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जिंदगी झंड है, फिर भी घमंड है....

जिंदगी झंड है, फिर भी घमंड है... काम कुछ ज्यादा ही अर्जेंट था। हालांकि पूरा करने के लिए समय लगभग ठीक ठाक ही मिल गया था।।मगर कुछ दिन तो यहीं सोच कर मौज मस्ती में काट दिए कि एक दो दिन में ही पूरा निपट जाएगा। और जब डेडलाइन सिर पर आ गयी तो नतीजा देर रात तक जाग कर काम करने की टेंशन सवार हो गयी। दिमाग ने जैसे काम न करने की कसम खा रखी हो और ऐसे बिहेव करने लगा मानो सुबह सुबह किसी बच्चे को नींद से जगा कर जबरन स्कूल भेजा जा रहा हो। दिन भर का थका हारा जब मैं घर पहुंचा तो सिर्फ एक ही टेंशन सवार थी, क्लाइंट इन्तेजार कर रहा होगा और भले ही अगर मैं उसे टाइम पर काम पूरा करके नही दे पाया तो पूरा तो छोड़िए एक आध प्रोजेक्ट का भी जो पैसा मिलना होगा वो भी गया समझो। हालांकि ये भी एक दीगर बात है कि काम तय समयसीमा में पूरा करने के बाद  ही पेमेंट तब ही होगा जब काम अप्रूव होगा उस पर भी एक-एक क्लाइंट के आगे चार-चार पांच-पांच एजेंसीज लाइन लगाए खड़ी रहती हैं और उन एजेंसियों में मेरे जैसे न जाने कितने लोग रात दिन कलम घिसते और राते काली करते नजर आते है। हर कोई इसी उड़ेधबुन में रहता है कि उसका काम सबसे बेहतर हो। द

शराब-कितनी ख़राब (एक साहित्यिक विचारधारा)

अब जबकि गुजरात की ही तर्ज पर बिहार में भी शराब बंदी लागू हो गयी है और बाकी अन्य  राज्यो मेंभी इस तरह की मांग उठ रही है, तो  इसके समाजऔर स्वास्थ्य पर पड़ने वाले  दुष्प्रभाव को दर किनारकर मैंने शराब को  साहित्यकारों, और कवियों की नजर से देखना पसंद किया. हालांकि न तो मेरा उद्देश्य शराब के सेवन को बढ़ावा देने और न ही इस को समर्थन देने से है. यह मेरा एक व्यक्तिगत  नजरिया मात्र है. लेखको, कवियों और रचनाकारों की  बात की जाए तो ढेरो ऐसे उदाहरण भरे पड़े मिलेंगे जिसमें शराब की बड़ाई ही की गयी है. यहाँ जरूरी  बात उसके सेवन से जुडी न होकर, एक विचारधारा, एक सोच की है जो अक्सर ही कटघरे में खड़ी कर दी जाती है और लेखको को समाज को पथभ्रस्ट करने वाले की तरह देखा जाता है. ऐसा एक वाकया प्रख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन जी से जुड़ा  हुआ है. अपनी पहली पत्नी की म्रत्यु के वियोग जूझ रहेबच्चन जी ने "मधुशाला" की रचना की. हालांकि ये भीएक रोचक तथ्य है कि बच्चन जी ने ताउम्र कभीशराब को हाथ तक नहीं  लगाया. बहरहाल, मधुशाला की लोकप्रियता बढ़ते देख कुछ लोगों ने इसे  मदिरापान के प्रोत्साहन के रूप में देखा और  इस पर रो

दो टूक

किसी भी देश का सिनेमा मुख्यतः दो धड़ो में बंटा होता है। मीनिंगफुल सिनेमा और कमर्शियल। मीनिंगफुल सिनेमा जहां बुद्धिजीवियों और मैचोर्ड लोगो की पसंद होता है वहीं दूसरी तरफ कमर्शियल आम जन को अपील करता है। बहुधा यही कारण होता है जिससे कमर्शियल सिनेमा की सफलता का अंदाजा उसकी कलेक्शन से लगाया जाता है न कि दर्शकों के वर्ग विशेष से। हालांकि सिनेमा के दोनों धड़ो के बीच भी कुछ डायरेक्टर सामंजस्य बिठाने की कोशिश में निरंतर लगे होते है। देखने वाली बात ये है कि भले ही ऊपरी तौर पर देखने पर ये एक रिस्की गेम लगे मगर सिनेमा के दोनों धड़ो पर ऐसा सिनेमा चिरकालीन अपनी छाप छोड़ने में सफल रहता है। पीकू, पा, लस्ट स्टोरीज, मांझी द माउंटेन मैन और ऐसी ही अन्य अनगिनत फिल्में है जो सिनेमा के दोनों धड़ो में सामंजस्य बैठाने में न सिर्फ सफल रही बल्कि भारतीय सिनेमा को एक नई ऊंचाई पर भी पहुचाया। व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि इस तरह के प्रयोग कर पाना सभी डायरेक्टर्स के लिए सम्भव नही है और शायद उन्हें मीनिंगफुल सिनेमा का अनुभव भी न हो। यदि गिने चुने निर्देशकों जैसे अनुराग बसु, आर बाल्की और एक आध अन्य को छोड़ दिया जाए

अल्प विराम-एक स्वचिन्तन

उमरे दराज मांग के लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गए, दो इन्तेजार में। लखनऊ के नवाब और शायर बहादुर शाह द्वितीय का ये शेर जेहन में जब भी आया। ऐसा लगा कि हम खुद ही बहादुर शाह की जिंदगी जी रहे हो। मुल्क से दूर इसी कशमकश में की शायद 100 साल बाद घूरे के दिन भी फिरे। मगर चमत्कार शायद हर किसी के हिस्से में नही आते, और शायद संघर्ष अभी और बाकी है। अपने आप से जेहन में एक प्रश्न कौंधा, "सबसे बुरी चीज क्या है, जो न ही इंसान को जीने देती है और न ही मरने?" और फिर जवाब भी दिल से ही आया, "उन्मीद"। हर रोज कुआँ खोदना और हर रोज पानी पीना। बस यही दिनचर्या बन गयी हो जैसे। उस पर गनीमत होती अगर ऐसा भी हो जाता तो। मगर शायद किस्मत लिखने वाले ने किस्मत लिखने के बाद वो कलम ही तोड़ दी हो। कुछ कहानियां ऐसी होती है जिनको लिखने वाला खुद भी रो देता है और अक्सर यही सोचता है कि आखिर ऐसी कहानी लिखी ही क्यों? न जाने कितनी बार उसके मन में खयाल आता होगा की इस कहानी को आग में ही क्यों न झोंक दे। मगर ये उस की विवशता होती है संभवतः जिसके कारण वो ऐसा  नही कर पाता। क्या कभी ऊपरवाले के मन में भी ऐसा ख़याल

मन की बात-लेखक के साथ

कुछ लोग केवल पढ़ते है और कुछ लोग केवल लिखते है। मगर कुछ लोग पढ़ते और लिखते दोनो है। लिखने वाले के लिए पाठक महत्त्वपूर्ण है उसी तरह पढ़ने वाले के लिए उत्कृष्ट साहित्य। कमोबेश यही अवधारणा कला, खेल और साहित्य सभी के लिए आवश्यक और तार्किक दोनो है। मगर कितनी ही बार कलाकार को दर्शक और साहित्यकार को पाठकों की कमी का शिकार होना पड़ता है। साहित्य, कला और खेल में कुछ भी उचित अथवा अनुचित नही होता,परंतु यह देखने वाले की विचारधारा और आत्मसात करने की प्रवित्ति पर निर्भर करता है। एक कहावत के अनुसार, कुछ किताबें चखने योग्य, कुछ खाने योग्य और कुछ सिर्फ स्वाद बदलने हेतु होती है। परंतु प्रायः ही पाठक केवल मुख्य पृष्ठ (कवर पेज) अथवा लेखक का नाम देखकर मात्र ही किताबे खरीद लेते है और फिर वह साल-दरसाल अलमारी की किसी कोने में पड़ी धूल खाती रहती है। पुराने लेखकों से इतर नए लेखकों को तो अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और स्वयं को स्थापित करने में ही अच्छा-खासा वक्त और मेहनत दोनो लगती है। रही सही कोर कसर अच्छा प्रकाशक मिलने और उस पर होने वाले व्यय से निकल जाती है और लेखक बेचारा यूं ही मारा जाता है। 

POLICY PARALYSIS

POLICY PARALYSIS Off late when Maharashtra government decided to put a ban on plastic from 23 rd June, the initiative was commended by people. And the media showed the effect of this ban, people disposed off the carry bags in the garbage bin. However, I personally feel that, this is just the fab which will sooner be over. If you remember, the same ban was imposed in Delhi a few years ago, but it could not gather much public attention and support as a reason it was called off. Ban on plastic will have certain technical and logical issues which are very difficult to deal with. For example, there are certain domestic products like milk, cereals and other eatables which are suppose to be kept in plastic for two obvious reasons, the very first they have a good shelf life and they are convenient to carry secondly managing supply chain of these perishable goods will be a challenging task in itself. The policy maker should keep in mind that how they are suppose to meet the challenges

Thank you for being nice to me

Ever since I attained serenity in life, I realized the importance of being nice. Though not everyone you come across may have the same ideology. And at time it is rather difficult to find people around indeed good enough to bank upon. Usually acting weird, stupid and ferocious believed to be the traits of showing power over the others and suppressing them to serve your own axe to grind. However, the temperament to showcase power is inherited from our colonial past. Which was fumed by gosh idea of socialism with the blend of spiritual believe of "as you sow, so shall you reap." Despite of years of observations I never came across anyone, who has been proved the saying. In fact during the British reign it served as curse to the Indians, who kept on praying day and night with the deity, believing that some day everything will be fine. And god himself will incarnate to save them from atrocities of British. What else could be the reason that even a few handful people ruled over m