दो टूक



किसी भी देश का सिनेमा मुख्यतः दो धड़ो में बंटा होता है। मीनिंगफुल सिनेमा और कमर्शियल। मीनिंगफुल सिनेमा जहां बुद्धिजीवियों और मैचोर्ड लोगो की पसंद होता है वहीं दूसरी तरफ कमर्शियल आम जन को अपील करता है। बहुधा यही कारण होता है जिससे कमर्शियल सिनेमा की सफलता का अंदाजा उसकी कलेक्शन से लगाया जाता है न कि दर्शकों के वर्ग विशेष से। हालांकि सिनेमा के दोनों धड़ो के बीच भी कुछ डायरेक्टर सामंजस्य बिठाने की कोशिश में निरंतर लगे होते है। देखने वाली बात ये है कि भले ही ऊपरी तौर पर देखने पर ये एक रिस्की गेम लगे मगर सिनेमा के दोनों धड़ो पर ऐसा सिनेमा चिरकालीन अपनी छाप छोड़ने में सफल रहता है। पीकू, पा, लस्ट स्टोरीज, मांझी द माउंटेन मैन और ऐसी ही अन्य अनगिनत फिल्में है जो सिनेमा के दोनों धड़ो में सामंजस्य बैठाने में न सिर्फ सफल रही बल्कि भारतीय सिनेमा को एक नई ऊंचाई पर भी पहुचाया। व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि इस तरह के प्रयोग कर पाना सभी डायरेक्टर्स के लिए सम्भव नही है और शायद उन्हें मीनिंगफुल सिनेमा का अनुभव भी न हो। यदि गिने चुने निर्देशकों जैसे अनुराग बसु, आर बाल्की और एक आध अन्य को छोड़ दिया जाए तो ऐसे खतरनाक निर्णय लेने की गलती कोई भी नही करना चाहेगा, जिससे न सिर्फ फाइनेन्सर का पैसा डूबे बल्कि उसका खुद का करियर भी समाप्ति के कगार पर पहुंच जाए। अब यदि बायोपिक बनाने वाले डायरेक्टर्स की बात करें तो निसंदेह वो कमर्शियल सिनेमा के पक्ष में ही नजर आते है। नतीज़तन वे फ़िल्म के वास्तविक तथ्यों को प्रायः गौड़ मानते हुए सिर्फ फ़िल्म और कहानी में मसाला ही ढूढ़ते है। हाल ही में रिलीज हुई मूवी संजू की बात करें तो यहां भी ये बात बिल्कुल सटीक बैठती है। हालांकि काफी हद तक राज कुमार हिरानी भी शायद इस बात की गंभीरता को समझते होंगे तभी उन्होंने यह बात स्वयं ही स्पष्ट करते हुए कहा कि फ़िल्म के काफी हिस्से फिल्माए नही जा सके क्योंकि संजू के जीवन के प्रत्येक पहलू को सिनेमा पर उकेरना संभव नही है। और तो और यही बात आपको फ़िल्म के डिस्क्लेमर में स्पष्ट हो जाएगी कि काफी दृश्य सिर्फ कल्पना और मनोरंजन को ध्यान में रखते हुए गढ़े गए है। ऐसे में बॉयोपिक का मूल ही खतरे में पड़ जाता है और वह सिर्फ एक रियल लाइफ इंस्पायर्ड ड्रामा बन कर रह जाती है। दूसरी बात फ़िल्म के मुख्य किरदार के अलावा उन परिस्थितियों और कथानक तथा कलाकारों का वर्णन अनिवार्य हो जाता है जो न सिर्फ मुख्य कलाकार के व्यक्तित्व को और उभारने का काम करता है बल्कि फ़िल्म को एक दिशा और गति दोनो प्रदान करता है। कमोबेश भारतीय सिनेमा में इन दोनों चीजो का आभाव हमेशा बना रहता है। इन सबसे इतर सबसे मुख्य बिंदु होता है वह व्यक्ति जिसके जीवन पर फ़िल्म बनाई जा रही है। क्या वास्तव में कहानी का किरदार उतना अहम है कि उस पर बायोपिक बनाई जा सके? क्या वास्तव में उसके जीवन से समाज को कोई सीख मिलती है अथवा इसका उद्देश्य केवल व्यक़्क्ति विशेष का महिमामंडन या उसकी छवि सुधारने का है? गौरतलब बात है कि अपने एक इंटरव्यू में संजय दत्त स्वयं ही इस बात को कुबूल चुके है कि उन्हें अपनी गलतियों पर कोई पछतावा नही है और उन गलतियों को जीवन में दोवारा दोहराए जाने से भी उन्हें गुरेज नही होगा। ऐसे में उन पर आधारित फिल्म को समाज के हित से जोड़ कर देखने की अपेक्षा उनका महिमामंडन किया जाना अधिक बेहतर कहा जायेगा। गौरतलब है कि राजकुमार हिरानी हमेशा से विवादास्पद मुद्दों पर फ़िल्म बना कर ही करोड़ो कमा लेते है। उनकी फिल्मों में आप एक गजब का पैटर्न देखेंगे। शुरुआत किसी इमोशनल सीन से शुरू होकर फ़िल्म का सेंटर पॉइंट ही विवादित मुद्दों का अखाड़ा बन जाता है और इससे कोई विवाद या सामाजिक छवि को कोई नुकसान न पहुंचे इसलिए क्लाइमेक्स आते आते दर्शको के लिए इमोशनल अटैचमेंट और सिम्पथी वाला एंगल डाल दिया जाता है, चाहे पी.के. हो, मुन्नाभाई हो या फिर लेटेस्ट संजू।
खैर अपनी बात पर वापस लौटते हुए कुछ अन्य बॉयोपिक जैसे भाग मिल्खा भाग, मैरीकॉम, धोनी-द अनटोल्ड स्टोरी पर चर्चा करना उचित समझता हूँ। इन सारी फिल्मो में से अगर मैरीकॉम को छोड़ दिया जाए तो बाकी की सभी फिल्मों में अधिकतर रोमांस और हीरोइज्म को बढ़ावा दिया गया। कुछ किरदारों और उनके महत्त्व को गौड़ करके दिखाया गया कहीं-कहीं तो सपोर्टिंग कास्ट को भी उतनी इम्पोर्टेंस नही दी गयी जितना वे डिज़र्व करते है। फिर भी अगर आप बायोपिक और मसाला मूवी के अंतर को नही समझ पाए है तो सलमान खान की मूवी सुल्तान के साथ अन्य कथाकथित बायोपिक की तुलना करके देख सकते है, आपको शायद ही कोई अंतर नजर आए।

बाकी बातें है बातों का क्या

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