प्रेम और विवाह




एक पुराना व्यंग है, एक व्यक्ति भगवान् से पूछता है कि हे प्रभु आपने स्त्रियों को इतना सुन्दर तो बनाया परन्तु उन्हें इतना मूर्ख क्यों बनाया? भगवान् ने उत्तर दिया, मैंने तो सिर्फ स्त्रियाँ बनायीं थी, उन्हें औरत (महिला) तो तुमने बनाया। दूसरी बात, मैंने उन्हें सुन्दर इसलिए बनाया ताकि तुम उन्हें प्यार कर सको। और मूर्ख इसलिए ताकि वे तुमसे प्यार/ विवाह कर सके। मेरी एक मित्र का तो यह लगभग तकिया कलाम ही बन गया था, “औरत पैदा नहीं होती, बनायीं जाती है।


हालाँकि के मेरा यह लेख स्त्री-पुरुष के सांसारिक जीवन और उनके प्रेम पर आधारित है। फिर भी इस प्रसंग का वर्णन करने का आशय केवल प्रेम और विवाह के मध्य केन्द्रित उस भ्रम से पर्दा उठाना था, जिसके कारण प्रायः जीवन में गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और कई बार तो यह परिस्थिति इतनी विकट हो जाती है कि जिसका अंत केवल विवाह विच्छेदन के रूप में ही परिलक्षित होता है। मेरा स्वयं का यह मानना है कि संभवतः इसका कारण जीवन में प्रेम का अभाव या अंत ही है। प्रेम जहाँ स्वार्थ विहीन होता है, वहीँ विवाह का आधार ही स्वार्थ पर टिका होता है।माता-पिता की देखभाल, स्वयं की देखभाल, वंश वृद्धि अथवा शारीरिक अकांक्षाओ की पूर्ती अगर विवाह के मूल से निकाल दिए जाये तो विवाह की प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाएगी। दूसरी तरफ एक यक्ष प्रश्न यह है कि यदि प्रेम नामक यात्रा का गंतव्य विवाह ही है तो विवाह के बाद प्रेम क्यों विलुप्त हो जाता है। प्रेम में आप केवल व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार पर ही मुघ्ध होते है परन्तु  विवाह के समय आप शारीरिक संरचना, रंग-रूप, चाल-चलन और अन्य बहुत सी चीजो पर ध्यान देते है। कमोबेश प्रेम-विवाह की संकल्पना भी इसी के इर्द-गीर्द घूमती है।


प्रेम और विवाह दो विपरीत और पृथक बातें है। वास्तविकता में प्रेम-विवाह जैसी संकल्पना केवल काल्पनिक ही है। परन्तु लोग प्रायः दोनों को एकाकार करके इसे प्रेम-विवाह की संज्ञा दे देते है बल्कि विवाह को प्रेम की पूर्णता की भी संज्ञा देते है। अगर हिन्दू धर्म ग्रंथो का अध्ययन करे तो हम पाते है कि विवाह के अन्य प्रचलित प्रकारों में सबसे प्रसिद्द और लोकप्रिय, गन्धर्व विवाह ही है जिसे वर्तमान में प्रेम-विवाह अथवा लव मैरिज भी कहा जाता है। परन्तु इन सबके अतिरिक्त अन्य विवाह प्रकारों में या तो पीढ़ियों अथवा कुल के मोक्ष प्राप्ति हेतु अथवा बलात या बिना लड़की की सहमती के विवाह अथवा सम्भोग को ही विवाह का नाम दिया गया है।
वास्तविकता में प्रेम अपने आप में ही सम्पूर्णता का घोतक है जबकि विवाह मुख्यतः वंश वृद्धि का मार्ग माना जाता है। ठीक इसी प्रकार विवाह पश्चात जन्मी संतान को तो सामाजिक प्रतिष्ठा और सहमती प्राप्त होती है, परन्तु सिर्फ प्रेम के प्रतिफल जन्मे शिशु को इससे वंचित रहना पड़ता है। प्रेम में जहाँ दोनों व्यक्तियों का उत्थान होता है, वही विवाह में प्रेम के अतिरिक्त अन्य विविध भावनाओ और अनुभूतियों की उत्त्पत्ति होती है, जो धीरे-धीरे प्रेम को स्थानापन्न बना देती है। एक विवाहित पुरुष अथवा स्त्री जब किसी अविवाहित जोड़े को प्रेमालाप करते देखते है, तो अनायास ही उनके मन में अपने विस्मृत प्रेम की अनुभूति पुनः जाग्रत हो जाती है। वे अपने साथी से उसी प्रकार के प्रेम की आकांक्षा करने लगते है, और फिर यहीं से मानसिक द्वन्द की उत्पत्ति होती है। प्रेमी युगल अपने विवाहपूर्व के समय को वर्तमान में लाने का असफल प्रयास करते है, सिंहावलोकन करते है परन्तु वास्तविकता से सामंजस्य नहीं बैठा पाते है। गौरतलब है कि ऐसी अनुभूति क्षणिक अथवा दीर्घकालिक, दोनों हो सकती है। बीतते समय के साथ यह रिश्तों में विषाद का कारण भी बन जाती है।
पूर्ववत सुख की पुनः अनुभूति के लिए प्रायः कुछ लोग अन्य साथी के साथ भी प्रेमालाप की आकांक्षा रखने लगते है। ऐसे लोग दोहरी जिन्दगी जीने लगते है, एक में वे विवाहित होते है जबकि दूसरे में सिर्फ प्रेमी युगल। क्या अब आप इस तर्क को दरकिनार करके भी प्रेम-विवाह नाम की संस्था को मान्यता देंगे? प्रेम में पड़े युगल अपने और अपने साथी के आचार-विचार, सहयोग, समर्थन, तत्परता सभी के लिए सक्रिय होते है, जबकि विवाह जड़ता का मूलक होती है और वैवाहिक प्रायः तठस्थ हो जाते है। प्रेम का स्थान, जिम्मेदारियां और  सम्मान जैसी चीजें ले लेती है और परिवार व पारिवारिकजनों के हितो का ध्यान रखने और इसमें निहित कर्तव्यों के निर्वाह में ही जीवन समाप्त हो जाता है। विवाह उपरांत स्त्री व् पुरुष दोनों अपने रूप-रंग, पहनावे और आकर्षण के प्रति विरक्त हो जाते है। उन्हें लगता है कि सबकुछ तो प्राप्त कर लिया उन्होंने, आखिर जिसके लिए उन्होंने इतना बनाव-श्रृंगार किया वह तो उन्हें सहज ही लभ्य है फिर इस साज-श्रंगार की जरूरत ही क्या? परन्तु स्त्रियाँ ये भूल जाती है कि यहीं बनाव-श्रंगार ही है जिसने उनके पतियों को बाँध रखा है। कमोबेश यही परिस्थिति विवाहित पुरुषों की भी होती है, जो विवाह पश्चात सिर्फ धन उपार्जन को ही अपना एक मात्र लक्ष्य समझने लगते है और, प्रेम व् भौतिक सुखों के दूर होने लगते है।
विगत दिनों में मेरे एक मित्र का फ़ोन आया। कुछ सकुचाते और झेपते हुए उसने मुझसे पूछा कि क्या विवाह उपरांत किसी अन्य महिला से प्रेम सम्बन्ध उचित ठहराया जा सकता है? मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, अवश्य परन्तु हम केवल प्रेम की सीमा में ही रहे तभी तक। गौरतलब है कि कई लोग इस बात का अर्थ व्यभिचार से जोड़ कर देखते है, परन्तु विशुद्ध प्रेम और व्यभिचार में एक बहुत बड़ा अंतर है। व्यभिचार में समर्पण और प्रेम के स्थान पर सिर्फ अनुचित लाभ अथवा काम पिपासा की तृप्ति ही सबकुछ होती है मगर प्रेम में तो सिर्फ समर्पण ही होता है। प्रेम में सीमाएं न होती है जबकि व्यभिचार में सिर्फ दैहिक संतुष्टि के लिए व्यक्ति आकर्षण से बंधा होता है।
मैंने उससे सहसा पूछा कि तुम्हें ऐसा क्यूँ लगता है कि तुम गलत कर रहे हो? जिस प्रेम को तुम्हें दुनिया से छिपाना पड़े निसंदेह वो प्रेम नहीं हो सकता है? क्या तुम्हें लगता है कि कल को अगर तुम्हारी प्रेमिका की मुलाक़ात तुम्हारी पत्नी से हो जाये तो क्या वास्तव में तुम उतनी ही स्वक्षन्द्ता का अनुभव कर पाओगे? तुम्हारे प्रेम की परणीती तुम्हें पहले ही दिन से पता थी, फिर भी अगर तुम्हारे मन में प्रेम का बीज अंकुरित हुआ तो निसंदेह ये तुम्हारे वैवाहिक जीवन की नीरसता और प्रेम की कमी को दर्शाता है। परन्तु इसमें एक विभेद है, आप भले ही प्रेम में हो परन्तु अपने साथी (जीवन साथी) के प्रति अपने कर्तव्यों और प्रेम से विमुक्त बिलकुल नहीं हो सकते है। आप एक ही समय में दो व्यक्तियों से प्रेम कर रहे होते है और निसंदेह प्रेम कभी हानिकारक नहीं हो सकता है।


कृष्ण ने राधा से प्रेम किया परन्तु विवाह रुक्मिणी से किया। वर्षो बीतने के बाद भी जब कृष्ण राधा से मिलने नहीं जा सके तो एक दिन राधा स्वयं ही कृष्ण से मिलने निकल पड़ी। स्वप्न में ही कृष्ण को उनके आने का भान हुआ। अगली सुबह जब राधा और कृष्ण का आमना-सामना हुआ तो राधा ने अपनी विरहगाथा कृष्ण को सुनाई। साथ ही साथ प्रतिदिन उनके रूप सौन्दर्य के दर्शन के अतिरिक्त बांसुरी की मधुर तान सुनने की अपनी इच्छा भी जाहिर की। कृष्ण ने उन्हें रुक्मिणी की परिचायिका बनने का प्रस्ताव दिया। जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया। अब अक्सर ही राधा और कृष्ण की भेट हो जाया करती थी, परन्तु मन ही मन में राधा को कृष्ण का रुक्मिणी के प्रति प्रेम कहीं न कहीं चुभता था। कुछ दिनों बाद उन्हें अपने कृत्य पर ग्लानी होने लगी। ये तो वह कृष्ण है ही नहीं जिसे वह जानती है। यह दिखता तो कृष्ण जैसा ही है परन्तु है नहीं। अथवा संभवता कृष्ण बदल गए हो, अब वह बृंदावन के एक गाय चराने वाले न होकर द्वारकाधीश हो गए है। अब उनका प्रेम केवल औपचारिकता मात्र रह गया है। और फिर भला कृष्ण का रुक्मणि से राधा के सम्मुख ही प्रेमालाप करना कहीं न कहीं राधा को मन ही मन कचोटता था। कृष्ण राधा के विचारो को भली प्रकार समझते थे परन्तु फिर भी शायद ही इसका कोई अन्य उपाय होता। आत्मग्लानी से ग्रस्त राधा ने एक रात चुपचाप द्वारिका  छोड़ दी, कृष्ण से भी संभवतः मोह भंग हो चुका था। कृष्ण तो भविष्य द्रष्टा थे, वे तुरंत ही राधा से मिलने चल पड़े। राधा एक निर्जन वन में प्रवास कर रही थी। कृष्ण ने उन्हें समझाने-बुझाने की बहुत कोशिश की मगर विफल रहे। राधा ने अपनी अंतिम इच्छा ( यहाँ तात्पर्य मृत्यु पूर्व इच्छा से नहीं है) जाहिर की। वह कृष्ण की बांसुरी सुनना चाहती थी और उन्होंने कृष्ण से पहले की भांति ही बांसुरी बजाने को कहा। कृष्ण ने राधा की इच्छा पूरी भी कर दी, मगर ऐसा कहा जाता है कि इसके बाद उन्होंने अपनी बांसुरी तोड़ कर फेंक दी और पुनः कभी बांसुरी न बजाने का निश्चय किया।


इस प्रसंग का आशय सिर्फ प्रेम और विवाह की परिधि का सीमांकन नहीं है, बल्कि इस प्रसंग में कई अन्य आयाम और दृष्टिकोण भी छिपे है।मसलन, अगर आपका प्रेम सच्चा है तो आपको इसे स्वीकार करने में हिचक क्यों है? दूसरी बात अगर प्रेम और विवाह दो अलग-अलग विषय है भी, तो विवाह के पूर्व और विवाह पश्चात के प्रेम में क्या फर्क है? और आखिर ऐसा क्यों होता है कि प्रेम केवल क्षणिक ही होता है? प्रश्न और भी है और निसंदेह उन सभी के जवाब भी, और यकीन मानिये इस लेख को लिखने के पूर्व मैंने सोचा भी नहीं था कि इस लेख के विकास के क्रम में अभी बहुत कुछ जोड़ा जाना बाकी है। परन्तु इसके पूर्व आपको मेरे लेख से सम्बंधित प्रतिक्रिया तथा अपने संभावित प्रश्नों से अवगत कराइए, और मैं आपके प्रश्नों का उत्तर खोजने में आपकी सहायता करूंगा। आप अपनी प्रविष्टियाँ मुझे devsheel@gmail.com पर भेज सकते है।  



सुलेख-देवशील गौरव
    


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