आदमी और जूता
अभी हाल ही में मेरे दफ्तर के एक पुराने कर्मचारी सेवा निवृत्त हुए. हालाँकि मेरा और उनका परिचय कुछ ख़ास नहीं था. फिर भी वे मेरे खासमखास बने हुए थे. वैसे भी यांत्रिक सी चल रही इस जिंदगी में नाते-रिश्तो के लिए जगह ही कहाँ बची है? और फिर भी नाते रिश्ते या तो जन्म के साथ जुड़ते है या मतलब के लिए बनते है. ठीक ऐसा ही कुछ रिश्ता उनका मेरे साथ था, चूँकि मेरी और उनकी पहचान बचपन या रिश्ते से जुडी नहीं थी इसलिए ये कहना अतिशयोक्ति होगी कि हमारी पहचान दोस्ती की जद में आती है. परंतु इस बात से भी सर्वथा इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसी अन्य रिश्ते से इस परिचय को पारिभाषित किया जाये. बहरहाल अब तक तो आप समझ ही चुके होंगे की दोस्ती के भी कई आयाम होते है और शायद हमारी दोस्ती के भी आयाम कुछ अलग रहे होंगे. गौरतलब बात ये है कि हमारी दोस्ती की मुख्य वजह उनकी उच्च, कुलीन और संभ्रांत कहे जाने वाले आधिकारिक वर्ग से निकटता ही थी. और शायद यही वजह थी जिससे अनचाहे ही वे मेरे मित्र कम और अधिकारी अधिक हो गए. जिस प्रकार मालिक का कुत्ता भी मालिक के समान ही अधिकारों द्वारा पोषित होता है कमोबेश यही हाल यहाँ भी था. म