दण्ड और विधान


संसार ऐसे मूर्खो से भरा पड़ा है जो सामंजस्य को ही प्रत्येक समस्या का उचित समाधान समझते है। घर - परिवार में मतभेद है तो सामंजस्य बैठाओ, वैचारिक मतभेद है तो सामंजस्य बैठाओ, जीवन की प्रत्येक उथल - पुथल का एक ही समाधान लोगों को नजर आता है, सामंजस्य। पति पत्नी में नहीं बनती तो बच्चा हो जाने के बाद सब कुछ ठीक हो जाने से लेकर जीवन की प्रत्येक असफलता और दुर्बलता का मूल इसी सामंजस्य में मानो छिपा हो। परन्तु मै इस तर्क से सदैव असंतुष्ट रहा हूं। सामंजस्य आदमी की विफलता को दर्शाता है। एक व्यक्ति मेरे पास आया और सकुचाते हुए उसने बताया कि विवाहित होते हुए भी उसे किसी अन्य स्त्री से प्रेम हो गया है। उसने जानना चाहा कि क्या ये गलत है। मैंने उसे समझाते हुए कहा कि वह इस रिश्ते को किस नजर से देखता है यह महत्वपूर्ण हैं न कि ये कि समाज उसे किस नजर से देखता है। हमारा समाज ऐसे लोगो से भरा पड़ा है जो अपने मन की भड़ास निकालने को जोर शोर से नैतिकता की दुहाई देते है, परन्तु मन ही मन में वे यह आकांक्षा भी पाले होते है कि भला ऐसे मौके उनको क्यों नहीं मिले। आखिर कैसे वे इस दुर्लभ सुख से वंचित रह गए।ये समाज कभी भी दूसरो के सुख से सुखी नहीं होता। मैं कोई धर्मगुरु नहीं हूं और न ही मैंने ऐसी कोई दीक्षा ली है, परन्तु मेरे विचार समाज के दकियानूसी कायदे से बंधे हुए नहीं है। ऐसा ही एक अजीब वाकया मेरे साथ हुआ। एक व्यक्ति ने गबन किया। दोष साबित हुआ, सभी उसको बुरा भला कहने लगे। परन्तु वास्तविकता में वह व्यक्ति उन लोगों के लिए एक आदर्श के रूप में स्थापित हो चुका था। सभी मन ही मन में सोच रहे थे कि भला वे किस प्रकार जीवन में ऐसी उपलब्धि से चूक गए। वहीं लोग जो कल तक महंगी महंगी गाड़ियों में उसके साथ घूमते थे, बड़े से बड़े होटलों और रेस्टोरेंटों में खाना खाते थे। उन्होंने कभी ये जानने का प्रयास क्यों नहीं किया कि आखिर वह व्यक्ति ऐसा कर कैसे रहा है। ऐसा कौन सा अचूक मंत्र उसे प्राप्त हो गया है जो उनके लिए असाध्य है। लोगो के घरवालों को पैसे की तंगी होने पर उलाहना सुनते भी देखा कि किस प्रकार वह दोषी व्यक्ति अन्य लोगो के परिवार की नजरो में महान बन चुका था। एक अन्य व्यक्ति ये समाचार सुनाने मुझे भागा भागा आया। उसकी बातें सुनकर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसका सारा जोश व उत्साह गायब हो गया। मुख मलिन हो गया। ऐसे उत्तर की तो उसने कल्पना भी नहीं की थी। एक दो बार पुनः प्रयास किया कि संभवतः मैंने ठीक से सुना न हो। परन्तु मेरी कोई प्रतिक्रिया न देखकर व्यक्ति दुखी हो गया। सोचा था कि बड़ा रस मिलेगा परनिंदा में। आखिर किसी न किसी तरह उसे नीचा दिखाया जाए। परन्तु यहां तो दांव ही फेल हो गया। परनिंदा का असली सुख उन्हीं लोगों को मिलता हैं जो दूसरो से ईर्ष्या रखते है। कोई नहीं चाहता कि अगला उससे आगे निकले। और अगर कोई निकला भी तो मन ही मन उसकी विफलता की कामना रखते है, खीझ पाल लेते है। जबकि उन लोगो के पास स्वयं को सही ठहराने का कोई उचित कारण मौजूद नहीं होता है। समाज में सभी लोग किसी न किसी प्रकार की अनैतिकता मन में पाले बैठे होते है परन्तु हर किसी के पास इतना साहस नहीं होता कि आगे बढ़कर वे इसे स्वीकार करे। प्रायः देखा गया है कि समाज अपने से अधिक उन्नत समाज का अनुसरण करता है परन्तु जो समाज अथवा देश इसमें पिछड़ जाते है वे अपनी संस्कृति का रोना लेकर बैठ जाते है, जबकि वास्तविकता में वे इस दुख को स्वीकार ही नहीं पाते कि वास्तव में वे उतने साहसी और उद्यमी नहीं है। रहन सहन और पहनावे के अतिरिक्त विचारो की भी होड़ लगी रहती है कि कैसे हम दूसरो के जैसे बन सके। पश्चिम देशों की महिलाओं के पहनावे से लेकर उनकी स्वछंदता तक की प्रशंसा करते नहीं अघाते। उन्हें देखना चाहते है, महसूस करना चाहते है और भोगना चाहते है। क्योंकि प्रत्येक सुंदर वस्तु भोग्य मानते है परन्तु समाज से इतर जाने का प्रयास नहीं कर पाने के कारण मुंह पर तो उन्हें गालियां देते है, लानत भेजते है परन्तु पीठ पीछे उन्हीं की सुंदरता का रसपान करते है। कर चोरी करने वाले व्यापारी से लेकर दूसरो का हक मारने वाले यदि सभी दोषी है तो सजा का प्रावधान सभी के लिए समान क्यों नहीं है। कोई जुर्माना देकर बच जाता है जबकि कोई सजा काट कर। परन्तु जुर्माना अथवा सजा उन्हें जुर्म करने से विमुख नहीं करती बल्कि उनके द्वारा किए गए कुकर्म के बदले बहुत ही अल्प अथवा महत्वहीन होती है।
दण्ड का विधान समाज से जुर्म व अन्याय को समाप्त नहीं करता बल्कि उनके भीतर की प्रवित्तियों को और जगा देता है। हां ये बात और है कि छोटे मोटे जुर्म करने वाले भले ही सामाजिक भय व अलगाव के कारण इनसे विमुक्त हो जाते है।
एक बार एक राजा के दरबार में तीन चोरों को पेश किया गया। तो राजा ने पहले को केवल एक दिन का कारावास, दूसरे को केवल कुछ घंटो का जबकि तीसरे को सिर मुड़ा कर चेहरे पर कालिख पोत कर गधे पर बैठा कर पूरे शहर में घुमाने का आदेश दिया। समान जुर्म के लिए अलग अलग विधान देख कर मंत्री में राजा से इसका कारण जानना चाहा। राजा ने सजा पूरी होने के बाद मंत्री से तीनों चोरों का हाल जानने को कहा। मंत्री ने कहा पहले चोर ने स्वयं को अपने घर के कमरे में बंद कर लिया है और जोर जोर से रो रहा है। घर वालो के लाख कहने के बावजूद भी दरवाजा नहीं खोल रहा है। दूसरा चोर ने रिहा होने के बाद घर जाकर फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। जबकि तीसरा चोर जोर जोर से अट्टहास कर रहा है और पुनः दूसरी चोरी की योजना बना रहा है। इस पर राजा ने कहना शुरू किया, पहले चोर ने केवल अपनी विलासिता व अपव्यय के कारण चोरी की थी, जबकि दूसरे ने परिस्थितिवश जबकि तीसरे ने अपनी प्रवित्ति के कारण ऐसा किया। ऐसे में सभी चोरों को समान सजा नहीं दी जा सकती वहीं दूसरी तरफ समाज में कानून व्यस्था बनाए रखने के लिए दण्ड देना अनिवार्य है।
कमोबेश ऐसा ही समाज में भिन्न विचारधाराएं रखने वालो के साथ भी होता है। सामंजस्य बनाए रखने के लिए दण्ड देना तो अनिवार्य है परन्तु यहां यक्ष प्रश्न इस बात है कि क्या वास्तव में दण्ड देने वाला स्वयं भी इस प्रवृति से मुक्त है या नहीं। दूसरी तरफ क्या वास्तव में दण्ड देना न्यायोचित है यदि हां तो फिर दण्ड क्या हो इसका निर्धारण कैसे किया जाए। और क्या इस दण्ड द्वारा स्थापित समाज में वास्तव में साम्य स्थापित हो पाएगा। यदि ऐसा होता तो दण्ड के भय से जुर्म की पुनरावृत्ति में कमी आती।

लेखक देवशील गौरव

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