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जैविक खतरे की तरफ बढ़ता विश्व

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जैविक खतरे की तरफ बढ़ता विश्व विगत कुछ दिनों में करोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी ने विकसित और विकासशील दोनों देशो के मध्य चिंता की एक बड़ी लकीर खींच दी है। यही नहीं इसने विकसित देशो के हर प्रकार के खतरे से निपटने के दावों की न केवल पोल खोल दी है बल्कि ये चेतावनी भी दे दी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उनके द्वारा अपनाये जा रहे मानदंड न केवल महज खानापूर्ति भर है बल्कि वैश्विक स्तर पर भी नाकाफी है। बदलते परिवेश के मुताबिक विकसित देशो को जैविक हथियारों के निर्माण और प्रचार-प्रसार पर निगाह रखनी अत्यंत आवश्यक हो गई है। गौरतलब है कि भले ही आज विश्व में करोना जैसे वायरस को एक वैश्विक बीमारी का दर्जा दिया जा रहा हो सम्भावना ये भी हो सकती है कि कोरोना जैसा वायरस जैविक हथियारों का एक परिक्षण मात्र हो। ज्ञान्तव हो कि आज की ही भांति यदि किसी प्रकार के जैविक हथियार का प्रयोग भविष्य में अगर किया गया तो इसके परिणाम कितने भयानक हो सकते है। कल्पना कीजिये कि आप के अडोस-पड़ोस में बसेरा करने वाले पशु-पक्षियों से लेकर वे तमाम व्यक्ति जिनके संपर्क में आप रोज आते है किसी न किसी प्रकार के वायरस के वा

Why MLM (Multi Level Marketing) is having a trust issue?

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How often you came across someone known to you associated with MLM and boasted a lot of benefits of pursuing the same and earn big? I am pretty sure that at some point of time or other you would have the same experience like many other who are promised to riches and perks for joining this business model. If you ever been a part of any such discussion or ever came across someone who is much eager to let you join the business and shares lengths of details of benefits of being a part of it, you would have been surprised for a moment for the feasibility of such business model. Had it been such a great business model, why it is less trust worthy and why and how it can lead to a possible business scam. Off late I had a the same experience when one of my neighbor approached me and despite my least interest explained the faulty business model to me which tend me to introspect and write a detail write up on MLM. There are several reasons as people keep a bay from this business model and

तारीख़-तारीख़ का फ़र्क

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“तुम इस बार फिर अपने किये वादे से मुक़र गए । यहाँ तक कि जो तारीख़ अपने आने की तुमने खुद मुकर्रर की थी उससे भी चूक गए । तुमने तो यह नया शगल ही बना लिया है आख़िर तुम्हारे इरादें क्या हैं? चाहतें क्या हों तुम? और तों और तुम्हारे आने-जाने का कुछ पता ही नहीं होता । कोंई राबता भी करे तों कैसे?” अपनी शिकवा-शिकायतों का यह दौर अक्सर ही ग़ाहे-बेगाहे मेरी छुट्टियों पर जाने और वापस लौट कर आने की मुकर्रर की गई तारीख़ के अपने वादे पर मुक़म्मल न रहने के रवैये से जुड़े होने और अपने आला अधिकारियों से अक्सर ही सुने जाने वाले जुमलों में शुमार हो चुका था । फ़ौरी तौर पर कहने को लोग इसे मेरी अदावत के तरीक़े के तौर पर पेश कर सकते है, मगर जहनी तौर पर ये कहना सरासर ग़लत न होगा कि चाहे-अनचाहे मैं इस बात से राबता रखता हूँ । ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि इस रिश्ते की रुसवाईयों और बेवफ़ाई के लिए मैं अकेला ही ज़िम्मेदार हूँ । इसके इतर इन रुसवाइयों कि वजह वो सैकड़ो कसमों और वादों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है जो अक्सर ही इस्तेमाल के बाद कूड़ेदान में फ़ेंक दिए गए सामानों की होती है । लाख शिद्दत के बाद भी मैंने जब कोई माकूल

दास्तान-ए-शहरनामा

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दास्तान-ए-शहरनामा शायद उसने उस सड़क की कुछ मिट्टी उठा कर अपने माथे पर लगाई होगी या फिर शायद उसने उस जमीन को चूमा होगा जहाँ उसने अपने जिन्दगी के बेहतरीन लम्हों को जिया था, भले ही वो लम्हे ख़ुशी के रहे हो या गम के. आखिर कितना कुछ दिया था उसे इस शहर ने, और बदले में किसी भी चीज की दरकार नहीं की. इस शहर ने उसे कभी निराश नहीं किया और न ही कभी उसके तनहा होने का अहसास दिलाया बल्कि सच पूछा जाए तो ये शहर उसकी तन्हाईयों का भी साथी था. एक ऐसा शहर जिसने उसे जिया, उसे बढ़ते और बदलते हुए देखा मगर खुद वैसे का वैसा ही रहा. आम के पेड़ो पर हर साल आने वाली बौराइयो की तरह हर साल इसे तनहा छोड़ कर जाने वालो की खबरे भी अब लोगों के लिए कोई नई बात नहीं रह गई थी. बल्कि लोगों की तरह इस शहर ने भी इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार भी कर लिया था. हर जाने वाले को या तो अपने परिजन या घर-बार छोड़ने का दुःख तो रहता मगर किसी ने भी इस शहर के दुःख को नहीं समझा. गुजरते दिनों के साथ-साथ लोगों ने तो बल्कि अपनी नियति और तरक्की का सबसे बड़ा रोड़ा ही इस शहर को समझना शुरू कर दिया. जवान होते लड़को-लड़कियों के मन में भी इस शहर को छोड़

PRISONER OF PAST

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PRISONER OF PAST He knew well that not every dream is meant to be realized, not every secret to be shared and not every truth to be told. He passed through the thoroughfare, a mild wind blew and dry tree leaves fallen down on the way. He sighed. The autumn has set in and has suffused its effect gradually. A little far away he saw passing a couple. The payment was partially clear as the night lamps were trying hard to make it illuminated till their reach. As they passed through the light post, their figure could become clearer. He castes a quick glance over the girl. And her posture resembled with his forgone love, he thought once. The couple was leading mere a few yards. He could only hear the giggles and sexy jokes until he reached just behind them. A girl, who shares and laugh on a guy's sexist joke is either having a broad mentality, very close to that guy or they have an intimacy. Although, he sidelined the other possibilities except the opinion that they might

Keep off the grass- Introspection of Indian Management institutions

Off late had a wonderful meeting with Prof. Dr. Alam of Amity University Dubai. Had a great sharing of thoughts, policy making and improvisation of knowledge based learning, being a writer and an academician I shared my views of how management courses and pedagogy is overrated and how they fail badly to prepare entrepreneurs than mere a job seeking management graduate. The situation becomes worst when we analyze in Indian context. I have penned down certain points for making it more clear to the aspirants that choosing a career in management in not like applying for any other graduation courses or choosing a course that can ensure them a job. Let’s begin with understanding the basis understanding of public temperament of looking for a managerial course. a)       Management is not a course or degree that one should look for irrespective of undermining their capabilities for the sake of getting a job only. Undoubtedly, lot more parents and even aspirants don’t think the same way,

Who am I??

Last night wisdom dawn upon, the jinx of austerity could not suffuse while the perplexity prevailed. Decided to walk down the lane a couple of mile, a signage reflected my inner self, “who are you” and that is the only apprehension I could ever draw. An urgent need to pour my heart out started popping out. However, neither could make my mind and nor could gather much courage. Started frisking my cell a while, a few minute later relinquish the idea . One more option down, a strange yet perfectly timed adage knocked my brain waives, too many slips between cup and lips. The sudden beep of my cell dumped me back to the reality, yet another disappointment was waiting ahead. It’s tail that was waging the dog or otherwise, stranded between the thoughts.   A kitty has nine lives, how many do we have? It’s like playing an adventure video game where every time you risk your virtual life. Undoubtedly, there will be perks for every small triumph that you will make. But one should have that muc