दास्तान-ए-शहरनामा
दास्तान-ए-शहरनामा शायद उसने उस सड़क की कुछ मिट्टी उठा कर अपने माथे पर लगाई होगी या फिर शायद उसने उस जमीन को चूमा होगा जहाँ उसने अपने जिन्दगी के बेहतरीन लम्हों को जिया था, भले ही वो लम्हे ख़ुशी के रहे हो या गम के. आखिर कितना कुछ दिया था उसे इस शहर ने, और बदले में किसी भी चीज की दरकार नहीं की. इस शहर ने उसे कभी निराश नहीं किया और न ही कभी उसके तनहा होने का अहसास दिलाया बल्कि सच पूछा जाए तो ये शहर उसकी तन्हाईयों का भी साथी था. एक ऐसा शहर जिसने उसे जिया, उसे बढ़ते और बदलते हुए देखा मगर खुद वैसे का वैसा ही रहा. आम के पेड़ो पर हर साल आने वाली बौराइयो की तरह हर साल इसे तनहा छोड़ कर जाने वालो की खबरे भी अब लोगों के लिए कोई नई बात नहीं रह गई थी. बल्कि लोगों की तरह इस शहर ने भी इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार भी कर लिया था. हर जाने वाले को या तो अपने परिजन या घर-बार छोड़ने का दुःख तो रहता मगर किसी ने भी इस शहर के दुःख को नहीं समझा. गुजरते दिनों के साथ-साथ लोगों ने तो बल्कि अपनी नियति और तरक्की का सबसे बड़ा रोड़ा ही इस शहर को समझना शुरू कर दिया. जवान होते लड़को-लड़कियों के मन में भी इस शहर को छोड़