जिंदगी झंड है, फिर भी घमंड है....
जिंदगी झंड है, फिर भी घमंड है...
काम कुछ ज्यादा ही अर्जेंट था। हालांकि पूरा करने के लिए समय लगभग ठीक ठाक ही मिल गया था।।मगर कुछ दिन तो यहीं सोच कर मौज मस्ती में काट दिए कि एक दो दिन में ही पूरा निपट जाएगा। और जब डेडलाइन सिर पर आ गयी तो नतीजा देर रात तक जाग कर काम करने की टेंशन सवार हो गयी। दिमाग ने जैसे काम न करने की कसम खा रखी हो और ऐसे बिहेव करने लगा मानो सुबह सुबह किसी बच्चे को नींद से जगा कर जबरन स्कूल भेजा जा रहा हो। दिन भर का थका हारा जब मैं घर पहुंचा तो सिर्फ एक ही टेंशन सवार थी, क्लाइंट इन्तेजार कर रहा होगा और भले ही अगर मैं उसे टाइम पर काम पूरा करके नही दे पाया तो पूरा तो छोड़िए एक आध प्रोजेक्ट का भी जो पैसा मिलना होगा वो भी गया समझो। हालांकि ये भी एक दीगर बात है कि काम तय समयसीमा में पूरा करने के बाद ही पेमेंट तब ही होगा जब काम अप्रूव होगा उस पर भी एक-एक क्लाइंट के आगे चार-चार पांच-पांच एजेंसीज लाइन लगाए खड़ी रहती हैं और उन एजेंसियों में मेरे जैसे न जाने कितने लोग रात दिन कलम घिसते और राते काली करते नजर आते है। हर कोई इसी उड़ेधबुन में रहता है कि उसका काम सबसे बेहतर हो। दूसरी तरफ इस बात से किसी को कोई फर्क नही पड़ता कि आपने कितनी मेहनत की है बल्कि काम किसका क्लाइंट को पसंद आता है।
खैर, मुद्दे की बात पर वापस लौटता हूँ। घर लौटने में देर कुछ ज्यादा ही हो चुकी थीं और मैं आधी दिल्ली का लगभग एक चक्कर पूरा करके पहुंचा ही था कि मेरे मित्र आलस ने अपनी बाहें फैलाते हुए मुझे गले लगाना चाहा मगर मैं परस्त्री के प्रेमपाश में फंसे व्यक्ति की तरह कपड़े जहां तहां फेंक नहाने के लिए गुसलखाने की तरफ भागा। मेरा मेरे मित्र के लिए ऐसा दुर्व्यवहार संभवतः उसे नागवार गुजरा और उसने भी मुझसे दूरी बनाने का फैसला लिया। रही सही कसर उसकी सौत कम्बखत ब्लैक कॉफी ने पूरी कर दी। काम करने के लिए लैपटॉप को उठाया तो ऐसा लगा मानो वो मन ही मन हजारो लानतें भेज रहा हो। उसे देख कर मन ही मन मुझे भी बड़ी तरस आयी। वो भी उन्नीदी की अवस्था में मानो काम कर रहा हो। खैर, जैसे तैसे रात लगभग 1 बजे तक आधा-अधूरा काम पूरा ही किया था कि तभी जेहन में एक और झंझावात चालू हुआ कि भाई सुबह ऑफिस भी जाना है। मनमसोसकर लैपटॉप को बंद किया, एक तरफ तो मेरा लैपटॉप खुन्नस के मारे जला भुना जा रहा था कि जैसे मुझे चुनौती देते हुए कह रहा हो कि क्या हुआ, काम क्यो रोक दिया? जान लेलो मेरी अभी इतनी जल्दी मुक्ति देने की क्या जरूरत। उसकी हालत उस वक्त उन महिलाओं के जैसी हो रखी थी जो अचानक ही देर रात को किसी मेहमान के आ धमकने की वजह से होने वाली परेशानियों के जैसी होती है। जो भले ही घर के भीतर मन ही मन अपने रिश्तेदार को लानत मलानत क्यों न भेजे और घर के भीतर अपने पति को इस सब के लिए खरीखोटी क्यों न सुनाए मगर दिखावे के लिए ही सही रिश्तेदार के सामने ऐसा दिखावा करेगी मानो उसके आने की सबसे ज्यादा खुशी उसे भी हो। उस पर भी अगर रिश्तेदार अगर उसके मायके का हुआ तो बढ़चढ़ कर सब काम करेगी और तब उसके मन में खुशी का कोई ठिकाना नही रहेगा। बाकी अन्य दिनों के मुकाबले अगर मैं देर रात तक जागता भी रहूँ और मेरा लैपटॉप चलता रहे तो शायद ही उसे कोई आपत्ति रहती हो मगर आज जैसे हालात कभी कभार ही होते है। लैपटॉप की मानो जान में जान आई हो और वो एक आम कामकाजी आदमी की तरह ये सोच का सुकून अनुभव कर रहा हो कि चलो भले ही सैटरडे को रतजगा कर लिया तो क्या अगले दिन तो छुट्टी है ही। कमोबेश मेरा लैपटॉप भी अपनी थकान अगले दिन पूरी तरह आराम करके बिताता। काम बंद करके सोने की कोशिश करने लगा तो नींद किसी नाराज पत्नी की तरह नखरे दिखाने लगी और न चाहते हुए भी मुझे उसके नखरे उठाने पड़ रहे थे। काफी मान मनौव्वल के बाद नींद तो आयी मगर इसी बीच कब सुबह ने दरवाजे पर दस्तक दी पता ही नही चला। और फिर ऐसा लगा मानो एक बार फिर से इतिहास दोहराया जा रहा हो और लैला-मजनू जमाने की रवायतों के कारण बिछड़ रहे हो। नींद मुझे छोड़ना नही चाहती थी और एक मैं था कि परदेशी आशिक की तरह बिस्तर को तह लगा रहा था। चारो ओर 'न जाओ सैयां, छुड़ा के बैयाँ," गाने की सुमधुर आवाज कानो में तैरती हुई सी लगी। जैसे-तैसे मैंने काम समेटा और फिर से एक बार जिंदगी की जद्दोजहद से लड़ने के लिए मैदान में कूद पड़ा।
खैर, मुद्दे की बात पर वापस लौटता हूँ। घर लौटने में देर कुछ ज्यादा ही हो चुकी थीं और मैं आधी दिल्ली का लगभग एक चक्कर पूरा करके पहुंचा ही था कि मेरे मित्र आलस ने अपनी बाहें फैलाते हुए मुझे गले लगाना चाहा मगर मैं परस्त्री के प्रेमपाश में फंसे व्यक्ति की तरह कपड़े जहां तहां फेंक नहाने के लिए गुसलखाने की तरफ भागा। मेरा मेरे मित्र के लिए ऐसा दुर्व्यवहार संभवतः उसे नागवार गुजरा और उसने भी मुझसे दूरी बनाने का फैसला लिया। रही सही कसर उसकी सौत कम्बखत ब्लैक कॉफी ने पूरी कर दी। काम करने के लिए लैपटॉप को उठाया तो ऐसा लगा मानो वो मन ही मन हजारो लानतें भेज रहा हो। उसे देख कर मन ही मन मुझे भी बड़ी तरस आयी। वो भी उन्नीदी की अवस्था में मानो काम कर रहा हो। खैर, जैसे तैसे रात लगभग 1 बजे तक आधा-अधूरा काम पूरा ही किया था कि तभी जेहन में एक और झंझावात चालू हुआ कि भाई सुबह ऑफिस भी जाना है। मनमसोसकर लैपटॉप को बंद किया, एक तरफ तो मेरा लैपटॉप खुन्नस के मारे जला भुना जा रहा था कि जैसे मुझे चुनौती देते हुए कह रहा हो कि क्या हुआ, काम क्यो रोक दिया? जान लेलो मेरी अभी इतनी जल्दी मुक्ति देने की क्या जरूरत। उसकी हालत उस वक्त उन महिलाओं के जैसी हो रखी थी जो अचानक ही देर रात को किसी मेहमान के आ धमकने की वजह से होने वाली परेशानियों के जैसी होती है। जो भले ही घर के भीतर मन ही मन अपने रिश्तेदार को लानत मलानत क्यों न भेजे और घर के भीतर अपने पति को इस सब के लिए खरीखोटी क्यों न सुनाए मगर दिखावे के लिए ही सही रिश्तेदार के सामने ऐसा दिखावा करेगी मानो उसके आने की सबसे ज्यादा खुशी उसे भी हो। उस पर भी अगर रिश्तेदार अगर उसके मायके का हुआ तो बढ़चढ़ कर सब काम करेगी और तब उसके मन में खुशी का कोई ठिकाना नही रहेगा। बाकी अन्य दिनों के मुकाबले अगर मैं देर रात तक जागता भी रहूँ और मेरा लैपटॉप चलता रहे तो शायद ही उसे कोई आपत्ति रहती हो मगर आज जैसे हालात कभी कभार ही होते है। लैपटॉप की मानो जान में जान आई हो और वो एक आम कामकाजी आदमी की तरह ये सोच का सुकून अनुभव कर रहा हो कि चलो भले ही सैटरडे को रतजगा कर लिया तो क्या अगले दिन तो छुट्टी है ही। कमोबेश मेरा लैपटॉप भी अपनी थकान अगले दिन पूरी तरह आराम करके बिताता। काम बंद करके सोने की कोशिश करने लगा तो नींद किसी नाराज पत्नी की तरह नखरे दिखाने लगी और न चाहते हुए भी मुझे उसके नखरे उठाने पड़ रहे थे। काफी मान मनौव्वल के बाद नींद तो आयी मगर इसी बीच कब सुबह ने दरवाजे पर दस्तक दी पता ही नही चला। और फिर ऐसा लगा मानो एक बार फिर से इतिहास दोहराया जा रहा हो और लैला-मजनू जमाने की रवायतों के कारण बिछड़ रहे हो। नींद मुझे छोड़ना नही चाहती थी और एक मैं था कि परदेशी आशिक की तरह बिस्तर को तह लगा रहा था। चारो ओर 'न जाओ सैयां, छुड़ा के बैयाँ," गाने की सुमधुर आवाज कानो में तैरती हुई सी लगी। जैसे-तैसे मैंने काम समेटा और फिर से एक बार जिंदगी की जद्दोजहद से लड़ने के लिए मैदान में कूद पड़ा।
(डिस्क्लेमर- मेरे एक मित्र ने विगत दिनों मेरे लेखन कार्य से प्रभावित होकर मुझे लल्लनटॉप कंपनी में अप्लाई करने का सुझाव दिया। हालांकि मेरी लेखन शैली उनके कार्य अनुरूप नही है। खबरों को प्रसारित करने का तरीका भी उनका अनूठा ही है। फिर भी इस बात से इनकार नही किया जा सकता है इस सब के बावजूद भी उनकी लोकप्रियता दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही है। मेरे वहां सेलेक्ट न हो पाने और इस बात को स्वयं के लिए एक चुनौती के तौर पर देखे जाने के लिए ही इस लेख का सृजन किया गया है। हालांकि ये बात दीगर है कि लल्लनटॉप जैसी भाषा शैली का प्रयोग कर पाना मेरे लिए दुष्कर कार्य है, परंतु जन साधारण को पसंद आये इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही लेख लिखा गया है। अपने मन की टीस और असमानता की टीस को भरने का असफल प्रयास करते हुए सिर्फ लेख का शीर्षक अवधी भाषा के व्यगात्मक प्रतीक के तौर पर प्रयुक्त किया गया है।)
आलेख-देवशील गौरव
Comments