दास्तान-ए-शहरनामा


दास्तान-ए-शहरनामा


शायद उसने उस सड़क की कुछ मिट्टी उठा कर अपने माथे पर लगाई होगी या फिर शायद उसने उस जमीन को चूमा होगा जहाँ उसने अपने जिन्दगी के बेहतरीन लम्हों को जिया था, भले ही वो लम्हे ख़ुशी के रहे हो या गम के. आखिर कितना कुछ दिया था उसे इस शहर ने, और बदले में किसी भी चीज की दरकार नहीं की. इस शहर ने उसे कभी निराश नहीं किया और न ही कभी उसके तनहा होने का अहसास दिलाया बल्कि सच पूछा जाए तो ये शहर उसकी तन्हाईयों का भी साथी था. एक ऐसा शहर जिसने उसे जिया, उसे बढ़ते और बदलते हुए देखा मगर खुद वैसे का वैसा ही रहा. आम के पेड़ो पर हर साल आने वाली बौराइयो की तरह हर साल इसे तनहा छोड़ कर जाने वालो की खबरे भी अब लोगों के लिए कोई नई बात नहीं रह गई थी. बल्कि लोगों की तरह इस शहर ने भी इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार भी कर लिया था. हर जाने वाले को या तो अपने परिजन या घर-बार छोड़ने का दुःख तो रहता मगर किसी ने भी इस शहर के दुःख को नहीं समझा. गुजरते दिनों के साथ-साथ लोगों ने तो बल्कि अपनी नियति और तरक्की का सबसे बड़ा रोड़ा ही इस शहर को समझना शुरू कर दिया. जवान होते लड़को-लड़कियों के मन में भी इस शहर को छोड़ कर दूसरे शहर बसने की ऐसी ललक समाई कि कल तक इस शहर का गुणगान करने वाले और अपने शहर को दूसरे से अच्छा बताने वाले, बात-बेबात में सच और झूठ की मिलावट करने वाले भी इससे पीछा छुड़ाने का सपना देखने लगे.
शहर छोड़ कर जाने वाले भले ही वापस लौट के आने के लाखो वादे भले ही क्यूँ न कर गए हो मगर ये शहर जानता था कि जाने वाले भी कभी लौट कर आये है क्या कभी? हर जाने वाले से शायद इस शहर ने एक बात कही होगी, “जा तो रहे हो, मगर लौट कर आओगे तो मेहमान की ही तरह.” और इसमें छिपे दर्द को वो लोग शायद ही कभी समझे होगे. बात सही भी थी, जाने वाले लोग वापस आये तो मगर या तो शादी-ब्याह, त्योहारों में महज खानापूरती करने के मकसद से या फिर अपने परिवार को हमेशा के लिए अपने साथ ले जाने के लिए. भले ही जाने वालो का आना महज एक औपचारिकता क्यों न रह गया हो, जब भी शहर में इसके किसी अपने के कदम पड़ते तो ये अवसर इसके लिए किसी भरतमिलाप से कम नहीं होता. मगर मुसाफिर की तरह आये लोग शीघ्र ही इस शहर के इस भरम को नए शहर की बनावटी दुनिया से तुलना करके तोड़ देते. नए बसे शहर पुरानो को निगल रहे थे. नए शहरो में भले ही सुख-सुविधाओ और रोजीरोटी के कितने ही सुअवसर क्यूँ न मौजूद हो मगर नए शहरो ने कभी भी अप्रवासियों को अपनाया नहीं. गैर-प्रजाति का ठप्पा उनपर हमेशा ही लगता रहा है और भले ही नए लोगों ने प्रवासियों की भांति रहन-सहन क्यों न अपना लिया हो मगर क्या वे कभी अप्रवासी होने के दंश से मुक्त हो पाएंगे? नए शहर में मशीनों से लेकर जीवन तक सभी यांत्रिक गति से नियंत्रित और चालित है. सभी व्यस्त है मगर कहाँ शायद इसका जवाब उनके पास स्वयं भी नहीं है. वे सभी इस यांत्रिक गति से चल रहे कालचक्र को ही जीवन समझ रहे है.
पुराने शहर को भले ही इस वास्तविकता का भान न हो और शायद वो भी इसी आपाधापी का हिस्सा होने की चाह अपने मन के किसी कोने में दबा के बैठा हो मगर फिर भी उसे अपनी परंपरा और संस्कृति पर गर्व है. वो आज भी उसी परंपरा का घोतक है जहाँ छोटे अपने से बड़ो का आशीर्वाद लेने के लिए पैर छूते है, जहाँ समय का कालखंड आकर ठहर जाता है, जहाँ दोस्तों के साथ घंटो तक बाते करना किसी को भी नहीं अखरता, जहाँ किसी के सुख-दुःख में जाना-अनजाना हर व्यक्ति खड़ा होता है, जहाँ लोग निस्वार्थ भाव से लोग एक-दूसरे की मदद करते है,नए शहर का दस्तूर और रिवाज हर मायने में पुराने शहर से इतर होता है. नया शहर लोगों से उनकी जवानी, परिवार और प्यार सभी कुछ तो छीन लेता है, एकल परिवारों को परिवार की संज्ञा देना आखिर इस बात की बानगी भर नहीं है तो और क्या है? माना कि नए शहर में वो सारी सुख-सुविधाएं होगी जो पुराने शहर में नहीं मगर पुराने शहर की वो रवायत भला नए शहर में कहाँ? नए शहर में डॉक्टर तो बहुत मिल जायेंगे मगर पास बैठकर हाल पूंछने वाला वो यार कहाँ मिलेगा? नौकरी तो बहुत मिल जाएगी मगर दफ्तर के बाद का सुकून कहाँ मिलेगा? दोस्त-यार तो बहुत बनेगे मगर सिर्फ ऊपरी तौर पर या स्वार्थवश आखिर कहाँ मिलेंगे वो यार जो दिन-रात जागकर दोस्त की बहन की शादी की तैयारियां करने में जुटे होंगे? कौन होगा जो अधिकार से झगड़कर कहेगा की मेरी शादी में तुझे जरूर आना है और कोई बहाना नहीं चलेगा. और तो और रिश्तेदारों के दो-दिन से ज्यादा रुकने की मन्नौवल करने वाला भी कहाँ मिलेगा. मसरूफियत और बेगानेपन की कैफियत भला कोई नए शहरो से सीखे. गोया ये शहर भी कितना दीवाना है न जाने क्या-क्या भरम दिल में पाले बैठा है? और शायद दिनरात अपनी नियति पर आँसू बहाना ही इसकी फितरत में शुमार है, मगर फिर भी दिल के किसी कोने में इसने उम्मीद की शमा अभी भी रोशन कर रखी है कि भले ही उम्र के आखरी पड़ाव में ही सही मगर क्या पता किसी को वापस इस शहर की याद आये और वो अपनी जिंदगी के वो तमाम लम्हे जिन्हें वो बरसो पहले काफी पीछे छोड़ आया था उन्हें याद करने के लिए फिर वापस आये.
जाने वालों में एक नया नाम उसका भी था मगर वो इस शहर को छोड़ कर जाने से ग़मगीन भी था, वो इस शहर का कर्जदार है और ये बात उसे ताउम्र याद भी रहेगी. उसने इस शहर को छोड़ने से पहले इसकी पाक जमीं से कुछ मिटटी उठाकर अपने माथे पर लगाई और एक आखरी बार इस शहर की सडको, गलियों और मकानों को गौर से देखा और कहा, “मैं ताउम्र इस शहर का कर्जदार रहूँगा और ये एक ऐसा कर्ज है जिसे न तो मैं कभी अदा कर पाऊँगा और न ही कभी करना चाहूँगा. ये शहर ताउम्र मेरे नाम के साथ जुड़ा रहेगा.” ऐसा कहकर उसने अपने पुराने शहर से आखरी विदा ली, उसके जाने का दुःख तो इस शहर को बहुत था मगर इस बार शायद ऐसा पहला मौका था जब ये शहर दिलसे उसे अलविदा कह रहा था वो भी पुरसकून तौर पर.

आलेख-देवशील गौरव

Comments

Popular posts from this blog

अपने पतन के स्वयं जिम्मेदार कायस्थ

Pandit ji ka ladka (ek adhoori katha)

THE TIME MECHINE