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A tube light that doesn’t work

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A tube light that doesn’t work Much awaited Eid gift turned useless due to over melodrama and subsequently a poor opening on festival day, it seems as audience forget to give  Eidi to Bhai, yes you guessed it right. It’s tube light which only flickered but did not illuminate. At times I really wonder that did Salman really care what script demands? And does Kabir Khan not give any suggestions to his friend to make the necessary improvisation in his skills rather changing the entire script accordingly. In a nutshell, the actor does fall on the script at all. And if you have seen Salman’s previous movies, you can easily find the similarity and monotonous acting pattern that seldom deliver something new. You would have observed that even in serious scenes he cracks the joke, uses rustic language and much more. In an interview, once he said that he considers Govinda as a great actor but he truly follows his style, is a matter of surprise but that is what he actually does. Anywa

Forced Advertisement

off late an advertisement went on air of a famous job portal, mocking designation hierarchy through manipulating jargon CEO and they made it career enhancement officer. Although manipulation and degradation of organizational structure and it's terminology is not new. Way back when a steep slow down of sales of intangible products triggered. Research groups were designated the responsibility to find the reasons of this down fall. Since the major contribution of sales lead of these tangible products were generated through cold calls and people had fed up attending these pesky calls searching for sales prospective. Unlike today TRAI has not been given more teeth to curb on such calls and call blocking was not a great feasible solution as every time the sales person calls from a new number and the telecom companies use to sell users data to these marketing companies like insurance and real state. Undoubtedly they still do up to certain extents. Moreover it portrayed a wrong image of s

गलती की परणीती

मेरे एक मित्र ने एक बहुत ही खूबसूरत बात एक दिन साझा की, "गलती आखिर कहाँ छिपी होती है? निर्णय लेने में अथवा परिस्थितयों में? उनकी बात बहुत ही प्रासंगिक लगी मुझे। वस्तुतः देखा जाये तो दोनों ही परिस्थितियों में गलती होने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है क्यूंकि ये तो अपरिहार्य है, गलती होने की संभावना तभी होगी जब आप कोई कार्य करें अन्यथा अकर्मण्य होकर रहने से आप भले ही गलती करने अथवा गलत होने से बच जाये परन्तु आप का प्रयोजन तो शून्य ही रहेगा। मेरे एक मित्र से एक दिन अज्ञानता वश कुछ भूल हो गयी और उन्होंने सामाजिक लोकलाज के डर से मुझसे मिलने से परहेज करने लगे। काफी दिन तक ऐसे ही चलता रहा और उन्हें लगा की सब कुछ नियंत्रण में है। हाँ अलबत्ता जब कभी भी उनसे मुलाक़ात हुई और उस विषय में कोई प्रसंग चला तो जनाब बड़ी सफाई से बातें गोल कर जातें। मुझे भी उन पर पूरा ऐतबार था नतीजन कभी शक-सुबह की कोई गुंजाईश भी नहीं रही। ये बात अलग है कि कभी-कभी उन्हें विषय विशेष को लेकर इतनी ज्यादा बेचैनी हो जाती थी कि अजीब तरीके का व्यवहार करने लगते। मुझे बड़ा आश्चर्य होता परन्तु न तो वजह का पता था और न ह

Amorphous Amour

They first met in the campus. He was expecting to finish the class,  only a few minutes left. He walked to the staircase and leaned toward the banister while engrossed in his own thoughts. The serenity broke with a rippling feminine voice, 'Excuse me, would you care me to find section SA-2?' 'Humm, off-course we are in the same class. But I have never seen you in the class ever before?' He replied. the staircase was almost empty as they both reached a pretty early for the class. 'yes, in fact, I joined last day only. I guess I missed a lot of lectures, would you mind sharing your notes?She replied perplexedly. 'I would love to. By the way, your accent is a little different. Where are you from?' he asked. 'yes, you guessed it right, I am from Banaras.' she replied. 'me too from Lucknow.' he prolonged the discussion Meanwhile the class got over and they settled down. After a few more days their friendship almost crossed the threshold of the f

दो मुंह वाला आदमी

उसे किसी बात की चिढ़ या शायद नाराजगी थी वरना अक्सर ही कोई बिना वजह के क्यों अनायास ही आक्रोशित हो जाएगा। जितना मैंने उसे समझा वो वैसा तो बिल्कुल नही था जैसा वो दिखता था या फिर जैसा दुनिया उसे समझती थीं। एक असफल सनकी, जी हां संभवता यही सबसे उपयुक्त विशेषण होगा उसका चरित्र चित्रण करने के लिए परन्तु ऐसे ही न जाने कितने ही अन्य विशेषण उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए काफी होंगे। आदमी की अजीब फितरत में शुमार एक विशेष गुण उसके जजमेंटल होने का है, और भले ही हम व्यावहारिक और समझदार होने के चक्कर में चीजों को कितना भी ठोंक-बजा के क्यों न देखे। परन्तु जजमेंटल होने में हम सिर्फ सुनी -सुनाई बातों पर ही सहज यकीन कर लेते है। खास तौर पर जब हमें दूसरों का परीक्षण करना हो। मसलन अगर आपका पड़ोसी किसी के बारे में बोले कि फलां आदमी चोर है या मक्कार है तो क्या आप उसकी बातों का परीक्षण करने जाएंगे। अथवा मान लीजिए कि आपका कोई परिचित किसी लड़की या महिला के चरित्र पर उंगली उठता है, तो क्या आपका उस लड़की या महिला को देखने का नजरिया नही बदल जायेगा। सहज विश्वास और फिर उससे उपजी प्रतिक्रिया ही आपके दृष्

आखिर नाम में रखा क्या है?

नाम में क्या रखा है? ऐसा तो लोगों को बहुत बार कहते सुना है, और तो और मशहूर पश्चिमी लेखक शेक्सपियर ने ही यह कहा था जिसे आज कल लोग गाहे-बगाहे अपना तकिया कलाम बनाये फिर रहे हैI बहरहाल, हम भारतियों में एक बहुत बड़ी कमी है, बिना आगे-पीछे देखे किसी भी चीज को लपक लेने या अपना लेने से जुडी हुई, सो आज कल लोग अंधाधुंध पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण कर रहे हैI फैशन से लेकर पढाई-लिखाई, खेल-कूद सब पर पश्चिमीकरण हावी हो गया हैI अब भले ही कुछ टटपूंजिए लोग अपने-आप को शेक्सपियर का अनुचर ही क्यूँ न समझ ले, असलियत तो कुछ और ही हैI मसलन अब मेरे एक मित्र को ही ले लीजिये उन्हें मेरा नाम बहुत भाता हैI एक दिन कहने लगे कि नाम में कुछ अनूठापन, कुछ नयापन हो तो लगता है की परवरिश में काफी ध्यान दिया गया है, वरना कुछ लोग तो इतने फुरसतिया होते है कि बच्चो का कुछ भी नाम रख देते हैI उनकी बातें मुझे काफी रोचक लगी तो मैंने भी मजाकवश एक पुछल्ला जोड़ दिया, संभवतः मेरे माता पिता को भी संदेह था कि आगे चलकर ये कुछ बड़ा नाम कमा पाए या नहीं तो चलो इसका नाम ही बड़ा रख देते हैI लेकिन यकीन मानिये आपका नाम सिर्फ आपकी पहचान न होकर बहुत क

निंदक नियरे राखिये

जिस दिन सुना उसे कहते हुए कि मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ जो देश के काम आये, समाज के काम आए, मैं मन ही मन मुस्काया अपनी दाढ़ी के कुछ सफेद हो चुके लहराते हुए सफेद बालों का ख़याल करके सोचा, लगता है मियां अभी तक ख्वाबो की ही दुनिया में जी रहे हो शायद l वरना कौन भला इन पचड़ों में पड़ता है, उस पर से जब खुद न कुछ बन सके तो दुनिया को वनाने लगे। अब आप भले ही इसे मेरी तुक्ष्य मानसिकता कहे या फिर मेरी नकारात्मक सोच, परंतु वास्तविकता तो यही है। इसी वक्त के मुफीद ग़ालिब का एक शेर याद आ गया, "चली न जब कोई तदबीर अपनी ए ग़ालिब, तो हम भी कह उठे यारों यहीं मुकद्दर था"। अब जबकि आप मेरी बातों को मेरी मानसिकता और मेरी उस शख़्स से जलन के तौर पर देख रहे है तो यहाँ मैं आपके कुछ पूर्वाग्रह को दूर करना चाहूंगा, अव्वल तो यह कि दुनिया में कोई भी सम्पूर्ण नही है, समर्थवान भी नही है, मसलन कुछ न होने पर यह सोच कर खुद को और दूसरों को दिलासा देना की कुछ होने पर या समर्थवान बन जाने पर अमुक-अमुक काम करूंगा, और फिर कुछ बन जाने के बाद अपनी ही कही बातों को मूर्खता की संज्ञा देकर मजाक उड़ाना। आपको ये भी भली प्रकार य