तारीख़-तारीख़ का फ़र्क
“तुम इस बार फिर अपने किये वादे से मुक़र गए । यहाँ तक कि जो तारीख़ अपने आने की तुमने खुद मुकर्रर की थी उससे भी चूक गए । तुमने तो यह नया शगल ही बना लिया है आख़िर तुम्हारे इरादें क्या हैं? चाहतें क्या हों तुम? और तों और तुम्हारे आने-जाने का कुछ पता ही नहीं होता । कोंई राबता भी करे तों कैसे?” अपनी शिकवा-शिकायतों का यह दौर अक्सर ही ग़ाहे-बेगाहे मेरी छुट्टियों पर जाने और वापस लौट कर आने की मुकर्रर की गई तारीख़ के अपने वादे पर मुक़म्मल न रहने के रवैये से जुड़े होने और अपने आला अधिकारियों से अक्सर ही सुने जाने वाले जुमलों में शुमार हो चुका था । फ़ौरी तौर पर कहने को लोग इसे मेरी अदावत के तरीक़े के तौर पर पेश कर सकते है, मगर जहनी तौर पर ये कहना सरासर ग़लत न होगा कि चाहे-अनचाहे मैं इस बात से राबता रखता हूँ । ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि इस रिश्ते की रुसवाईयों और बेवफ़ाई के लिए मैं अकेला ही ज़िम्मेदार हूँ । इसके इतर इन रुसवाइयों कि वजह वो सैकड़ो कसमों और वादों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है जो अक्सर ही इस्तेमाल के बाद कूड़ेदान में फ़ेंक दिए गए सामानों की होती है । लाख शिद्दत के बाद भी मैंने जब कोई माकूल