(सआदत हसन) मंटो और मैं
मंटो के साथ अपनी तुलना करना रेशमी लिबास में टाट का पैबंद लगाने जैसी बात होगी, लेकिन अब इस बात से कैसे मुकर जाऊं की मंटो की साफगोई और सादगी का सुरूर इस कदर जेहनोजिगर पर इस कदर काबिज है की मैं उनमे अपना ही अक्स देखता हूँ. फिर भी मेरा पाठको से नम्र निवेदन है की अगर किसी को मेरी रचना से कोई शिकायत हो तो मैं तहेदिल से माफ़ी चाहूंगा. बहरहाल मेरी मंटो से तुलना सिर्फ उनके विचारों और मेरे विचारो की समानता से है, अपने एक लेख "मैं क्या लिखता हूँ?" में वो अपनी जिंदगी के बारे में बहुत साफगोई और संजीदगी से लिखते है की मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे कुछ कहना होता है और मैं लिकता इसलिए हूँ ताकि कुछ कमा सकूँ ताकि कुछ कहने के काबिल हो सकूँ. वही दूसरी तरफ अपने दुसरे लेख " मैं अफ़साना क्यों लिखता हूँ?" में वो इस बात से भी गुरेज नहीं करते की खाली जेब से कोई कहानी या रचना नहीं लिखी जाती. सच भी है लोग चीजों के मायने बाजार में उसका दाम लगाकर करते है और शायद ही लोग इस बात से कोई इत्तेफाक रखते हो की आप क्या करते है बल्कि कितना कमाते है या आपके काम का दाम कितना है. खैर मंटो इस बाबत भी बिना किसी लाग-लपेट के अपने को जेबकतरा तक घोषित कर देते है. अपने लेख "मैं कहानीकार नहीं जेबकतरा हूँ" में तो उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती से एक लेखक के कहानी ढूंढने और मनपसंद विषय अथवा विषय वस्तु न मिलने पर होने वाली खीझ का वर्णन किया है. ठीक ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी है अगर काफी दिन से कुछ न लिखूं तो लगता है मानो कुछ खो गया हो और अगर लिखने की लाख कोशिशों के बाद भी अगर कोई कहानी या रचना दिल से न निकले तो मैं कचोटता है. हालाँकि ऐसा कम ही होता है की लोग मेरी लेखनी की बेरुखी पाकर पाएं लेकिन फिर भी मैं अपने को गुनहगार ही समझता हूँ. व्यक्तिगत रूप से न तो मैं बहुत ही दूरदर्शी व्यक्ति हूँ और न ही बहुत ज्ञानवान फिर भी न जाने कब और कैसे ये चस्का लग गया. अब लिखता हूँ तो लोगों को पसंद आता है या पसंद आता है इसलिए लिखता हूँ ये बता पाना मुश्किल है. हाँ लेकिन इतना जरूर है की अगर काफी दिन से कुछ न लिखूं तो लोग-बाग़ खुद ही पूछने लगते है कुछ नया लिखा क्या ? बाकियों को तो पता नहीं लेकिन लेखक के ठौर पर मेरी एक व्यवहारिक कमजोरी है और वो कमजोरी है मेरा आलसी स्वभाव, न ही जाने कितने लेख , कहानिया और नाटक उस दिन की बाँट जोह रहे है जब उनके जन्मदाता एक बार फिर से उनकी सुध लेगा. हाँ ये अलग बात है की कुछ पाठक मेरी अधूरे लेख और कहानिया खरीदने को तैयार बैठे है. अब इसे काहिलियत न कहिये तो और क्या कहिये वक़्त और काबिलियत साथ-साथ चले ये जरूरी तो नहीं.
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