सवर्णो की वैचारिक विकलांगता
आज के समय में जब हर तरफ पिछड़ी जाति में शामिल होने के लिए सभी जातियों और समुदायों में जंग छिड़ी हुई है तो वही दूसरी तरफ सवर्ण अपनी बेचारगी और पक्षपात का रोना रो रहे है। गौरतलब बात ये है कि अपने प्रति सरकारों द्वारा किये जा रहे सौतेले व्यवहार और उपेक्षा को सहना जहाँ उनके लिए असहाय सा प्रतीत हो रहा है वही दूसरी तरफ शायद कहीं न कहीं उन्हें अपने सवर्ण होने का दुख भी साल रहा है। वर्षो तक अपने को दलितों और पिछड़ों का मसीहा समझने वालों के दिन निसंदेह अब पूरे हो गए है। व्यक्तिगत तौर पर देखा जाए तो किसी जाति अथवा सम्प्रदाय से मेरा कोई विशेष अनुराग नही है, परन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि सवर्ण जाति के कुछ न कुछ लोगों को मेरी बात अखरेगी जरूर। अगर इस पूरे प्रकरण का विश्लेषण करें तो कमी कहीं न कहीं सवर्णो में ही नजर आती है। और तो और जिस आरक्षण के वो खुद धुर विरोधी नजर आ रहे है अगर उसे समाप्त भी कर दिया जाए तो भी सवर्णो में ऐसे लोगों और क्षमतावान लोग कम ही मिलेंगे जो अपनी काबिलियत सिद्ध कर सके। गांवों, कस्बो तक सिमट कर रह गयी आरक्षण और अलगाव की भावना का सत्य केवल अवसरों की उपलब्धता तक सीमित रह गया है। सरकारी नौकरी और उच्च संस्थानों में अवसरों के घटते विकल्पों ने उन्हें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि पिछड़ी जातियों को मिलने वाला आरक्षण ही उनका सबसे बड़ा शत्रु है। यह बात ठीक उसी तरह लगती है जैसे राज ठाकरे मुम्बई में आकर काम करने वाले उत्तर भारतीयों को ही मराठी लोगों के हितों का सबसे बड़ा दुश्मन समझते है। यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि भले ही आरक्षण के चलते नौकरी अथवा पढ़ाई हेतु आपको कुछ छूट मिल जाये परंतु अपनी काबिलियत आपको स्वयं सिध्द करनी होती है। सरकारी नौकरी के लिए अपनी जान तक दावं पर लगाने वाले असलियत में कुछ किये बगैर ही मलाई खाने के स्वप्न देख रहे है। जबकि वास्तविकता में उनमें और पिछड़ी जाति के लोगो में कोई खास अंतर है ही नही। इस संदर्भ की व्याख्या करने के लिए एक चौपाई, 'बसि कुसंग चाहत कुसल,यहि रहीम जे सोच, महिमा घटी समुद्र की रावन बस्यो पड़ोस" तर्कसंगत लगती है। अपने व्यक्तिगत गुणों और नियुक्ति योग्य अभियर्था के बजाय दूसरो को कोसने से शायद ही उनका कोई प्रयोजन सिद्ध हो। अब जबकि कुछ दिन पूर्व ही नहीं गडकरी जी ने सार्वजनिक मंच पर इस बात की घोषणा तक कर दी कि भले ही लोग आरक्षण पाने में कामयाब हो जाये, मगर सरकारी नौकरी में अवसरों के घटते विकल्प के कारण उन्हें नौकरी मिलना मुश्किल ही नही असंभव भी है। अब भले ही वे स्वयं अथवा पार्टी के अन्य लोग इस बात की सफाई देते फिरे कि उनकी बात का ओ अर्थ नही था जो निकाला जा रहा है। मगर समझने वालों के लिए तो इशारा ही काफी होता है। ये बात और है कि सवर्ण भले ही स्वयं के हालतों पर आसूं बहाने के अलावा कुछ नही कर रहे है मगर वस्तुतः उनकी जंग केवल और केवल संसाधनो के उपयोग से जुड़ी हुई है और जिसके लिए वो स्वयं भी तैयार नही है।
आलेख-देवशील गौरव
आलेख-देवशील गौरव
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