ईश्वर एक खोज
प्रसिद्ध लेखक और नाटककार शेक्सपीयर के एक नाटक जूलियस सीज़र के एक संवाद है कि जब कोई गरीब मरता है तो कोई भी पुच्छल तारा आकाश में दिखाई नही देता परन्तु यदि कोई राजकुमार की मृत्यु होती है तो स्वयं आकाश भी जल उठता है। बचपन में जब मैंने जूलियस सीज़र का यह नाटक पढ़ा तो अनचाहे ही नाटक का यह संवाद मेरे मन-मस्तिष्क में एक अमिट छाप छोड़ गया। संभवतः अन्य लोगों की भांति ही अक्सर ही मेरे जेहन में यह विचार गाहे-बगाहे गूंजता रहा कि क्या वास्तव में ईश्वर है? और यदि है तो कभी-कभी वो इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है? क्या वास्तव में जैसा शेक्सपीयर ने अपने नाटक के उस संवाद में कहा है कि ईश्वर केवल अमीरों या समृद्ध लोगो की प्राथनाएं सुनता है वास्तव में वो वैसा ही है। गुजरते समय के साथ अक्सर ही ऐसा लगता है कि वास्तव में शेक्सपीयर सही कहते है। ठीक ऐसा ही मानना पेरियार का भी था, उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि जो ईश्वर भूखे व्यक्ति को भोजन दिला नही सकता ऐसे भगवान के अस्तित्व पर उन्हें भरोसा नहीं है। वास्तविकता में देखा जाए तो यह एक कड़वी सच्चाई है कि मनुष्य ने ही ईश्वर को गढ़ा है और यह उसकी कपोल कल्पना का एक हिस्सा है। भारतीय मूल के एक अन्य प्रसिद्ध लेखक अमीश ने अपने पहले उपन्यास इममोर्टल ऑफ मेलुहा (मेलुहा के मृत्युंजय) और बाद की इसकी अन्य कड़ियों, सीक्रेट्स ऑफ नागास (नागाओं का रहस्य) और ओथ ऑफ वायुपुत्रास (वायुपुत्रो की शपथ) में भी शिव को एक साधारण व्यक्ति की भांति दर्शाया है। यही नहीं उन्होंने शिव के एक साधारण व्यक्ति से असाधारण देव बनने की प्रक्रिया को भी बहुत बखूबी से पेश किया है।
जब भी हम किसी व्यक्ति की असमय मृत्यु या दुःखो के बारे में सुनते या देखते है तो यह यक्ष प्रश्न फिर से हमारे सम्मुख आ खड़ा होता है कि क्या वास्तव में ईश्वर है? और अगर है तो फिर कुछ लोगों के लिए इतना निष्ठुर क्यों है? क्या ईश्वर अंधा और बहरा है जिसे ऐसे लोगों का दुःख-दर्द दिखाई और सुनाई नहीं देता? और यदि ये उस व्यक्ति के पूर्व जन्मों का फल है तब तो निसंदेह ईश्वर एक निहायतन मूर्ख प्राणी ही होगा, जो किसी और परीक्षा के परिणाम के आधार पर किसी अन्य कक्षा के परिणाम का निर्धारण करता है। वास्तव में देखा जाय तो ईश्वर केवल गरीबों को सांत्वना देने का एक उपक्रम मात्र है। जिसका काम केवल गरीबों और शोषितों को एक भ्रम में रखना और मूर्ख बनाना ही है। मनुष्य की उत्पत्ति के साथ ही विकास के क्रम में जिस विषय को सबसे महत्वपूर्ण समझा गया वो समाज के ज्वलंत समस्याओं को सुलझाना या विकास केंद्रित न होकर विभिन्न वर्गों एवं समाज को एकजुट करके रखने का था। गौरतलब है विकास की प्रक्रिया में जब व्यक्ति ने प्रकृति में होने वाली घटनाओं का अर्थ निकालने में विफल रहा तो उसने ऐसी घटनाओं को चमत्कार मानकर एक कपोल कल्पना को शक्ति का स्रोत माना। बिजली का चमकना, बादलो का गरजना, बारिश का होना हो या फिर अन्य प्राकृतिक घटनायें सभी उस शक्ति द्वारा संचालित मानी जाने लगी। यही नहीं विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं को ईश्वर के प्रकोप के रूप में जाना जाने लगा और उस शक्ति को प्रसन्न करने हेतु विभिन्न कर्मकांडो का सहारा लिया गया। उस दौरान ऐसी भी मान्यता प्रचलित हुई कि मनुष्यो के खेतों में रति क्रम करने पर उन्ही के देखा-देखी फसलों में यही क्रिया दोहराई जाएगी, जिससे फसल अच्छी होगी। हालांकि ऐसा हुआ नहीं और बाद में इस मान्यता को सिरे से नकार दिया गया।
इतिहासकार ए.ओ.हयूम ने जिस प्रकार कांग्रेस की परिकल्पना सेफ्टी वाल्व से की है ठीक वैसे ही धर्म की स्थापना का उद्देश्य अमीरों और गरीबों, शोषित और आततायी और समाज में न्याय व्यवस्था बनाये रखने के लिए किया गया था। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु विभिन्न नियम और नीति बनाई गई। धर्म की शिक्षा को कहानियों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाया गया। व्यक्तियों को धर्म के नाम पर डराया गया और नैतिक एवं अनैतिक कार्यो का निर्धारण किया गया। लोगो में यह विचार प्रमुखता से प्रचारित किया गया कि यदि कोई व्यक्ति समाज में पिछड़ जाता है अथवा शोषित होता है फिर भी उसे ईश्वर के नियमों पर भरोसा रखना चाहिए। समाज पक्षपाती हो सकता है परंतु ईश्वर नहीं। और इसका निर्णय ईश्वर के द्वारा लिया जाएगा। यह निर्णय व्यक्ति के जीवनकाल में हो सकता है अथवा उसकी मृत्यु के बाद। ठीक ऐसे ही अन्य मत व्यक्ति के पूर्वजन्म एवं कर्म, शकुन-अपशकुन, आशीर्वाद-शाप इत्यादि से भी जुड़े है। ज्ञानतव्य हो, इन सभी मतो एवं शिक्षाओं का एकमात्र उद्देश्य व्यक्तियों एवं समुदायों के मध्य होने वाले परस्पर संघर्ष को रोकना था। परंतु एक पीढ़ी के विश्वास ने दूसरी अन्य आने वाली पीढ़ियों हेतु परंपरा का स्वरूप धारण कर लिया। कर्मकांडों के बढ़ते प्रभाव ने समाज में एक नई व्यवस्था को जन्म दिया जिसमें संघर्ष की प्रवित्ति भले ही न हो परंतु जिजीविषा की प्रचुरता विद्यमान थी। कहना मुश्किल है कि क्या इस व्यवस्था से लाभ अधिक है या फिर नुकसान। जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आने के बावजूद भी व्यक्ति का जीवन के संघर्षों से जूझते रहने की प्रवित्ति परंतु ठीक इसके विपरीत यह व्यक्ति की जीवन में आगे बढ़ने या कुछ उपलब्धि अर्जित करने की क्षमता को ही कम कर देता है।
इस प्रकार यह कहना सर्वथा उचित होगा कि धर्म के लचीले स्वरूप ने इसे जनलोकप्रिय बनाया वही कठोर स्वभाव ने इसे धार्मिक कट्टरता का स्वरूप प्रदान किया। जो धर्म जितना लचीला है वह उतना ही अधिक समय तक स्वयं को जीवंत बनाये रखेगा अन्यथा समाप्त हो जाएगा।
लेख-देवशील गौरव
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