Posts

POLICY PARALYSIS

POLICY PARALYSIS Off late when Maharashtra government decided to put a ban on plastic from 23 rd June, the initiative was commended by people. And the media showed the effect of this ban, people disposed off the carry bags in the garbage bin. However, I personally feel that, this is just the fab which will sooner be over. If you remember, the same ban was imposed in Delhi a few years ago, but it could not gather much public attention and support as a reason it was called off. Ban on plastic will have certain technical and logical issues which are very difficult to deal with. For example, there are certain domestic products like milk, cereals and other eatables which are suppose to be kept in plastic for two obvious reasons, the very first they have a good shelf life and they are convenient to carry secondly managing supply chain of these perishable goods will be a challenging task in itself. The policy maker should keep in mind that how they are suppose to meet the challenges

Thank you for being nice to me

Ever since I attained serenity in life, I realized the importance of being nice. Though not everyone you come across may have the same ideology. And at time it is rather difficult to find people around indeed good enough to bank upon. Usually acting weird, stupid and ferocious believed to be the traits of showing power over the others and suppressing them to serve your own axe to grind. However, the temperament to showcase power is inherited from our colonial past. Which was fumed by gosh idea of socialism with the blend of spiritual believe of "as you sow, so shall you reap." Despite of years of observations I never came across anyone, who has been proved the saying. In fact during the British reign it served as curse to the Indians, who kept on praying day and night with the deity, believing that some day everything will be fine. And god himself will incarnate to save them from atrocities of British. What else could be the reason that even a few handful people ruled over m

थोथा चना बाजे घना

परिपृष्ठ- विगत कुछ दिनों पूर्व मेरे एक वरिष्ठ मुझसे अंतरास्ट्रीय संबंधों के विषय में अपना ज्ञान बांटने और मेरे ज्ञान का परीक्षण करने आये। हालांकि मैं प्रायः ऐसे वाद-विवादों से बचने की यथाश्रेष्ट चेष्टा करता रहता हूँ, क्योंकि इसकी परिणीति अक्सर ही स्वस्थ और लोकोहित न होकर बल्कि कलुषित प्रकृति की होती है। अब चूंकि हर व्यक्ति दूसरे से एक पृथक विचारधारा रखता है अतः प्रायः ऐसे विषय विवाद और विषाद का कारण बनते है। उस पर भी यदि ये परिचर्चा दो समान व्यक्तियों के बीच सीमित न रहकर व्यक्तिगत पराकाष्ठा और दम्भ पर आकर समाप्त होती हो तो ऐसे में बुद्धिमान व्यक्ति चुप रखना ही उचित समझते है। भले ही मैंने उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश की हो परंतु इस बात को अधिक विस्तार देने के बजाय मैंने चुप रहना ही श्रेष्ठ समझा। उन्होंने आते ही मुझसे प्रश्न दागा कि हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत के प्रधानमंत्री से मिले और अनेक मुद्दों पर बात की। मैं इस विषय पर क्या राय रखता हूँ और इस मुलाकात में ऐसी विशेष बात क्या है? मैंने अपने चिरपरिचित अंदाज में न्यूक्लिअर डील संबंधी चिंताओं को उ

अडॉप्ट अ हेरिटेज का सच

‌ ‌अंग्रेजी की एक कहावत 'पेन्नी वाइज पौंड फुलिश' जिसका हिंदी में अर्थ होता है मोहर लुटी जाए, कोयले पर छाप पड़े। अर्थात अधिक मूल्यवान वस्तु की परवाह न करना और अपेक्षाकृत कम मूल्य की वस्तु के विषय में चिंतित होना। कमोबेश ऐसी ही कुछ उहापोह की स्थिति सरकार द्वारा शुरू की गईं "अडॉप्ट अ हेरिटेज" स्कीम के कारण उपजी है। जिसके तहत दिल्ली के ऐतिहासिक धरोहर लाल किला को 5वर्षो के लिए देखरेख और मरम्मत कार्यो के लिए डालमिया समूह को 25 करोड़ के अनुबंध पर दिया गया है। गौरतलब बात ये है कि कुछ भ्रामक पोस्ट के जरिये अलग अलग प्रतिक्रिया देकर इस विषय को कभी राष्ट्रवाद और कभी हिंदुत्व से जोड़ कर पेश किया जा रहा है। वास्तव में देखा जाए तो इसे सरकारी प्रशासनिक तंत्र की विफलता से जोड़कर देखा जा सकता है, जहां एक तरफ तो सरकार को राष्ट्रीय स्मारकों पर होने वाला व्यय वहनीय नही लग रहा है तो दूसरी तरफ संभवतः विगत सरकारों की तरह ही भाजपा को अपनी जुमलेबाजी 'न खाऊंगा और न खाने दूंगा' गले की फांस बनती सी लग रही है। अब भले ही मोदी सरकार के दामन पर अभी तलक कोई भी भ्रस्टाचार का सीधा सीधा आरोप न

उफ्फ ये कमज़र्फ मोहब्बत

सुनील और राधा एक साथ एक ही कॉलेज में पढ़ते है। दोनो ही एक मध्यम परिवार से ताल्लुक रखते है। सुनील के बाप का सपना है कि बेटा पढ़-लिख कर कुछ बन जाये तो घर का भी सहारा हो जाएगा और बेटे की जिंदगी भी संवर जाएगी। वहीं राधा के बाप को लगता है कि बेटी का शिक्षित होना जरूरी तो है साथ ही साथ बेटी की शादी के लिए एक अनिवार्य अहर्ता भी है। बाकी सभी बिंदुओं को अगर दरकिनार कर दे तो कहीं न कहीं राधा को भी ये बात पता है कि पढ़ाई पूरी होने के साथ ही साथ उसके घर वाले उसका कहीं न कहीं रिश्ता कर देंगे। राधा वक्त के साथ चलने वालों में से है, वो कहते है न कि लड़की गाय होती है गाय, एक खूंटे से खोल कर दूसरे में बांध दो। नतीजतन राधा की अपनी जिंदगी से कुछ खास अपेक्षाएं नही है। दूसरी तरफ सुनील को लगता है कि भले ही वो एक मध्यम परिवार में पैदा हुआ है मगर वह इसे अपनी नियति नही बनाना चाहता है। उसे अपने ज्ञान और मेहनत पर पूरा भरोसा है और उसे लगता है कि मेहनत और लगन के बल पर सब कुछ पाया जा सकता है। इसी बीच कुछ ऐसा होता है जिसकी किसी ने भी कल्पना नही की होती है। वो कहावत है न, अपोजिट अट्रैक्ट्स। हां बस वही बिल्कुल फिट बैठ

How to deal with stubborn boss

One of my friend is working in a good company. He has joined this organization recently. The very first day he came after the interview, he was very pexed. He shared his experience of interview. His boss grilled him so much that he was dead sure that he will not through with it. However it came with the surprise that he has been selected after a week. Many of his friend suggested him that usually employers do so to check the stability and confidence of prospective employee. They named it pressure interview. The confidence of my friend was almost shackled. However, he joined the organization sidelining his intuition of being screwed every time. A few days passed when things started turning out other way. Every time he reaches office, he used to be afraid of loosing his job or to be rebuked for every other thing. His boss started reminding him that he is getting much more than what he deserves. Nagging in all his acts became a regular fashion for his boss. His senior also tried to

हंगामा है क्यों बरपा.....

पदमावत रिलीज हो गयी, करनी सेना की धमकी मात्र एक गप्प साबित हुई और लोगों ने इसका मजाक बनाना भी शुरू कर दिया। इन सब विवादों के बीच बुद्धिजीवी वर्ग दो खेमो में बंट गया और पिक्चर को लेकर अपनी अपनी राय देने में जुट गया। परंतु ध्यान से देखा जाए तो दोनों पक्षों की दलीलों में ज्ञान का पुट कम और तर्क का पुट ज्यादा लगता है। जिस प्रकार फौजदारी के मामले देखने वाले वकील के लिए ज्ञान से ज्यादा जरूरी तर्क होते है कमोबेश ठीक ऐसा ही कुछ इस पर बहस करने वाले पक्षो पर भी लागू होता है। व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो इस फ़िल्म को लेकर उठ रहे विवाद निर्मूल ही है, और इसके पीछे मेरे अपने तर्क है। सर्वप्रथम तो भंसाली को करनी सेना का शुक्रगुजार होना चाहिए था। क्योंकि करनी सेना की वजह से ही सही लंबे अंतराल के बाद कोई ऐतिहासिक फ़िल्म (हिस्टोरिकल मूवी) इतनी बड़ी हिट हो सकी अन्यथा अभी तक जितनी भी ऐतिहासिक पिक्चरें बनी है उसमे से चंद पिक्चरें जैसे मुगले आजम अथवा बाजीराव मस्तानी वगैरह को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई फ़िल्म इतनी जबरदस्त हिट रही हो। उस पर से भंसाली जैसे डायरेक्टर ने तो अकेले मूवी का बीमा ही