वैश्विक स्तर पर भारत


आज जबकि भारत विश्व की एक बड़ी लोकतान्त्रिक तथा आर्थिक रूप से सुदृण राष्ट्र बन कर उभरने के करीब है और पूर्ववर्ती तथा तात्कालिक राजनयिकों तथा प्रधानमंत्रियों द्वारा लिए गए दूरदर्शी कूटनीतिक निर्णयों के दम पर आज जबकि भारत एक मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में अपनी छाप विश्व पर काबिज करने के लिए पूरा दमखम लगाये हुए है वही दूसरी तरफ भारत के पडोसी मुल्क उसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता तथा आर्थिक संवृद्धि को अपने बरसो से कायम दबदबे को एक खतरे के रूप में देख रहे है. बिना किसी लाग-लपेट के अथवा पूर्वाग्रह के मै अपनी बात को और स्पष्ट करने के विगत कुछ वर्षो में हुए आर्थिक तथा सुधारवादी घटनाचक्र को आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूंगा.
विगत कुछ वर्षो में (यू. पी.ऐ ) सरकार के कार्यकाल से ही अमेरिका को भारत की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था फूटी आँख नहीं सुहा रही है. और पिछले कई वर्षो से अमेरिका और यू. के . जैसे देश इस बात का रोना रो रहे है की भारतीय कामगार उनके हिस्से का काम छीन रहे है. गौरतलब बात ये है की अमरीकी तथा अन्य विदेशी कम्पनियो को भारतीय कामगार काफी काम लागत पर अपनी सेवाएं दे रहे है. भारत में आउटसोर्सिंग का एक मुख्य कारण यहाँ पर मौजूद सस्ते दर पर मजदूरों की उप्लभ्दता ही है. सर्वविदित है की बढ़ती जनसँख्या सस्ती मजदूरी का प्रमुख स्रोत है. इसके इतर अमेरिका तथा यू.के. में बेरोजगारी बढ़ी और तात्कालिक अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस बात पर चिंता जताते हुए आप्रवासन (इमीग्रेशन) सम्बन्धी नियम सख्त कर देने के साथ ही साथ आउटसोर्सिंग सम्बन्धी सेवाओ (मुख्यता भारत समबंधित) में कटौती कर दी. यू. के. में तो हालात और भी बदतर हो गए विरोध के स्वर सिर्फ सत्ता तथा संसद तक सिमित नहीं रहे बल्कि इनकी आंच स्कूल- कॉलेजेस तक पहुँच गयी. भारतियों को न केवल अमानवीय छति पहुचाई गयी बल्कि उनकी सम्पत्तियों को भी निशाना बनाया गया. गौरतलब है की भारत के इतर अमेरिका तथा अन्य विकसित देशो में लॉबिंग को कानूनी मान्यता प्राप्त है और इन्ही कम्पनियो ने अपने घटते व्यापार (मुनाफे की कमी) के लिए भारत के अनियोजित ( कुछ मुद्दों में गैरकानूनी) पायरेसी तथा अन्य दुसरे विकल्पों को जिम्मेदार ठहराया. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तो एक बार अपने भाषण में सीधे-सीधे इस बात का इशारा किया की भारत में पायरेसी सम्बन्धी नियम नियमों की अनदेखी का ही परिणाम है की नेहरू प्लेस जैसी जगहों पर पायरेटेड सॉफ्टवेयर की एक मंडी ही विकसित हो गयी है. वही दूसरी तरफ अमरीकी दवा बनाने वाली कम्पनियो ने आई. ऍम. एफ. ऊपर दबाव बनाना शुरू किया जिससे जेनेरिक दवाइयों की देसी खेप को बाजार में पहुँचने से रोका जा सके और महंगे दामो पर मिलने वाली अमेरिकी दवाइयों की अनवरत सप्लाई निरंतर जारी रह सके. हालाँकि इस प्रकार से सीधी रोक संभव नहीं थी दूसरी बात ये भी की अगर कही भारत में ही वृहद स्तर पर वस्तुओं का निर्माण आरभ हो गया तो निसंदेह ये उन कम्पनियो के लिए भी अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाली बात होती. नतीजन उन्होंने प्रच्छन रूप से भारतीय वस्तुओ तथा दवाइयों में कमी निकलना शुरू कर दिया. रही सही कसर भारत के सुधारवादी और सख्त निर्णयों की बदौलत भारत अपने खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित करा कर कर दिया. और भले ही पांच सालो के लिए ही सही भारत को एक अल्पकालिक रहत दे दी.
यू. एन. सिक्योरिटी कॉउंसिल की बैठक में जहाँ चीन और पाकिस्तान तो प्रत्यक्छ रूप से भारत की स्थायी सदस्य्ता का विरोध कर रहे थे वही दूसरी तरफ साउथ कोरिया तथा अमेरिका प्रच्छन रूप से भारत के विरोधी थे. हालाँकि इस बार भी अमरीका और साउथ कोरिया की चुप्पी ने जहाँ एक तरफ भारत की यूनाइटेड नेशन में स्थायी सीट की दावेदारी को और मजबूत किया वहीँ पाकिस्तान को अंतराष्ट्रीय आतंकवादी सैयद सलाउद्दीन के मनगढंत वादो पर ऐतबार कर के सिक्योरिटी कॉउंसिल को चिट्ठी लिखना जहाँ मेह्गा पड़ गया वही चीन भारत का विरोध करने वाला एक मात्र देश बचा.वैश्विक मंच पर धुर भारत विरोधियों की यह एक करारी हार है वही दूसरी तरफ चीन के गिरते औद्योगिक उत्पाद जो की मुख्यता घटती वैश्विक मांग को लेकर है चीन के लिए कोढ़ में खाज का काम कर रही है. अपनी घरेलु अर्थव्यवस्था को पटरी पर बनाये रखने के लिए चीन द्वारा अपनी कर्रेंसी का अवमूल्यन निसंदेह एक स्वागत योग्य कदम नहीं कहा जा सकता है. वही तात्कालिक भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा विदेश भ्रमण तथा विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने की दिशा में उठाया गया कदम निसंदेह उन लोगों के आँख की किरकिरी बना हुआ है. देखने वाली बात ये है की घरेलु मोर्चो पर ज़ी. यस. टी. तथा भूमि सुधार जैसे अधिनियमों का हाशिये पर चले जाना भारत के लिए क्या नयी सौगात ले कर आता है. फिलहाल तो ये देखना है की ऊंट किस करवट बैठता है?

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