सवर्णो की वैचारिक विकलांगता
आज के समय में जब हर तरफ पिछड़ी जाति में शामिल होने के लिए सभी जातियों और समुदायों में जंग छिड़ी हुई है तो वही दूसरी तरफ सवर्ण अपनी बेचारगी और पक्षपात का रोना रो रहे है। गौरतलब बात ये है कि अपने प्रति सरकारों द्वारा किये जा रहे सौतेले व्यवहार और उपेक्षा को सहना जहाँ उनके लिए असहाय सा प्रतीत हो रहा है वही दूसरी तरफ शायद कहीं न कहीं उन्हें अपने सवर्ण होने का दुख भी साल रहा है। वर्षो तक अपने को दलितों और पिछड़ों का मसीहा समझने वालों के दिन निसंदेह अब पूरे हो गए है। व्यक्तिगत तौर पर देखा जाए तो किसी जाति अथवा सम्प्रदाय से मेरा कोई विशेष अनुराग नही है, परन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि सवर्ण जाति के कुछ न कुछ लोगों को मेरी बात अखरेगी जरूर। अगर इस पूरे प्रकरण का विश्लेषण करें तो कमी कहीं न कहीं सवर्णो में ही नजर आती है। और तो और जिस आरक्षण के वो खुद धुर विरोधी नजर आ रहे है अगर उसे समाप्त भी कर दिया जाए तो भी सवर्णो में ऐसे लोगों और क्षमतावान लोग कम ही मिलेंगे जो अपनी काबिलियत सिद्ध कर सके। गांवों, कस्बो तक सिमट कर रह गयी आरक्षण और अलगाव की भावना का सत्य केवल अवसरों की उपलब्धता तक सीमित रह गया है।