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Showing posts from 2017

Ad sense

off late an advertisement went on air of a famous job portal, mocking designation hierarchy through manipulating jargon CEO and they made it career enhancement officer. Although manipulation and degradation of organizational structure and it's terminology is not new. Way back when a steep slow down of sales of intangible products triggered. Research groups were designated the responsibility to find the reasons of this down fall. Since the major contribution of sales lead of these tangible products were generated through cold calls and people had fed up attending these pesky calls searching for sales prospective. Unlike today TRAI has not been given more teeth to curb on such calls and call blocking was not a great feasible solution as every time the sales person calls from a new number and the telecom companies use to sell users data to these marketing companies like insurance and real state. Undoubtedly they still do up to certain extents. Moreover it portrayed a wrong image of

Winds from the west

Though I am not quite a movie buff but off late a series of Hollywood flicks draw my attention of the changing pattern of the film making. If I ask you what is so different in Hollywood and rest of the movie industries, you probably would have umpteenth reasons to advocate it but this time it is not about producer, directors, actors or cinematography but the heart robbed story line. Missed you already, seven pound, the fault in our Stars and concussion were the flicks that changed the entire equation of the industry,  forget about the whooping collections of overrated movies like bahubali and kabaali alone. Bahubali was a hit because of typical mythological blend story line where as before kabaali there were list of movies of Rajnikant which actually did not go well. And with the dwindling collection of Rajni anna's movies, the followers decided to gift Anna by making Kabaali super hit. Unfortunately where in the rest of the industries only collection is the parameter of success

प्रेम और विवाह

एक पुराना व्यंग है, एक व्यक्ति भगवान् से पूछता है कि हे प्रभु आपने स्त्रियों को इतना सुन्दर तो बनाया परन्तु उन्हें इतना मूर्ख क्यों बनाया? भगवान् ने उत्तर दिया, मैंने तो सिर्फ स्त्रियाँ बनायीं थी, उन्हें औरत (महिला) तो तुमने बनाया। दूसरी बात, मैंने उन्हें सुन्दर इसलिए बनाया ताकि तुम उन्हें प्यार कर सको। और मूर्ख इसलिए ताकि वे तुमसे प्यार/ विवाह कर सके। मेरी एक मित्र का तो यह लगभग तकिया कलाम ही बन गया था, “औरत पैदा नहीं होती, बनायीं जाती है। ” हालाँकि के मेरा यह लेख स्त्री-पुरुष के सांसारिक जीवन और उनके प्रेम पर आधारित है। फिर भी इस प्रसंग का वर्णन करने का आशय केवल प्रेम और विवाह के मध्य केन्द्रित उस भ्रम से पर्दा उठाना था, जिसके कारण प्रायः जीवन में गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और कई बार तो यह परिस्थिति इतनी विकट हो जाती है कि जिसका अंत केवल विवाह विच्छेदन के रूप में ही परिलक्षित होता है। मेरा स्वयं का यह मानना है कि संभवतः इसका कारण जीवन में प्रेम का अभाव या अंत ही है। प्रेम जहाँ स्वार्थ विहीन होता है, वहीँ विवाह का आधार ही स्वार्थ पर टिका होता है।माता-पिता की देखभाल

A tube light that doesn’t work

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A tube light that doesn’t work Much awaited Eid gift turned useless due to over melodrama and subsequently a poor opening on festival day, it seems as audience forget to give  Eidi to Bhai, yes you guessed it right. It’s tube light which only flickered but did not illuminate. At times I really wonder that did Salman really care what script demands? And does Kabir Khan not give any suggestions to his friend to make the necessary improvisation in his skills rather changing the entire script accordingly. In a nutshell, the actor does fall on the script at all. And if you have seen Salman’s previous movies, you can easily find the similarity and monotonous acting pattern that seldom deliver something new. You would have observed that even in serious scenes he cracks the joke, uses rustic language and much more. In an interview, once he said that he considers Govinda as a great actor but he truly follows his style, is a matter of surprise but that is what he actually does. Anywa

Forced Advertisement

off late an advertisement went on air of a famous job portal, mocking designation hierarchy through manipulating jargon CEO and they made it career enhancement officer. Although manipulation and degradation of organizational structure and it's terminology is not new. Way back when a steep slow down of sales of intangible products triggered. Research groups were designated the responsibility to find the reasons of this down fall. Since the major contribution of sales lead of these tangible products were generated through cold calls and people had fed up attending these pesky calls searching for sales prospective. Unlike today TRAI has not been given more teeth to curb on such calls and call blocking was not a great feasible solution as every time the sales person calls from a new number and the telecom companies use to sell users data to these marketing companies like insurance and real state. Undoubtedly they still do up to certain extents. Moreover it portrayed a wrong image of s

गलती की परणीती

मेरे एक मित्र ने एक बहुत ही खूबसूरत बात एक दिन साझा की, "गलती आखिर कहाँ छिपी होती है? निर्णय लेने में अथवा परिस्थितयों में? उनकी बात बहुत ही प्रासंगिक लगी मुझे। वस्तुतः देखा जाये तो दोनों ही परिस्थितियों में गलती होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है क्यूंकि ये तो अपरिहार्य है, गलती होने की संभावना तभी होगी जब आप कोई कार्य करें अन्यथा अकर्मण्य होकर रहने से आप भले ही गलती करने अथवा गलत होने से बच जाये परन्तु आप का प्रयोजन तो शून्य ही रहेगा। मेरे एक मित्र से एक दिन अज्ञानता वश कुछ भूल हो गयी और उन्होंने सामाजिक लोकलाज के डर से मुझसे मिलने से परहेज करने लगे। काफी दिन तक ऐसे ही चलता रहा और उन्हें लगा की सब कुछ नियंत्रण में है। हाँ अलबत्ता जब कभी भी उनसे मुलाक़ात हुई और उस विषय में कोई प्रसंग चला तो जनाब बड़ी सफाई से बातें गोल कर जातें। मुझे भी उन पर पूरा ऐतबार था नतीजन कभी शक-सुबह की कोई गुंजाईश भी नहीं रही। ये बात अलग है कि कभी-कभी उन्हें विषय विशेष को लेकर इतनी ज्यादा बेचैनी हो जाती थी कि अजीब तरीके का व्यवहार करने लगते। मुझे बड़ा आश्चर्य होता परन्तु न तो वजह का पता था और न ह

Amorphous Amour

They first met in the campus. He was expecting to finish the class,  only a few minutes left. He walked to the staircase and leaned toward the banister while engrossed in his own thoughts. The serenity broke with a rippling feminine voice, 'Excuse me, would you care me to find section SA-2?' 'Humm, off-course we are in the same class. But I have never seen you in the class ever before?' He replied. the staircase was almost empty as they both reached a pretty early for the class. 'yes, in fact, I joined last day only. I guess I missed a lot of lectures, would you mind sharing your notes?She replied perplexedly. 'I would love to. By the way, your accent is a little different. Where are you from?' he asked. 'yes, you guessed it right, I am from Banaras.' she replied. 'me too from Lucknow.' he prolonged the discussion Meanwhile the class got over and they settled down. After a few more days their friendship almost crossed the threshold of the f

दो मुंह वाला आदमी

उसे किसी बात की चिढ़ या शायद नाराजगी थी वरना अक्सर ही कोई बिना वजह के क्यों अनायास ही आक्रोशित हो जाएगा। जितना मैंने उसे समझा वो वैसा तो बिल्कुल नही था जैसा वो दिखता था या फिर जैसा दुनिया उसे समझती थीं। एक असफल सनकी, जी हां संभवता यही सबसे उपयुक्त विशेषण होगा उसका चरित्र चित्रण करने के लिए परन्तु ऐसे ही न जाने कितने ही अन्य विशेषण उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए काफी होंगे। आदमी की अजीब फितरत में शुमार एक विशेष गुण उसके जजमेंटल होने का है, और भले ही हम व्यावहारिक और समझदार होने के चक्कर में चीजों को कितना भी ठोंक-बजा के क्यों न देखे। परन्तु जजमेंटल होने में हम सिर्फ सुनी -सुनाई बातों पर ही सहज यकीन कर लेते है। खास तौर पर जब हमें दूसरों का परीक्षण करना हो। मसलन अगर आपका पड़ोसी किसी के बारे में बोले कि फलां आदमी चोर है या मक्कार है तो क्या आप उसकी बातों का परीक्षण करने जाएंगे। अथवा मान लीजिए कि आपका कोई परिचित किसी लड़की या महिला के चरित्र पर उंगली उठता है, तो क्या आपका उस लड़की या महिला को देखने का नजरिया नही बदल जायेगा। सहज विश्वास और फिर उससे उपजी प्रतिक्रिया ही आपके दृष्

आखिर नाम में रखा क्या है?

नाम में क्या रखा है? ऐसा तो लोगों को बहुत बार कहते सुना है, और तो और मशहूर पश्चिमी लेखक शेक्सपियर ने ही यह कहा था जिसे आज कल लोग गाहे-बगाहे अपना तकिया कलाम बनाये फिर रहे हैI बहरहाल, हम भारतियों में एक बहुत बड़ी कमी है, बिना आगे-पीछे देखे किसी भी चीज को लपक लेने या अपना लेने से जुडी हुई, सो आज कल लोग अंधाधुंध पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण कर रहे हैI फैशन से लेकर पढाई-लिखाई, खेल-कूद सब पर पश्चिमीकरण हावी हो गया हैI अब भले ही कुछ टटपूंजिए लोग अपने-आप को शेक्सपियर का अनुचर ही क्यूँ न समझ ले, असलियत तो कुछ और ही हैI मसलन अब मेरे एक मित्र को ही ले लीजिये उन्हें मेरा नाम बहुत भाता हैI एक दिन कहने लगे कि नाम में कुछ अनूठापन, कुछ नयापन हो तो लगता है की परवरिश में काफी ध्यान दिया गया है, वरना कुछ लोग तो इतने फुरसतिया होते है कि बच्चो का कुछ भी नाम रख देते हैI उनकी बातें मुझे काफी रोचक लगी तो मैंने भी मजाकवश एक पुछल्ला जोड़ दिया, संभवतः मेरे माता पिता को भी संदेह था कि आगे चलकर ये कुछ बड़ा नाम कमा पाए या नहीं तो चलो इसका नाम ही बड़ा रख देते हैI लेकिन यकीन मानिये आपका नाम सिर्फ आपकी पहचान न होकर बहुत क

निंदक नियरे राखिये

जिस दिन सुना उसे कहते हुए कि मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ जो देश के काम आये, समाज के काम आए, मैं मन ही मन मुस्काया अपनी दाढ़ी के कुछ सफेद हो चुके लहराते हुए सफेद बालों का ख़याल करके सोचा, लगता है मियां अभी तक ख्वाबो की ही दुनिया में जी रहे हो शायद l वरना कौन भला इन पचड़ों में पड़ता है, उस पर से जब खुद न कुछ बन सके तो दुनिया को वनाने लगे। अब आप भले ही इसे मेरी तुक्ष्य मानसिकता कहे या फिर मेरी नकारात्मक सोच, परंतु वास्तविकता तो यही है। इसी वक्त के मुफीद ग़ालिब का एक शेर याद आ गया, "चली न जब कोई तदबीर अपनी ए ग़ालिब, तो हम भी कह उठे यारों यहीं मुकद्दर था"। अब जबकि आप मेरी बातों को मेरी मानसिकता और मेरी उस शख़्स से जलन के तौर पर देख रहे है तो यहाँ मैं आपके कुछ पूर्वाग्रह को दूर करना चाहूंगा, अव्वल तो यह कि दुनिया में कोई भी सम्पूर्ण नही है, समर्थवान भी नही है, मसलन कुछ न होने पर यह सोच कर खुद को और दूसरों को दिलासा देना की कुछ होने पर या समर्थवान बन जाने पर अमुक-अमुक काम करूंगा, और फिर कुछ बन जाने के बाद अपनी ही कही बातों को मूर्खता की संज्ञा देकर मजाक उड़ाना। आपको ये भी भली प्रकार य

भारत-पाक बंटवारे का किस्सा एक साहित्यिक दृष्टिकोण

प्रस्तुत उदाहरण ओशो के एक प्रवचन से उद्धत है हालांकि इसका उद्देश्य सर्वथा भिन्न है और उदाहरण का प्रयोग सिर्फ विषय वस्तु की श्रेष्ठता को बनाये रखना है, शेष विचार लेखक के स्वयं के है और मौलिक है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बटवारे के दौरान एक पागलखाना भी बटवारे की जद में आ गया। अब चूंकि पागलखाना भारत और पाकिस्तान की सीमा पर था इसलिए अब उसका बंटवारा होना भी तय था, यही बात अगर किसी इबादतगाह के लिए, मकान के लिए या किसी संपत्ति के लिए होती तो लोग बाग या तो उसे गिरा देते या फिर लूट लेतेI बहरहाल, कुछ बुद्धिमानो ने पागलखाने का भी बंटवारा करने का फैसला किया, नतीजतन सीमा-रेखा के अनुसार ही पागलखाने में पागलो को अलग करने के लिए एक दीवाल बना दी गयीI  गुजरते वक्त के साथ एक दिन दीवाल का ऊपरी कुछ हिस्सा टूट कर गिर गयाI दोनों तरफ के पागल बारी-बारी से दूसरी तरफ झांकते और ये सोच कर आश्चर्यचकित होते कि दूसरी तरफ भी वैसा ही कुछ है जैसा इधर और फिर जैसे पहले था. पागल खुश होकर, ताली बजा-बजा कर एक दुसरे से कह रहे थे कि ये लोग भी अजीब है पागल हमें बोलते है और पागलपन खुद करते हैI  सच भी है, इस बंट

बर्बादी के कगार पर खड़े भारतीय बैंक

अपने पुराने लेख में जहाँ मैंने नोटबंदी और उसके दीर्घकालिक प्रभाव तथा एक अन्य लेख जिसमे तात्कालिक बैंकिंग सिस्टम तथा उसकी दुर्दशा का हवाला दिया था को जब मैं हाल ही में बैंकिंग सिस्टम द्वारा लिए गए नए आधिकारिक निर्णयो का जब मैं से जोड़कर देखता हूँ तो मैं अपनी पुनः उसी बात का समर्थन करता हूँ की मौजूदा बैंकिंग नीतियां कितनी अदूरदर्शी और खामियों से भरी हुयी है. गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था कि नींव कहे जाने वाले बैंकिंग सिस्टम की इतनी दयनीय हालात के बावजूद केंद्रीय बैंक तथा सरकारी नीतियां किसी भी स्थायी समाधान को खोज पाने में न सिर्फ विफल साबित हो रही है बल्कि बैंको तथा कस्टमर को उनके हाल पर छोड़ देने के अलावा शायद की कोई अन्य विकल्प तलाश पाने में कामयाब रही है. हालिया उदारहरण स्वरुप यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक्स यूनियन (यूएफबीयू) की हड़ताल और बैंकिंग इंस्टिट्यूशन द्वारा मनमाना ट्रांसक्शन चार्ज वसूला जाना निसंदेह अपनी दुर्दशा की कहानी आप बयां कर रहा है. विगत दिनों में नए बैंकिंग नियम के मुताबिक खातेधारकों को एटीएम से सिर्फ 4 मुफ्त ट्रांसक्शन करने को मिलेंगे जो की पहले के पांच मुफ्त ट्रांसक्शन से कम ह

मानसिक द्वन्द

जल्दी ही भूल जायेंगे, बहुत शीघ्र ही सिर्फ एक नाम बनकर दफ़न हो जाते लोग और उनकी यादें. बाकी कुछ अगर रह जाता है तो केवल इतिहास के गर्द में लिपटी हुई एक भूली- बिसरी याद. तो फिर फर्क ही क्या पड़ता है अच्छे या बुरे होने में या फिर होने का आडम्बर करने में. कुछ लोगों को खुश करना और कुछ से दूर रहना तो वास्तविकता में दुनियादारी की एक छोटी सी रीत हो सकती है, परंतु वास्तविक जुड़ाव तो मन और विचारो का होता है. कौन भला जिंदगी भर बीती बातों और उचित-अनुचित का ख़याल करके जीवन भर उस याद को जीवित रखने की कोशिश करता है. कुछ लोगों के लिए विदाई हमेशा के लिए मुक्ति का जरिया होता है, जबकि कुछ के लिए यह सिर्फ भौगोलिक या सामयिक होती है. अंग्रेजी की कहावत 'आउट ऑफ़ साईट, आउट ऑफ़ माइंड' अर्थात जो चीज नजर आना बंद कर देंती है वह शीघ्र ही विस्मृत कर दी जाती है परंतु यह सन्दर्भ उन छणिक जुड़ावों के लिए तो सही साबित होता है जो सिर्फ देशकाल अथवा समयसीमा की परिधि से बंधे होते है परंतु उन लोगों के लिए जिनका जुड़ाव आध्यात्मिक अथवा वैचारिक होता है. और सच पूछा जाए तो केवल और केवल समय ही परख होता है जुड़ाव और जुड़ाव के कारणो

एक भाग्यवादी सोच

क्रिया चरित्रम पुरुषस्य भाग्यम, देवो न जानपी,मनुष्यो कृतो. अर्थात क्रिया चरित्र और पुरुष के भाग्य को देवता भी नहीं जान सकते है फिर भला मनुष्य की बिसात ही क्या? वास्तव में मेरे इस लेख का प्रयोजन भाग्यवादी सोच को बढ़ावा देने का नहीं है परंतु कहीं न कहीं हम सभी की सोच 'भाग्य वादी" हो ही जाती है. कर्मपरायण लोग सिर्फ कर्म के महत्त्व को ही सब कुछ मानते है जबकि कहीं न कहीं कर्म के साथ भाग्य का जुड़ाव ही उन्हें सफल या असफल बनाता है. और भले ही व्यक्ति कितना भी कर्मपरायण क्यों न हो समयपर्यन्त भाग्यवादी हो ही जाता है.आखिर क्यों पूजते है हम देवी देवताओ को? व्रत, उपवास, दान, पुण्य सब इसी लिए तो है. अगर मेरा फलां काम हो गया तो तीर्थ करने जाऊँगा, परीक्षा में पास हो गया तो सवा किलो शुद्ध देसी घी के लड्डू चढ़ाऊंगा वगैरह वगैरह. उस पर भी अगर सफलता न मिली तो दोष किसका? छत्तीस कोटि देवी देवताओ में से अगर एक आध की मनुति मानने के बावजूद भी अगर पूरी न हो तो क्या हम भगवान् को मानना छोड़ देते है नहीं न? फिर हो सकता है किसी और देवी देवता की आराधना करने लगे और अगर वहां से भी असफल ह

प्रेम की तलाश

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कक्षा में एक छोटे बच्चे से अध्यापिका से प्रश्न किया , " मैम , प्यार क्या होता है ?" अध्यापिका ने एक एक पल सोचने के बाद गेंहू के खेत की तरफ इशारा करते हुए बच्चे से कहा की , " गेंहू की सबसे बड़ी बाली को ले आओ . मगर शर्त ये है कि एक बार तुम खेत में अंदर चले जाओगे , तो वापस पीछे आकर बाली नहीं चुन सकते हो ." बच्चे ने कहे अनुसार किया . लौटकर आने के बाद अध्यापिका ने बच्चे का अनुभव पूछा . बच्चे ने कहा , " सबसे पहले मुझे एक लंबी बाली दिखी , मगर मुझे लगा शायद आगे खेत में मुझे इससे भी बड़ी बाली मिले . इसी उम्मीद में मैंने उसे छोड़ दिया , मगर आगे जाकर मुझे एहसास हुआ कि सबसे बड़ी बाली तो मैं पहले ही छोड़ आया हूँ ." अध्यापिका ने उसे समझाते हुए कहा , " ठीक ऐसा ही कुछ प्यार के साथ होता है . हमें लगता है हमें इससे भी अच्छा , इससे भी बेहतर कोई मिलेगा . और हम जीवन में आगे बढ़ जाते है . लेकिन कुछ समय बाद हमे एहसास होता है