क्योंकि वो कहते है.........



"हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब एक दिन" बचपन के दिनों में अभिप्रेरित करने वाले इस गीत के बोल बीते दिनों के साथ ही धुंधलाते चले गए. आगे बढ़ने के लिए जीवन के सबसे बड़े अनुत्तरित प्रश्न का जवाब खोजना शायद अभी भी जारी है . इससे क्या होगा? आखिर क्या भविष्य है तुम्हारे इन बेकार के प्रयोजनों का? ऐसे ही जाने कितने ही प्रश्न आज भी पूछे जाते है और आज भी उनकी प्रासंगिकता उतनी ही है, फिर भी जवाब नदारत है. अक्सर ही मैं खुद भी इस सवाल के जवाब को लेकर पसोपेश में पड़ जाता हूँ लेकिन दुसरे ही छड फिर उसी कीमियागिरी में लग जाता हूँ. शायद अन्तर्निहित एक आवाज मुझे ऐसा करने को प्रेरित करती है.
क्योंकि वो कहते है की मैं एक दिन कामयाब हूँगा और चूँकि उन्हें मुझसे ज्यादा दुनियादारी का पता है तो निसंदेह वो गलत नहीं हो सकते. विगत सालो में उन्होंने जाने कितनी बार ये बात कही और जाने कितनी बार मदद का आश्वासन भी दिया. हालांकि गुजरे हर वक़्त के साथ ये आश्वासन सिर्फ आश्वासन ही रह गया. गाहे-बेगाहे हर उचित- अनुचित अवसर पर हालचाल पूछना मानो इसी आस्वासन को याद दिलाने का उपक्रम मात्र हो. मगर हाय रे बेचारगी ! शायद वो समझ नहीं रहे थे या शायद हम समझाने में असमर्थ थे. बातचीत सिर्फ हालचाल पूछने तक ही सीमित रह गयी. ही जाने कितनी बार अकेले में हमने अपने अंतर्मुखी स्वभाव को कोसा और ही जाने कितनी बार परोक्छ रूप से उन्हें जतलाने कि कोशिश भी की मगर नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात. सत्तामद के नशे में चूर सुग्रीव को राम की मित्रता की प्रतिज्ञा भला कौन और कैसे याद दिलाये? मित्रता की सबसे बड़ी कसौटी उसमे अन्तर्निहित परस्पर सहयोग की भावना होती है. परन्तु केवल सामर्थ्य के बल पर ही सहयोग का आश्वासन तो स्वार्थ की नीति को बढ़ावा देगा. कृष्ण और सुदामा की दोस्ती बड़ी है या अर्जुन और कृष्ण की. निसंदेह आप कहेंगे दोनों ही सूरतो में दोस्ती के आयाम भिन्न- भिन्न है, और वास्तविकता में देखा जाए तो कृष्ण और सुदामा की दोस्ती केवल सामर्थ्य और सहयोग पर आधारित है. वही दूसरी तरफ अर्जुन और कृष्ण की दोस्ती, भक्ति और सहयोग पर आधारित है यहाँ पर सामर्थ्य का कोई स्थान नहीं है. अर्जुन स्वयं के बल पर भी युद्ध लड़ सकता था परन्तु अपने स्वयं के बल पर गरीबी के दुष्चक्र से निजात पाना सुदामा के लिए असंभव था.
वो कहते है कि मैं कुछ कर सकता हूँ और चूँकि वो कहते है इसलिए मैं प्रयासरत भी हूँ परन्तु उस सहयोग का क्या जो वो करने का आश्वासन देते है? लोग कहते है कि दुनिया बहुत ही छोटी है और यक़ीनन वो सही कहते होंगे. अक्सर ही उनकी और मेरी मुलाकात सार्वजानिक समारोहों या राह चलते हो जाती है और अनायास ही मेरे चेहरे पर एक चमक और दिल में एक उन्मीद जग जाती है कि  शायद इस बार आश्वासन पूरा होगा या फिर शायद मेरे लिए कोई खुशखबरी हो लेकिन गोया ये उनका अनदेखा करने का मासूम तरीका कि हर बार खुद ही मैं अपने को गुनहगार पाता हूँ. ऐसा नहीं है कि मैंने कभी खुद से इस बाबत बात नहीं की लेकिन जिस साफगोई से वो दुबारा आश्वासन देकर निकल गए कि मैं मन ही मन मुस्कुरा के रह गया.

वो कहते है और क्योंकि वो कहते है मुझे इस बात पर ही ऐतबार है.  

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