तारीख़-तारीख़ का फ़र्क
“तुम इस बार फिर अपने किये वादे से मुक़र गए। यहाँ तक कि जो तारीख़ अपने आने की तुमने खुद
मुकर्रर की थी उससे भी चूक गए। तुमने तो यह नया शगल ही बना लिया है आख़िर
तुम्हारे इरादें क्या हैं? चाहतें क्या हों तुम? और तों और तुम्हारे आने-जाने का
कुछ पता ही नहीं होता। कोंई राबता भी करे तों कैसे?”
अपनी शिकवा-शिकायतों का यह दौर अक्सर ही ग़ाहे-बेगाहे मेरी छुट्टियों
पर जाने और वापस लौट कर आने की मुकर्रर की गई तारीख़ के अपने वादे पर मुक़म्मल न
रहने के रवैये से जुड़े होने और अपने आला अधिकारियों से अक्सर ही सुने जाने वाले
जुमलों में शुमार हो चुका था। फ़ौरी
तौर पर कहने को लोग इसे मेरी अदावत के तरीक़े के तौर पर पेश कर सकते है, मगर जहनी
तौर पर ये कहना सरासर ग़लत न होगा कि चाहे-अनचाहे मैं इस बात से राबता रखता हूँ। ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि इस रिश्ते की
रुसवाईयों और बेवफ़ाई के लिए मैं अकेला ही ज़िम्मेदार हूँ। इसके इतर इन रुसवाइयों कि वजह वो सैकड़ो कसमों और
वादों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है जो अक्सर ही इस्तेमाल के बाद कूड़ेदान में फ़ेंक दिए
गए सामानों की होती है। लाख शिद्दत के बाद
भी मैंने जब कोई माकूल बद्लाव होते नहीं देखा तो मैं भी इसी बदलाव का हिस्सा बन
गया।
“आज कितनी तारीख़ है?” किसी ने यूं ही पूंछा. जबान पर रटा-रटाया था तो
फ़ौरन ही बता दिया, अब यह बात बिना तनख्वाह के एक-एक दिन गिनते उस कारिंदे से बेहतर
भला कौन जान सकता है कि कौन सी तारीख़ है या फलां तारीख़ को कौन सा दिन होगा
वगैरह-वगैरह। पहले-पहल तो सोचा
कि उन्हें ख़ुश करने के लिए ग़ालिब का एक शेर उन्हें नज्म करूं:-
“आह को चाहिए इक़ उम्र असर होने तक, कौन जीता है
तेरी जुल्फ़ के सर होने तक।”
मगर फिर न जाने क्यूँ इस गफ़लत ने कि शायद इसका माकूल मतलब भी उन्हें समझ में नहीं आएगा, मैंने यह ख़याल अपने दिल में ही ज़ज्ब कर लिया। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये बात मेरी तरख्वाह के मद्देनजर बिल्कुल सटीक बैठती है। अब भले ही इस बात से कोई राबता रखे या नहीं मगर बात बिल्कुल साफ़ है कि उन सैकड़ो-हजारों वादों के बावजूद जिस साफ़गोई से वह इसे टाल जाते वो बेशक बेहद ही काबिले-तारीफ़ है। शायद मुझसे सवाल पूंछने वालों को शुरुवाती तौर पर यह अंदेशा हुआ होगा कि इस सवाल-जवाब से मेरी पेशानी पर बल पड़े या अपनी अहमियत का अंदाजा हो। मगर यकीनन मैं ताउम्र इस बात को कोसता रहूँगा कि क्योंकर न मैंने उन्हें उन तमाम वादों का हवाला ही क्यों न दिया हो, जो बस तारीख़ दर तारीख़ टलते ही रहे। खुशफ़हमी बस इतनी सी ही हासिल हुईं कि उनकी तारीख़ और मेरी तारीख़ में फर्क़ महज जरा सा ही था। और शायद मैंने भी उनके वादों पर ऐतबार करने का फ़रेब पालना सीख लिया था।
कलमकार-देवशील गौरव
(picture:-adhoore alfaz)
Comments
(Tarikh yoh badal gyi pur halat nhi)