गेंहूँ बनाम गुलाब


स्वतंत्रता प्रप्ति के संघर्ष के दौरान श्री रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित "गेंहूँ और गुलाब" का वर्णन अनायास ही अंतर्मन के चेत्नाओ को झंझावत कर गया. तात्कालिक कुलीन और बौद्धिक छमता और उस समय की वैचारिक और आर्थिक दुर्दशा का चित्रण जिस भली प्रकार से उन्होंने किया था वह शायद आज भी उतनी ही प्रासंगिक प्रतीत होती है जितना की स्वत्रता सग्राम के दौरान थी. बेनीपुरी जी अपनी रचना में लिखते है की गेंहू जो की कृषक वर्ग और गुलाब जो की वैचारिक और बुद्धिजीवियों का वर्ग था, दोनों ही अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे थे. कृषक वर्ग जहाँ भिन्न- भिन्न प्रकार के उत्पीड़न और सरकारी अपेक्छा का शिकार था वही दूसरी तरफ लेखको और बुद्धिजीवियों का वर्ग भी अनपेक्छित सा महसूस कर रहा था. तात्कालिक व्यवस्था ने स्वयं को केवल वक्तिगत स्तर पर खाने और जीने तक ही सीमित कर दिया था वही दूसरी तरफ बुद्धिजीवियों ने भी अपनी जीविका चलाने और ठौर-थंगर तलाशने में ही व्यस्त थे. हालाँकि बाद में उन्होंने एक बार पुनः साहित्य सृजन और आर्थिक संवृद्धि की आशा प्रकट की. विगत समय और वर्तमान समय के परिदृश्य में फर्क सिर्फ वैचारिक मतभेद के अलावा वैचारिक बाजारीकरण से भी जुड़ा हुआ है. एक तरफ जहाँ किसान अपनी फसल बर्बादी और सरकारी उपेक्छा से ट्रस्ट है वही दूसरी तरफ साहित्यकार, लेखक, और वैज्ञानिक अपने होने या न होने की प्रासंगिकता और अपने महत्त्व को लेकर आंसू बहा रहे है. गेंहू और गुलाब दोनों रक्तरंजित हो रहे है मगर ये सैद्धांतिक बदलाव गेंहू और गुलाब न होकर गेंहू बनाम गुलाब है. गौरतलब है की गेंहू के बिना गुलाब की परिकल्पना व्यर्थ है और गुलाब न हो तो इंसान और जानवर में फर्क ही क्या बचेगा?

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