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प्रेम की तलाश

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कक्षा में एक छोटे बच्चे से अध्यापिका से प्रश्न किया , " मैम , प्यार क्या होता है ?" अध्यापिका ने एक एक पल सोचने के बाद गेंहू के खेत की तरफ इशारा करते हुए बच्चे से कहा की , " गेंहू की सबसे बड़ी बाली को ले आओ . मगर शर्त ये है कि एक बार तुम खेत में अंदर चले जाओगे , तो वापस पीछे आकर बाली नहीं चुन सकते हो ." बच्चे ने कहे अनुसार किया . लौटकर आने के बाद अध्यापिका ने बच्चे का अनुभव पूछा . बच्चे ने कहा , " सबसे पहले मुझे एक लंबी बाली दिखी , मगर मुझे लगा शायद आगे खेत में मुझे इससे भी बड़ी बाली मिले . इसी उम्मीद में मैंने उसे छोड़ दिया , मगर आगे जाकर मुझे एहसास हुआ कि सबसे बड़ी बाली तो मैं पहले ही छोड़ आया हूँ ." अध्यापिका ने उसे समझाते हुए कहा , " ठीक ऐसा ही कुछ प्यार के साथ होता है . हमें लगता है हमें इससे भी अच्छा , इससे भी बेहतर कोई मिलेगा . और हम जीवन में आगे बढ़ जाते है . लेकिन कुछ समय बाद हमे एहसास होता है

मृत्यु और भय

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जीवन और मृत्यु के बीच की एक अहम् कड़ी है डर. शिव मृत्युंजय है क्योंकि शिव ने मृत्यु के भय पर जीत पायी है. जीवन आरम्भ होने के साथ ही डर का प्रारम्भ हो जाता है, और यही डर जीवन पर्यन्त चलता रहता है. डर ही दुखों का मूल है, जिसने भय पर विजय प्राप्त कर ली वह स्वयं ही मृत्युंजय हो जाता है. वास्तविकता में मृत्यु ही सबसे बड़ा भय है. ये मत करो, वहां मत जाओ, उससे मत मिलो और ऐसे ही न जाने कितने अनगिनत भय रोज ही पैदा होते है. अपनों को खोने के डर से अनिक्षा पूर्ण सहमति, अत्यधिक परवाह करना, भविष्य को लेकर अनिश्चित रहना ये सब अनदेखे और कपोल जनित भय ही तो है. एक अस्पताल में हाल ही में शोध किया गया कि मृत्य शैय्या पर पड़ा व्यक्ति आखिर क्या सोचता है? अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सो का इंटरव्यू करने पर पता चला कि हर मरने वाले अपने अधूरे छोड़े गए कार्यो, या फिर ऐसे कार्य जो किसी कारणवश नहीं शुरू कर पाए उनको लेकर सशंकित थे, कुछ अपनी गलतियों का पश्चाताप कर रहे थे, वही कुछ लोगों को अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना करने का भी मलाल था. ज्ञान तो मिला परंतु उम्र निकल गयी और इस ज्ञान की महत्ता को दूसरा तभी समझेगा

टटपूंजिये स्टार्ट अप और भारतीय अर्थव्यवस्था

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दिसंबर का महीना आमतौर पर अमेरिका में खरीदारी के लिए सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है, और जहाँ एक तरफ बड़ी बड़ी कंपनिया स्टॉक क्लीयरिंग सेल का बोर्ड लगा कर अच्छा ख़ासा डिस्काउंट देती है वही दूसरी तरफ आम जनता के लिए अपनी पुरानी चीजों का परित्याग करके, न सिर्फ सस्ते दामों पर अपनी पसंदीदा सामान खरीद लेते है बल्कि अपनी जमापूंजी का सदुपयोग भी कर लेते है. और अगर ईयर एंडिंग सेल की बात दरकिनार भी कर दी जाए तो भी नयी कंपनियों के लिए ये एक सुअवसर से कम नहीं होता कि वे इस पवित्र महीने (जीसस क्राइस्ट के जन्मदिन के कारण) अपने प्रोडक्ट की लॉन्चिंग करे. हालांकि ऐसा हर प्रोडक्ट की लॉन्चिंग के लिए शुभ हो ऐसा जरूरी नहीं, गौरतलब है कि इसी तरह के पूर्वाग्रह कि शिकार अमेरिकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट भी हो चुकी है जिसने विंडोज 7 का आगाज दिसम्बर महीने में किया. भले ही प्रोडक्ट उतना सफल नहीं रहा परंतु अमेरिकी कंपनिया और वहां कि जनता में इस पवित्र महीने को लेकर क्रेज कुछ ज्यादा ही है. कमोबेश यही परिस्थितियां इस बार भारतीय बाज़ारों में भी है परंतु यहाँ इस रुझान का कारण कुछ और न होकर बल्कि नोटबंदीकरण से जुड़ा हुआ है. जहाँ

क्या वास्तव में नोटबंदी से वापस आएगा कालाधन?

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विगत 8  नवंबर को प्रधानमंत्री द्वारा लिए गए नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले का मिलाजुला असर देखने को मिल रहा है. जहाँ एक तरफ कुछ लोग इसके विरोध में है वहीँ कुछ लोग इसका समर्थन भी कर रहे है. हालांकि जहाँ एक तरफ सरकार के इस फैसले से विपक्छ लामबंध होकर हर आड़े-टेढ़े हथकंडे अपना कर सरकार को घेरने की हर संभव प्रयास कर रहा है वहीँ सरकार अपने पूर्ववत निर्णय पर अड़ा हुआ है. दूसरी तरफ इन सब से इतर आम जनता है जो अपनी मजबूरी पर अच्छे दिन आने के सपने संजो रही है. भले ही आप इस निर्णय से खुश हो या नहीं. सहमत हो या नहीं परंतु यहाँ एक यक्ष प्रश्न नोटबंदी से कालेधन की वापसी का है, क्या वास्तव में नोटबंदी से कालाधन वापस आ जायेगा? सिर्फ अगर मीडिया और रिपोर्ट्स की बात की जाए तो अनुमानतः लगभग 4 लाख करोड़ रुपये अभी बैंको में जमा हुआ है जबकि सिर्फ 1 हज़ार करोड़ रुपये ही लोगों को बदली  कराये है.इस बाबत जहाँ बैंको में तरलता (लिक्विडिटी) बढ़ी जिसके कारण बैंको की लोन देने की छमता भी बढ़ गयी है और यस. बी. आई. समेत कई बैंक या तो ब्याज दरों में कटौती कर चुके है या फिर तैयारी कर रहे है. और लोन रेट कम हुए है जिनका निसंदेह

दूरसंचार का सच

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विगत कुछ वर्षो में जब ट्राई (TRAI) की ओर से एक आधिकारिक बयान दिया गया था. जिसमे देश में बढ़ती हुयी टेलीकॉम प्रतिस्पर्धा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया था कि अगर प्रतिस्पर्धा की इस खतरनाक प्रवित्ति पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब टेलीकॉम कंपनिया अपना स्वयं का नुक्सान कर लेंगी. और इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की पारस्परिक बढ़ती प्रतिस्पर्धा का फायदा उपभोक्ता को मिला. गौरतलब है की पिछले कुछ वर्षो में टेलीकॉम कंपनियों की प्रतिस्पर्धा सिर्फ वॉइस कालिंग रेट, मेसेजिंग सर्विसेज और रोमिंग दर को ही केंद्रित रख कर निर्धारित की गयी. हालाँकि बीतते वक़्त के साथ बीएसएनएल जैसे सरकारी उपक्रम का रोमिंग फ्री प्लान ने अगले नए वॉर की न सिर्फ शुरूआत भर की बल्कि बीएसएनएल जैसी मृतप्राय कंपनी को मानो एक मृत संजीवनी दे दी. प्रत्यक्छ रूप से बीएसएनएल के इस नए प्रयोग का कोई सीधा फायदा भले ही उतना न रहा हो परंतु निसंदेह यह उन लोगो के लिए बहुत फायदेमंद रहा जो प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते है. अब चूँकि संचार माध्यमो में प्रगति को हम दूरसंचार की क्रांति से जोड़ कर देख रहे है ऐसे मे

फिल्मों की राजनीति

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किसी ने क्या खूब कहा है कि फिल्मे जिंदगी का अक्स होती है और जिंदगी फिल्मों का अक्स. मतलब जो आप परदे पर देखते है वो कहीं न कहीं हकीकत का ही इक अंश होता है. सुनने में जितना अच्छा लगता है देखने में भी उतना ही अच्छा लगता है मगर जब बात सियासत की आ जाती है तो जो अच्छा लगता भी है उसमें खोट नजर आने लगता है. ठीक ऐसा ही कुछ वाकया देशभक्ति से भी जुड़ा है और इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बात में मुझसे इत्तेफाक रखने वाले भी बहुत कम ही होंगे. खैर सबा अफगानी का एक शेर नज़र करता हूँ-                                                                                            "वो पुर्सिश-ऐ-ग़म को आये हैं कुछ कह न सकूँ चुप रह न सकूँ                                                     ख़ामोश रहूँ तो मुश्किल है कह दूँ तो शिकायत होती है"  उन दिनों दूरदर्शन सिर्फ कुछ ख़ास लोगों तक ही सीमित था और अगर धार्मिक या पौराणिक सिरियलों को छोड़ दिया जाये तो सबसे ज्यादा जिसने लोगों को प्रभावित किया जो संभवतः आज भी कहीं-कहीं देखने को मिलती है वो थी देशभक्ति की फिल्में. जितना रोमांच और देशभक्ति इन फिल्मों को देख

अपनी- अपनी ढपली अपना-अपना राग

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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ऐसा मैंने समाजशास्त्र में पढ़ा था और बहुधा यही तर्क और बात गाहे-बेगाहे सही भी प्रतीत हुयी. लेकिन आज जब मैं इस बात को सोचता हूँ तो लगता है की किताबी बातें महज सतही ही होती है वरना समाज की वास्तविक रूपरेखा जैसी आज हम देखते है क्या वास्तविकता में वैसी ही है? संभवतः नहीं क्योंकि समाज के लिए निर्धारित मापदंड बेमानी से लगते है. आजसे लगभग नौ साल पहले जब मैं ब्रसेल में अपने अध्ययन के सिलसिले में गया हुआ था. ठीक उसी समय सेकंड लाइफ नामक सोशल नेटवर्किंग साइट का चलन जोर पकड़ रहा था. और मुझे यह बात कहते हुए कतई भी गुरेज नहीं है की अन्य लोगों की भाँती मैं भी इसका सदस्य बना. गौरतलब बात यह है की सेकंड लाइफ ने आदमी की पहचान को एक छदम आवरण दिया और साथ ही उन्हें अपनी निजता छिपाकर वह सभी काम करने की आजादी दी जो शायद वास्तविक जीवन में या तो वह करने में सछम नहीं थे अथवा शायद वास्तविक जीवन में उन्हें करने की इजाजत समाज नहीं देता. एक संभावित सा प्रश्न मेरे दिमाग में पहले- पहल कौंधा की आखिर ऐसा एक मंच(प्लेटफॉर्म) तैयार करने की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ी? अन्य लोगों की अपेछा मैं अपन