साहित्यकारों का साहित्य प्रेम


अंग्रेजी की कहावत " एव्री पब्लिसिटी इस गुड पब्लिसिटी" अर्थात हर प्रकार का प्रचार एक अच्छा प्रचार होता है वर्तमान परिदृश्य में साहित्यकारों का साहित्य अकादमी सम्मान लौटा देने के का निर्णय निसंदेह साहित्य के राजनीतिकरण का ही एक स्वरुप है. गौर करने वाली बात ये है की आज तक हर सम- सामायिक मुद्दे पर चुप्पी साढ़े रहने वाले इन स्यूडो इंटेल्लेक्टुअल (छद्म बुद्धिमानो) की अचानक ही अंतकरण की जाग्रति का परिराम न होकर सिर्फ प्रचार बटोरने तक ही सीमित है. जिन बुद्धिजीवियों को दादरी कांड एक भयावह स्वप्न के सामान प्रतीत हो रहा है ये वो ही लोग है जिन्होंने गोधरा कांड, ईसाई मिशनरीज के तोड़-फोड़, गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी और मुज्जफर पुर के कांड पर चुप्पी साध रखी थी. क्यों नहीं इन घटनाओ के प्रतिरोध स्वरुप इन लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराया. क्या सिर्फ पब्लिसिटी के लिए दादरी कांड का हवाला दे कर साहित्य सम्मान लौटना एक पब्लिसिटी स्टंट नहीं तो और क्या है? कुछ साहित्यकार इसे मुरगन जैसे लेखको की मृत्यु से उपजी सरकारी अनदेखी से भी जोड़ कर देख रहे है , जबकि वास्तविकता इसके ठीक इतर है, अमेरिकी जर्नलिस्ट डेनियल पर्ल की हत्या के विषय में उनकी चुप्पी निसंदेह आस्चर्यचकित करने वाली है? क्यों नहीं तस्लीमा नसरीन और सलमान रश्दी के जयपुर लिटरेचर फेस्ट के बहिष्कार के खिलाफ इन लोगों ने आवाज़ उठायी.
इतिहास गवाह है की साहित्यकारिता शायद ही कभी चाटुकारिता से ऊपर उठ कर कुछ कर गुजरने की ललक के साथ जीवित रही हो. भारतेंदु हरिश्चंद्र और धनपत राय( मुंशी प्रेमचन्द्र) ने भी भारतीय जनता को जगाने के लिए उस समय के तात्कालिक वर्ग संघर्ष और तात्कालिक परिदृश्य की मनो स्थिति का वर्णन बड़ी चतुरता से किया और प्रतयक्ष किसी भी सरकारी (ब्रिटिश) टकराव से बचते रहे. वर्तमान परिदृश्य में हम कहीं बेहतर स्थिति में है और साहित्य का सृजन कहीं अच्छे तरीके से कर सकते है डेमोक्रेसी से मिली स्वतंत्रता का कहीं न कहीं दुरूपयोग साहित्यकारों की तुच्छ मानसिकता का परिचायक है.

Comments

Popular posts from this blog

अपने पतन के स्वयं जिम्मेदार कायस्थ

Pandit ji ka ladka (ek adhoori katha)

THE TIME MECHINE