एक भाग्यवादी सोच
क्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम, देवो न जानपी,मनुष्यो कृतो. अर्थात क्रिया चरित्र और पुरुष के भाग्य को देवता भी नहीं जान सकते है फिर भला मनुष्य की बिसात ही क्या? वास्तव में मेरे इस लेख का प्रयोजन भाग्यवादी सोच को बढ़ावा देने का नहीं है परंतु कहीं न कहीं हम सभी की सोच 'भाग्य वादी" हो ही जाती है. कर्मपरायण लोग सिर्फ कर्म के महत्त्व को ही सब कुछ मानते है जबकि कहीं न कहीं कर्म के साथ भाग्य का जुड़ाव ही उन्हें सफल या असफल बनाता है. और भले ही व्यक्ति कितना भी कर्मपरायण क्यों न हो समयपर्यन्त भाग्यवादी हो ही जाता है.आखिर क्यों पूजते है हम देवी देवताओ को? व्रत, उपवास, दान, पुण्य सब इसी लिए तो है. अगर मेरा फलां काम हो गया तो तीर्थ करने जाऊँगा, परीक्षा में पास हो गया तो सवा किलो शुद्ध देसी घी के लड्डू चढ़ाऊंगा वगैरह वगैरह. उस पर भी अगर सफलता न मिली तो दोष किसका? छत्तीस कोटि देवी देवताओ में से अगर एक आध की मनुति मानने के बावजूद भी अगर पूरी न हो तो क्या हम भगवान् को मानना छोड़ देते है नहीं न? फिर हो सकता है किसी और देवी देवता की आराधना करने लगे और अगर वहां से भी असफल ह