलते साहिर लुधियानवी के पास भी पहुंची और इस बात ने उन पर इतना गहरा प्रभाव डाला की वो अपनी माँ के साथ भारत आ गएI 
क्या वास्तव में मुल्को के बटवारे से कुछ हासिल हुआ तो जनाब इसका जवाब भी खुद इस बंटवारे के पैरोकार और पाकिस्तान के जनक मुहम्मद अली जिन्ना के शब्दों में सुन लीजिये:-
"मुसलमान मूर्ख थे जो उन्होंने अलग राष्ट्र की मांग रखी और हिन्दू उनसे भी बड़े मूर्ख थे जिन्होंने इसे स्वीकार कर लियाI"
ये अलग बात है की जिन्ना शुरुआत में सेक्युलर ह थे, मगर हालातो और पारिवारिक कष्टों, जिनमे उनकी बेटी की म्रत्यु भी शामिल थी उन्हें रेडिकल बना दियाI हालाँकि उन्हें अपनी भूल का अहसास भी हुआ और इसी कारण से उन्हें अपनी इस भयंकर भूल का जीवन पर्यंत अफ़सोस रहाI 

ये बात आज के सन्दर्भ में और भी ज्यादा प्रासंगिक इसलिए हो जाती है क्यूंकि भले ही हम अपनी देशभक्ति का बखान क्यूँ न करते फिर रहे हो, असलियत तो बस सिर्फ इतनी सी है की हम उन पागल खाने के पागलो से भी गए-गुजरे है जो सिर्फ बटवारे को ही सब कुछ समझते हैI और तो और कलाकारों, साहित्यकारों तक में विभेद करना क्या यहीं तक सोच सीमित होगई है हमारी? क्या वास्तव में हम अपनी संस्कृति के "वसुधैव कुटुम्बकम" के मूल मन्त्र को भूल चुके है? 

आलेख-देव्शील गौरव 

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