अल्प विराम-एक स्वचिन्तन


उमरे दराज मांग के लाये थे चार दिन,
दो आरजू में कट गए, दो इन्तेजार में।
लखनऊ के नवाब और शायर बहादुर शाह द्वितीय का ये शेर जेहन में जब भी आया। ऐसा लगा कि हम खुद ही बहादुर शाह की जिंदगी जी रहे हो। मुल्क से दूर इसी कशमकश में की शायद 100 साल बाद घूरे के दिन भी फिरे। मगर चमत्कार शायद हर किसी के हिस्से में नही आते, और शायद संघर्ष अभी और बाकी है। अपने आप से जेहन में एक प्रश्न कौंधा, "सबसे बुरी चीज क्या है, जो न ही इंसान को जीने देती है और न ही मरने?" और फिर जवाब भी दिल से ही आया, "उन्मीद"। हर रोज कुआँ खोदना और हर रोज पानी पीना। बस यही दिनचर्या बन गयी हो जैसे। उस पर गनीमत होती अगर ऐसा भी हो जाता तो। मगर शायद किस्मत लिखने वाले ने किस्मत लिखने के बाद वो कलम ही तोड़ दी हो। कुछ कहानियां ऐसी होती है जिनको लिखने वाला खुद भी रो देता है और अक्सर यही सोचता है कि आखिर ऐसी कहानी लिखी ही क्यों? न जाने कितनी बार उसके मन में खयाल आता होगा की इस कहानी को आग में ही क्यों न झोंक दे। मगर ये उस की विवशता होती है संभवतः जिसके कारण वो ऐसा  नही कर पाता। क्या कभी ऊपरवाले के मन में भी ऐसा ख़याल आता होगा?
फिर सोचता हूँ कि कुछ लोगों का जन्म ही दूसरों के लिये उदाहरण बनने के लिए होता है। नियति आपको चुनती है आप नियति को नही। अंग्रेजी की एक कहावत है, "हू सेज आई एम यूजलेस, आई कैन बी यूज्ड ऐज बैड एग्जाम्पल" अर्थात कौन कहता है कि मैं बेकार हूँ, मैं किसी के लिए बुरे उदाहरण के तौर पर प्रयुक्त किया जा सकता हूँ। और फिर जिंदगी और सिनेमा में यही तो फर्क होता है, जहां हीरो अपनी असफलता से दुखी होकर सब कुछ छोड़ कर घर वापसी के लिए निकलता है और तभी उसे कोई रोकने वाला आ जाता है और कहता है की तुम कामयाब हो गए। जिंदगी इक सफर है सुहाना, मगर उसी के लिए जिसको मंजिल मिल गयी। वरना कुछ लोगों का सफर तो ताउम्र जारी ही रहता है। मुफ़लिस आदमी के लिए काबिलियत रेशम के लिबास में लगा टाट का पैबंद नही होती जनाब उसकी तो जिंदगी ही टाट की होती है जिसमें रेशम का पैबंद लगा होता है। और वो पागल इसी उधेड़बुन में रहता है कि एक दिन उसका पूरा लिबास ही रेशम का हो जाएगा। मोतियों की माला में एक मनका अलग तरह का हो तो खूबसूरती बढ़ा देता है, मगर सिर्फ एक ही मनके की माला हो तो भला काहे की खूबसूरती और काहे की माला। बचपन में जब छोटी बच्चियों को कांच की चूड़ियों के टूटे टुकड़ो से खेलते देखता था तो अक्सर ही ये सोचता था, कि इन टूटे टुकड़ो में उन्हें ऐसा क्या नजर आया जो इन्हें सहेजने में लगी रहती है। आखिर ऐसी कौन सी दौलत है इसमें जो सारे जहां की दौलत से भी बड़ी है। शायद कांच के उन रंग बिरंगे टुकड़ो की बातें और जज्बात वो बच्चियां समझती होगी। शायद कांच के वो टुकड़े उनसे बातें करते हो अपना दुख बतियाते हो। और फिर उन्हें ये जान के सुकून मिलता हो कि उन्हें कोई संभाल लेगा।
इसी से जुड़ी एक कहानी जेहन में ताजा हो गयी।
तो हुआ कुछ यूं कि एक चरवाहे को एक दिन भेड़ चराते हुए एक चमकदार पत्थर पड़ा मिला। चूंकि उसे पत्थरो के बारे में कोई जानकारी थी नही, इसीलिए उसने उस पत्थर को एक माला में पिरोकर अपनी सबसे प्यारी भेड़ के गले में पहना दिया। एक दिन संजोगवश उधर से एक व्यापारी गुजर रहा था, उसने भेड़ के गले में चमकते हीरे को पहचान लिया। मगर वो उस हीरे को सस्ते में हासिल करना चाहता था। इसलिए उसने एक तरकीब निकाली, उसने  गरेड़िये से कहा कि अगर वो पत्थर उसे दे दे, तो बदले  में वह उसे चने की एक बोरी दे सकता है। गरेड़िये ने मोल भाव करना शुरू किया और बात दो बोरी चने पर आकर तय हुई। व्यापारी ने झूठमूठ का दिखावा करते हुए कि इस सौदे में उसका कोई फायदा नही हुआ उस हीरे को खरीद लिया। मन ही मन अपनी खुशी को छिपाता हुआ अभी बमुश्किल से चार कदम ही चला होगा कि चटाक की आवाज के साथ-साथ हीरे के टुकड़े-टुकड़े हो गए। व्यापारी दहाड़े मार  कर रोने लगा। तभी टूटे हुए हीरे के टुकड़ो से आवाज आई। "किस बात से दुखी होकर तुम रो रहे हो?" व्यापारी ने अपनी चिंता बताई। "हीरे के टुकड़ो ने कहा,"कल तक जब मैं उस गरेड़िये के पास था, तो मुझे इस बात का सुकून था कि उसे मेरी कीमत नही पता शायद इसलिए वो मुझे इस तरह रखता है। मगर आज सबकुछ जानते हुए भी जब तुमने मेरी कीमत चने की बोरियों से लगाई तो मुझे अपने होने या न होने में कुछ फर्क नही लगा। और इसीलिए मैंने अपने न होने के विकल्प को सही पाया।"
संभव है शायद यही वजह होगी जो उन बच्चियों को उस व्यापारी से अलग बनाती है। उन्हें कांच के उन टुकड़ो का मोल पता है जो कभी किसी नारी की सुंदरता का घोतक रही हो। चालाकी व्यवहारिकता को मार देती है, और आदमी फिर उस व्यापारी की तरह हो जाता है, जिसे आपकी कीमत भले ही पता हो मगर वो आपका हमेशा अवमूल्यन ही करता है।
एक नए सफर की तलाश में फिर से निकल हूँ, कारवाँ और रास्ते तो बदलते रहे है मगर मंजिल की तलाश में सफर फिर भी अभी जारी है। खाली हाथ घर वापसी अपने साथ कई अनुत्तरित प्रश्न लेकर आती है। आपकी काबिलियत पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है। लोगों का संदेह और आपको अविश्वास आपको रसातल में धकेलने का काम करने लगता है। और धीरे-धीरे आप दूसरो की जमात में शामिल हो जाते है, और स्वयं को संदेह और अविश्वास से देखने लगते है। आज एक छणिक विराम और सुकून की तलाश में निकला हूँ इसी उन्मीद से की कल फिर से जिंदगी की जंग लड़नी है। विधाता के लिखे को चुनौती देनी है। संभव हो मेरी कहानी में भी कोई सुखद मोड़ आने वाला हो।

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