अडॉप्ट अ हेरिटेज का सच
अंग्रेजी की एक कहावत 'पेन्नी वाइज पौंड फुलिश' जिसका हिंदी में अर्थ होता है मोहर लुटी जाए, कोयले पर छाप पड़े। अर्थात अधिक मूल्यवान वस्तु की परवाह न करना और अपेक्षाकृत कम मूल्य की वस्तु के विषय में चिंतित होना। कमोबेश ऐसी ही कुछ उहापोह की स्थिति सरकार द्वारा शुरू की गईं "अडॉप्ट अ हेरिटेज" स्कीम के कारण उपजी है। जिसके तहत दिल्ली के ऐतिहासिक धरोहर लाल किला को 5वर्षो के लिए देखरेख और मरम्मत कार्यो के लिए डालमिया समूह को 25 करोड़ के अनुबंध पर दिया गया है। गौरतलब बात ये है कि कुछ भ्रामक पोस्ट के जरिये अलग अलग प्रतिक्रिया देकर इस विषय को कभी राष्ट्रवाद और कभी हिंदुत्व से जोड़ कर पेश किया जा रहा है। वास्तव में देखा जाए तो इसे सरकारी प्रशासनिक तंत्र की विफलता से जोड़कर देखा जा सकता है, जहां एक तरफ तो सरकार को राष्ट्रीय स्मारकों पर होने वाला व्यय वहनीय नही लग रहा है तो दूसरी तरफ संभवतः विगत सरकारों की तरह ही भाजपा को अपनी जुमलेबाजी 'न खाऊंगा और न खाने दूंगा' गले की फांस बनती सी लग रही है। अब भले ही मोदी सरकार के दामन पर अभी तलक कोई भी भ्रस्टाचार का सीधा सीधा आरोप न लगा हो फिर भी भाजपा के कई मुख्यमंत्री व्यापम, चिक्की घोटाला जैसे आरोपो में अभी भी आरोपी है। वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश जैसे राज्यो में प्रशासनिक अधिकारी किसी नेता की बात सुनने को तैयार नही है और गाहे बगाहे अधिकारियों और नेताओं में ठन जाती है, नतीजन उन्हें मीडिया के समक्ष आकर बयानबाजी करनी पड़ती है। बहरहाल अगर इस पूरे मुद्दे को एक तठस्थ भाव से देखे तो लगता है कि सरकारी प्रशासनिक तंत्र की विफलता जिसमें भ्रस्टाचार एक प्रमुख मुद्दा है संभवतः एक मुख्य कारण हो सकता है जिससे न केवल भ्रस्टाचार पर कुछ लगाम लगाई जा सकती है और ऐतिहासिक धरोहरों के रखरखाव पर होने वाले सरकारी धन के दुरुपयोग से बचा जा सकता है। अब जबकि दूसरी ओर कांग्रेस, सरकार पर स्मारकों के खर्च को वहन करने में असमर्थता और नीरव मोदी तथा माल्या जैसे लोग के बैंको और सरकार को करोड़ो की चपत लगाकर फरार होने का दोष मढ़ रही हैं।अब अगर हम डालमिया समूह की बात करें तो निसंदेह एक कमर्शियल एंटिटी होने के कारण इनका सीधा सा उद्देश्य इस योजना के जरिये लाभ कमाना ही है अब भले ही वो हिन्दू हो या मुस्लिम। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो भले ही सरकार या सरकार के पैरोकार इसे एक लोकउपयोगी योजना की तरह क्यों न प्रचारित करें अब जनता को इन स्मारकों के भ्रमण के लिए अच्छा खासा पैसा खर्च करना पड़ सकता है। मुझे अच्छी तरह याद पड़ता है कि अपने नेशनल इकनोमिक प्लानिंग के एक सेशन के दौरान 2006 में मैंने पहली बार पीपीपी मॉडल का जिक्र करते हुए पेट्रो कनाडा का उदाहरण दिया था। हालांकि तब यह मॉडल बिल्कुल ही नया था और निसंदेह इसने चर्चा को एक नया मोड़ दे दिया था। जिसमें सरकार की विफलता को इस मॉडल के जरिये छिपाने की मंशा प्रकट की गई थी। अब जबकि जीएमआर और इसी के जैसी अन्य कमर्शियल संस्थाएं देश के विभिन्न हिस्सों में एयरपोर्ट और हाइवे जैसी सुविधायें भले ही इसी तर्ज पर दे रही हो मगर इसके लिए वसूली जाने वाली अच्छी खासी रकम को नजरअंदाज नही किया जा सकता है। उदाहरणस्वरुप यमुना एक्सप्रेस वे पर लगने वाला टैक्स।
दूसरी बात डालमिया अथवा अन्य समूहों को केवल बेसिक सुविधाएं प्रदान करनी है न कि खुदाई और रिसर्च जैसे अन्य कार्यो की अनुमती दी गयी है अतः अपने सभी संभावित शंकाओ को मन से निकाल दे कि डालमिया ताजमहल को तेजोमहालय अथवा जामा मस्जिद को जमना माता का मंदिर साबित कर देंगे। अगर कुछ दिनों पूर्व के एनजीटी के ताजमहल के संबंध में दिए गए निर्णय का अध्ययन करें तो पाते है कि एनजीटी ने ताजमहल के बदलते रंग को लेकर न केवल चिंता जताई थीं बल्कि इस स्मारक की खूबसूरती बरकरार रखने में सरकारी विफलता के लिए उन्हें फटकार भी लगाई थीं। जहां एक तरफ सरकारें ऐतिहासिक स्मारकों को लेकर उदासीन रवैया (जिसमें ताजमहल की सीढ़ियां अधिक घिस जाने की वजह से उन पर लकड़ी के पटरे लगवाने और ताजमहल को ढकने अथवा मड पैक लगाने जैसी जुगाड़ू व्यवस्था में लगी रही है।) अपनाये रखा है। एनजीटी ने सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए यहां तक कह डाला कि या तो आपके पास एक्सपर्ट मौजूद नही है और या तो आप उनकी सहायता नही लेना नही चाहते। यदि एक्सपर्ट नही मौजूद है तो विदेशो से मंगवाइये मगर इस तरह राष्ट्रीय धरोहरों से खिलवाड़ बर्दाश्त नही किया जाएगा।
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