मन की बात-लेखक के साथ
कुछ लोग केवल पढ़ते है और कुछ लोग केवल लिखते है। मगर कुछ लोग पढ़ते और लिखते दोनो है। लिखने वाले के लिए पाठक महत्त्वपूर्ण है उसी तरह पढ़ने वाले के लिए उत्कृष्ट साहित्य। कमोबेश यही अवधारणा कला, खेल और साहित्य सभी के लिए आवश्यक और तार्किक दोनो है। मगर कितनी ही बार कलाकार को दर्शक और साहित्यकार को पाठकों की कमी का शिकार होना पड़ता है। साहित्य, कला और खेल में कुछ भी उचित अथवा अनुचित नही होता,परंतु यह देखने वाले की विचारधारा और आत्मसात करने की प्रवित्ति पर निर्भर करता है। एक कहावत के अनुसार, कुछ किताबें चखने योग्य, कुछ खाने योग्य और कुछ सिर्फ स्वाद बदलने हेतु होती है। परंतु प्रायः ही पाठक केवल मुख्य पृष्ठ (कवर पेज) अथवा लेखक का नाम देखकर मात्र ही किताबे खरीद लेते है और फिर वह साल-दरसाल अलमारी की किसी कोने में पड़ी धूल खाती रहती है। पुराने लेखकों से इतर नए लेखकों को तो अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और स्वयं को स्थापित करने में ही अच्छा-खासा वक्त और मेहनत दोनो लगती है। रही सही कोर कसर अच्छा प्रकाशक मिलने और उस पर होने वाले व्यय से निकल जाती है और लेखक बेचारा यूं ही मारा जाता है।
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