थोथा चना बाजे घना

परिपृष्ठ-

विगत कुछ दिनों पूर्व मेरे एक वरिष्ठ मुझसे अंतरास्ट्रीय संबंधों के विषय में अपना ज्ञान बांटने और मेरे ज्ञान का परीक्षण करने आये। हालांकि मैं प्रायः ऐसे वाद-विवादों से बचने की यथाश्रेष्ट चेष्टा करता रहता हूँ, क्योंकि इसकी परिणीति अक्सर ही स्वस्थ और लोकोहित न होकर बल्कि कलुषित प्रकृति की होती है। अब चूंकि हर व्यक्ति दूसरे से एक पृथक विचारधारा रखता है अतः प्रायः ऐसे विषय विवाद और विषाद का कारण बनते है। उस पर भी यदि ये परिचर्चा दो समान व्यक्तियों के बीच सीमित न रहकर व्यक्तिगत पराकाष्ठा और दम्भ पर आकर समाप्त होती हो तो ऐसे में बुद्धिमान व्यक्ति चुप रखना ही उचित समझते है।
भले ही मैंने उन्हें अपनी बात समझाने की कोशिश की हो परंतु इस बात को अधिक विस्तार देने के बजाय मैंने चुप रहना ही श्रेष्ठ समझा। उन्होंने आते ही मुझसे प्रश्न दागा कि हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत के प्रधानमंत्री से मिले और अनेक मुद्दों पर बात की। मैं इस विषय पर क्या राय रखता हूँ और इस मुलाकात में ऐसी विशेष बात क्या है? मैंने अपने चिरपरिचित अंदाज में न्यूक्लिअर डील संबंधी चिंताओं को उजागर किया। उन्होंने मेरी बात का मजाक उड़ाते हुए कहा कि असली वजह समसामयिक मुद्दों पर चर्चा का तो केवल दिखावा है असलियत में तो चीनी राष्ट्रपति जिन्हें अब संवैधानिक सुधार के बाद आजीवन राष्ट्रपति का कार्यकाल प्राप्त हो गया है, उन्हें अपनी जनता को दिखाने के लिए ये सब करना पड़ रहा है ताकि जनता में उनकी एक अच्छी छवि बनी रह सके।
उनके इस तर्क में ज्ञान का पुट कम और अपने ज्ञानी होने का दम्भ ज्यादा झलक रहा था। कमोबेश यही हाल हर उस व्यक्ति का है जो अधकचरे ज्ञान की पोटली लादे-लादे घूम रहा है और हर विषय के बारे में अपने आपको दक्ष समझता है, ऐसा भी संभव है कि अब जबकि दुनिया में खबरों का अंबार लगा हुआ है आप जो भी विषयवस्तु पढ़ रहे हो वो केवल सतही ज्ञान से स्वरूप हो और आप उसे ही सम्पूर्ण ज्ञान मान के अपने आपको विद्वान समझ रहे हो।
खैर, इस सब के बावजूद भी मैं अपने आपको रोक नही पाया, और इस विषय संबंधी अपने ज्ञान को आपके सम्मुख रख रहा हूँ। आशा करता हूँ आपको पसंद आएगा, अगर कोई कमी अथवा सुझाव हो तो बेझिझक आप मुझसे साझा कर सकते है।

जे.एन.यू में एक किवदंती मशहूर है कि ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो अपने जीवन के आरंभिक वर्षो में कम्युनिस्ट और जीवन के बाद के वर्षो में समाजवादी न हो गया हो। और सच पूछा जाए तो ये वास्तविकता भी है। अपने जीवन काल के शुरुआती वर्षो में हम सभी कम्युनिस्ट होते है, बदलाव,परिवर्तन और क्रांति की बात करते है। अपनी उपेक्षा और संसाधनों की बंदरबांट का विरोध करते है। परंतु बाद के वर्षों में हम समाजवाद की ओर अग्रसर हो जाते है, समता और सामंजस्य में गठजोड़ स्थापित कर लेते है। अपनी बात को और स्पष्ट ढंग से समझाने के लिए एक किस्सा कहना अधिक प्रासंगिक होगा।
एक बार किसी व्यक्ति ने सुना कि मुल्ला (नसरुद्दीन) कम्युनिस्ट हो गया है। इस बात की परीक्षा के लिए वह मुल्ला के पास जाकर मुल्ला से बोला, " मुल्ला सुना है कि तुम कम्युनिस्ट हो गए हो?" मुल्ला ने कहा, "तुमने बिल्कुल सही सुना है।" व्यक्ति ने इस बात की पुष्टि के लिए तपाक से तर्क दिया,"क्या इसका अर्थ जानते हो तुम, कि यदि तुम्हारे पास दो घर हो तो उनमें से एक तुम्हें मुझे देना होगा, दो गाड़ियां हो तो एक गाड़ी मुझे देनी होगी।" मुल्ला ने स्वीकृति में सिर हिलाया। व्यक्ति ने अगले ही क्षण दूसरा तर्क दिया, "तुम्हारे पास दो गधे हो तो एक मुझे देना होगा।" इतना सुनते ही मुल्ला तेज आवाज में चिल्ला कर बोला,"निकल जाओ यहां से, मैं तुम्हें अपना गधा नही दूंगा।" व्यक्ति ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा,"मगर अभी-अभी तो तुमने कहा था कि तुम कम्युनिस्ट हो गए हो।" मुल्ला ने कहा,"हां-हां मैं कम्युनिस्ट ही था, जब तुमने मेरे घर और गाड़ी को बांटने के लिए कहा। मगर जब तुमने मेरे गधे के बंटवारे की बात की तो मैं कम्युनिस्ट नही रहा। क्योंकि मेरे पास न तो दो घर है और न ही दो गाड़ियां। मगर गधे दो जरूर है और मैं उन्हें किसी को बांट नही सकता।"
अब भले ही आप इस कहानी को किसी अन्य तरीके से ले परन्तु इस कहानी में छिपा सार यही है कि कम्युनिस्ट उन्हीं चीजो के बंटवारे की बात करते है जिसके उनके पास अभाव है अथवा नही है और जो उनके पास है वो उसे साझा करना नही चाहते। ग़ौरतलब है कि ऐसा ही कुछ किस्सा कम्युनिस्ट और कम्युनिस्ट विचारधारा रखने वाले चीन का भी है। भारत और चीन ने लगभग एक ही समय में आजादी पायी। मगर जहां चीन के राष्ट्र निर्माता माओत्से तुंग ने आरंभिक दौर में न केवल चीन को एक बंद अर्थव्यवस्था (क्लोज्ड इकोनॉमी) में बदल दिया बल्कि बाकी दुनिया से इसका संपर्क ही काट दिया। औद्योगिकीकरण के हिमायती माओत्से तुंग ने अपने देश के किसानों को खेती छोड़ फैक्टरियां और कारखाने लगाने और इसमें काम करने को विवश किया। देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम की ऐसी अलख जगाई की जनता खेती से विमुख होकर कामगार मजदूरों में बदल गयी। खाद्य भंडार खाली हो गए और लाखों लोग भूख से तड़प-तड़प कर मरे। बाद के वर्षों में जब चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था से दुनिया को रूबरू कराया तो दुनिया भौचक्की रह गयी। चीन विकास की एक नई गाथा लिखने को तैयार खड़ा था। विदेशी मीडिया और समाचार पत्रों में भूख से मारे गए लोगो के प्रति संवेदना और तुंग की सनकी सोच के लेख भरे पड़े थे। इस विषय में 'ग्रेट लीप ऑफ चाइना थ्योरी' आपको गूगल में सहज ही उपलब्ध हो जाएगी।
अतः ये कहना गलत नही होगा कि चीन ने अपनी कम्युनिस्ट सोच को किस प्रकार वर्षो तक न केवल संचित किया बल्कि वर्षो से और विकराल रूप से न केवल अपने हितों की पोषक बनी हुई है बल्कि आने वाली नस्लो को भी इसी रंग में रंगती जा रही है। ठीक इसी तर्ज पर चीन की वन चाइल्ड पालिसी भी चलती नजर आयी। और अंततः लिंग अनुपात (जेंडर इंइक्वालिटी) अत्यधिक बढ़ गया। मेल चाइल्ड की खातिर भ्रूण हत्या जैसे घ्रणित कार्यो को अंजाम दिया गया। वही दूसरी तरफ जहां चीन के सैनिकों के कॉलर तक पर आलपिन लगा दी जाती है जिससे वे सदैव सिर उठाकर ही देख सके और जहां कंपनी के वांच्छिक परिणाम न प्राप्त कर पाने की दशा में कर्मचारियों को न सिर्फ सरे आम पीटा जाता है बल्कि कहीं कहीं तो उन्हें दफ्तर की सीढ़ियों पर भी पेट के बल रेंगते हुए अंदर जाना पड़ता है। अब भला ऐसा किसी लोकतांत्रिक राष्ट्र में तो संभव नही है। दूसरी तरफ जबरन किसी में देशभक्ति की भावना भी नही जगाई जा सकती है, भारत की ही अगर बात करे तो फ़िल्म शुरू होने के पहले राष्ट्रगान बजाने और इसके सम्मान में खड़े होने का विरोध सिर्फ एक लोकतांत्रिक देश में ही संभव है।
‌गौर करने वाली दूसरी प्रमुख बात ये भी है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना ही एक मात्र सबसे बड़ी पार्टी है और संविधान संशोधन के माध्यम से जिनपिंग ने अपनी ताउम्र की ताजपोशी सुरक्षित कर ली है। कुछ ऐसा ही रूस में भी हुआ जहां के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने भी संविधान में संशोधन के द्वारा आजीवन राष्ट्रपति पद की अपनी दावेदारी पुख्ता कर दी है। खैर रूस के बारे में हम फिर कभी चर्चा करेंगे। फ़िलहाल मुद्दे की बात करें तो चीन और भारत के रिश्ते में तल्खियां कम होने का नाम नही ले रही है। और मुलाकातों के ये दौर महज दिखावे के सिवा कुछ भी नही है। दूसरी तरफ जब चीनी राष्ट्रपति के आजीवन कार्यकाल का रास्ता साफ हो चुका है ऐसे में उनका अपने देश की जनता या दुनिया को दिखाने के लिए झूठमूठ का स्वांग रचना महज एक कोरी गप्प के सिवा कुछ नही हो सकती है। भारत की बात की जाय तो एन. एस. जी. सदस्यता, परमाणु उपकरणों के लिए चीन पर निर्भरता, सीमा क्षेत्र विवाद और व्यापार अंतर संबंधी अन्य कई चिंताएं है जिनका समाधान केवल कूटनीतिक सूझबूझ और सहयोग के माध्यम से ही निकाला जा सकता है। भारत की गुट निरपेक्ष नीति के कारण भी विकसित देश प्रत्यक्ष रूप से भारत का सहयोग नही कर पा रहे है। विगत कुछ दशकों के घटनाक्रम पर अगर नजर डाले तो हम पाते है कि भारत सदैव धुर विरोधी राष्ट्रों के साथ समन्यवय बनाने की हर संभव कोशिश कर रहा है चाहे वो इज़रायल-फिलिस्तीन हो, ईरान-अमेरिका के मतभेद हो अथवा रूस और अमेरिका के बीच उपजी कटुता। हमें सिक्के के दोनों पहलू को देखते हुए वैश्विक परिदृश्य में अपनी रणनीति तैयार करनी होगी न कि सिर्फ थोथा और सतही ज्ञान के द्वारा।

‌सुलेख-देवशील गौरव

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