अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो........


महिला दिवस जा चुका है और बाकि अन्य दिनों की तरह महिलाओं और महिलाओं से जुड़े मुद्दों को एक बार फिर से हाशिये पे धकेल दिया गया है. अपनी इस पोस्ट के जरिये मैं वर्ण, जात, वर्ग या समूह विशेष पर नेताओं की तरह न तो कोई तंज कस्ना चाहता हूँ न ही मेरा उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुचाने का है फिर भी अगर किसी पाठक गण को मेरी पोस्ट से कोई आपत्ति हो तो मैं इसके लिए दिल से छमा मांगना चाहूँगा.
महिला दिवस या नारी सशक्तिकरण जैसे मुद्दों का मैं विरोधी नहीं हूँ परन्तु इनकी प्रासंगिकता मेरी समझ के सर्वथा पर है. मैं अक्सर लोगों से पूछता हूँ की क्या वास्तव में नारीसशक्तीकरण एक विशेष मुद्दा है. मेरी समझ में तो ठीक इसके विपरीत पुरुष सशक्तिकरण की आवश्यकता है. निसंदेह आप मेरी बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते हो मगर हम २१ वीं शादी में जी रहे है जहाँ औरतो और मर्दों को लगभग सामान अधिकार प्राप्त है, बस, ट्रैन की आरक्षित सीट से लेकर ऑफिस के लचीले(फ्लेक्सिबल) टाइम की बात करें को ये फर्क साफ़ देखा जा सकता है. औरतों को ये आजादी है की वो किसी भी सीट पर बैठ सकती है, ऑफिस घडी के कांटे मिलते ही छोड़ सकती है और तो और अपने सहयोगी को गाली- गलौज या अभद्त्रता के साथ भी बात कर सकती है लेकिन यही बात आदमियों के ठीक विपरीत प्रतीत होती है. लेट होने पर जहाँ बॉस के तानो के साथ- साथ टाइम पर घर निकलने का सपना एक कोरी गप्प के सिवाय कुछ भी नहीं. आदमियों की जिंदगी उस निरीह प्राणी की तरह होती है जिसे न घर पर चैन है न ही बाहर. टाइम से पैसा न मिले तो घर पर कुड-कुड और मांगने जाये तो बॉस से. और तो और अगर आपकी अपने बॉस से हुयी बहस का जिक्र अपनी पत्नी, माँ, या गर्लफ्रेंड से कर दिया तो वो भी आपही की गलती निकालेगी. क्या जरूरत थी पंगा लेने की? दो बात अगर बॉस ने कह दी तो चुप-चाप सुन लेते वगैरह-वगैरह. अब इसके ठीक विपरीत अगर कोई औरत या लड़की यही बात किसी लड़के से कहे तो वो फ़ौरन उसका साथ देने को तैयार हो जायेगा. औरतों को अपनी पसंद के कपडे पहनने से लेकर अपनी मर्जी का करने की पूरी आजादी होती है. अपनी किताब "मेन फ्रॉम मार्स, वीमेन फ्रॉम वीनस" के राइटर "जॉन ग्रे" लिखते है की "न चाहा जाना आदमी के लिए धीमी मृत्यु का काम करता है." और महिला सशक्तिकरण गाहे- बेगाहे ही समाज में असंतुलन लाने का एक जरिया है. हर व्यक्ति के दो हाथ होते है और अमूमन दाहिना हाथ, बाएं हाथ के मुकाबले ज्यादा शक्तिशाली होता है. लेकिन इसका ये मतलब हरगिज नहीं है की आप जिम जाकर कसरत सिर्फ बाएं हाथ से करे.
मेरे एक मित्र अक्सर मजाक में कहते की जितनी ज्यादा आजादी और सुविधाएं औरतों को प्राप्त है उतनी शायद ही किसी जनम में आदमियों को नसीब हो. शादी के पहले मान०बाप की जिम्मेदारी होती है और शादी के बाद पति की. औरतें अपनी मर्जी से नौकरी कर सकती है और छोड़ भी सकती है जबकि ऐसी आजादी शायद ही किसी आदमी को नसीब हो. गूगल के पैट्रिक पिचेत्ते ने ५२ साल की उम्र में रिटायरमेंट का एलान करके ऐसी ही कुछ सनसनी मचा दी, पैट्रिक अपने रिटायरमेंट के बाद अपनी पत्नी के साथ समय व्यतीत करना और दुनिया देखना चाहते है. गौर करने वाली बात ये है की ५२ साल में रिटायरमेंट कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन उसके पीछे की वजह लोगों को रास नहीं आ रही. क्या यही बात एक औरत ने कही होती तो हमारी प्रतिक्रिया सर्वथा विपरीत नहीं होती? एक तरफ तो सामान अधिकार और बराबरी की बात कर रहे है वही दूसरी तरफ ये सशक्तिकरण का राग अलाप रहे है. निसंदेह औरतो को बराबरी का अधिकार दिया जाना चाहिए लेकिन न की आदमियों की अनदेखी करके. नियम सामान हो तभी खेल का मजा है अन्यथा ये तो पछपात ही हुआ. आरक्षण और सशकीकरण की बैसाखी से हम औरतों को कितना सबल बना पाएंगे ये तो आने वाला वक़्त ही बता पायेगा. इतिहास गवाह है की आरक्षण और सशकीकरण जैसे आडम्बरों से सिर्फ समाज में अव्यवस्था ही फैली है न की कोई विकास हुआ है.
आलेख:- डी. यस. गौरव

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