गलती की परणीती


मेरे एक मित्र ने एक बहुत ही खूबसूरत बात एक दिन साझा की, "गलती आखिर कहाँ छिपी होती है? निर्णय लेने में अथवा परिस्थितयों में? उनकी बात बहुत ही प्रासंगिक लगी मुझे। वस्तुतः देखा जाये तो दोनों ही परिस्थितियों में गलती होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है क्यूंकि ये तो अपरिहार्य है, गलती होने की संभावना तभी होगी जब आप कोई कार्य करें अन्यथा अकर्मण्य होकर रहने से आप भले ही गलती करने अथवा गलत होने से बच जाये परन्तु आप का प्रयोजन तो शून्य ही रहेगा।
मेरे एक मित्र से एक दिन अज्ञानता वश कुछ भूल हो गयी और उन्होंने सामाजिक लोकलाज के डर से मुझसे मिलने से परहेज करने लगे। काफी दिन तक ऐसे ही चलता रहा और उन्हें लगा की सब कुछ नियंत्रण में है। हाँ अलबत्ता जब कभी भी उनसे मुलाक़ात हुई और उस विषय में कोई प्रसंग चला तो जनाब बड़ी सफाई से बातें गोल कर जातें। मुझे भी उन पर पूरा ऐतबार था नतीजन कभी शक-सुबह की कोई गुंजाईश भी नहीं रही। ये बात अलग है कि कभी-कभी उन्हें विषय विशेष को लेकर इतनी ज्यादा बेचैनी हो जाती थी कि अजीब तरीके का व्यवहार करने लगते। मुझे बड़ा आश्चर्य होता परन्तु न तो वजह का पता था और न ही कभी उस विषय पर मैंने इतनी गंभीरता से सोचा था। अब चूँकि वो मेरे काफी अजीज थे,नतीजतन मैंने पता लगाने की कोशिश भी की, कई बार उनसे खुद भी पूंछा मगर नतीजा वही सिफर। दिन बीतते गए, और जैसा अक्सर कहा जाता है कि झूंठ की उमर लम्बी नहीं होती। सो एक दिन उनके झूठ का पुलिंदा मेरे सामने आ गया, अब जनाब काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गयी। मैंने उन्हें समझाते हुए सलाह दी और गिले-शिकवे दूर करके अपनी मित्रता यथावत जारी रखी।
दिन बीतते गए और फिर एक दिन मुझे पता चला की उन्होंने फिर झूठ बोलने की लत पाल ली है। इस बार फिर मुझे गुस्सा आया, अपने ठगे जाने का बोध हुआ। कुछ दिन नाराजगी रही फिर उन्होंने माफ़ी मांगी और आइन्दा ऐसा न करने की कसम खायी। खैर बात आई गई हो गयी, कुछ बातों को लम्बा खींचने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता अतः मैंने भी ये बात भुला दी। और इस बात का आइन्दा कभी भूल कर भी जिक्र नहीं किया कि क्या पता मेरे मित्र स्वयं को लज्जित महसूस करें। ये बात और है कि गाहे-बगाहे वे उस बात का जिक्र अक्सर स्वयं का मजाक उड़ाने और मेरी महानता के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने के लिए कर दिया करते थे। बीतते दिनों के साथ बाकी सब कुछ तो संयत हो गया लेकिन कभी कभार का उनका अजीब व्यवहार मुझे उनके प्रति चिंता में अवश्य डाल देता था। और फिर एक दिन ऐसा आया जब एक बार फिर उनका झूठ पकड़ा गया। अब तो इन्तेहा की भी हद हो गयी थी, नतीजतन मैंने उनसे दूरी बना ली। एक दिन मेरे पास आकर उन्होंने अपनी सफाई पेश की और कहा की मैं आपको दुःख नहीं पहुँचाना चाहता था इसीलिए आमुक विषय पर आपसे गोपनीयता रखी। अब एक मन मेरा उनकी ये बात सुनके हंसने का हो रहा था और दूसरा उन पर क्रोध दिखाने का।
अब इस विषय में गलती की जिम्मेदारी किस पर थोपी जाये गलत निर्णय पर या परिस्थितियों पर? और अगर निर्णय गलत है तो किसका? और किस परिस्थिति को गलत कहा जाये? या फिर गलती उस शख्स की है जो बार-बार वही गलती दोहरा रहा है अथवा संभवतः गलती माफ़ करने वाले की ही हो। वास्तव में देखा जाये तो अनिश्चय की स्थिति और असुरक्षा की भावना ही गलती की परणीती को जन्म देती है। गलती करने वाला उसे छिपाने में लग जाता है और उसे लगता है ये बच निकलने का सबसे आसान तरीका है, एक गलती, दूसरी गलती को जन्म देती है और ये सिलसिला अनवरत चलता रहता है। आदमी अकेले के दम पर ही ऐसी समस्याओं का हल ढूँढने निकल पड़ता है जो संभवतः उसके अकेले की नहीं है और शायद उससे निपटने और प्रभावित होने वाले लोगों का उसे कोई भी अंदाजा नहीं है। दूसरी बात, गलती का पता चलने के बावजूद हम उसे स्वीकारने में हिचकिचाते है, अनर्गल प्रलाप करते है, बहाने बनाते है और फिर कामना करते है की सब कुछ पहले की तरह यथोचित बना रहे। सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। जबकि वास्तव में ऐसा संभव ही नहीं है। स्वयं भगवान् श्री कृष्ण ने भी शिशुपाल की सिर्फ सौ गलतियाँ ही माफ़ की थी। वो दिन था और एक आज का दिन है, उनकी बातों पर मैंने विश्वास करना छोड़ दिया। मैंने भी उनसे दूरी बना ली, और अब वे हर जगह अपनी बेचारगी का रोना रो रहे है।


आलेख- देव्शील गौरव    



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