समाजवाद में धर्म का स्थान

 


समाजवाद के विकास के साथ-साथ जिस विषय पर सबसे कम प्रकाश डाला गया वह था ईश्वर में विश्वास अथवा ईश्वर के प्रति आस्था। सभी समाजशास्त्रियों ने किस प्रकार इस विषय को समाज का एक अपरिहार्य न मानते हुए समाजवाद की परिकल्पना प्रस्तुत की, यह निसंदेह एक शोध का विषय हो सकता है। जिस प्रकार अनेक व्यक्ति ईश्वर की संकल्पना एक सर्वशक्तिमान एवं समाज को दिशा देने वाले मार्गदर्शक श्रोत के रूप में करते है वह वास्तव में बहुत अनूठा है। ईश्वर के बिना समाज की कल्पना करना प्राण के बिना प्राणी अथवा शरीर की कल्पना करने जैसा है। सृष्टि के आरंभ से ही व्यक्ति अपने अज्ञान के कारण एक ऐसी शक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा जो जीवोत्पत्ति के लिए तथा सृष्टि को निर्बाध रूप से चलाने हेतु जिम्मेदार समझी गयी। हालांकि पाश्चात्य दर्शन एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने काफी हद तक इस भ्रम को तोड़ने का काम किया और ईश्वर की उपासना जिसे धर्म का नाम दिया गया था उसका स्थान पूंजीवादी मानसिकता ने लिया परंतु पश्चिमी देश धर्म की वास्तविक व्यख्या करने में विफल रहे और समाज का एक बहुत बड़ा तबका आस्तिक बन गया। धर्म का यह अनुसरण ईश्वर के प्रति आस्था एवं धार्मिक विश्वास से कही बढ़कर समाज के ऐसे लोगों का समूह था और है जो सामाजिक रूप से या तो बहुत पिछड़े है अथवा आर्थिक रूप से कमजोर है। समाज के इस तबके के लिए एक मात्र आस्था और मान्यता का प्रतीक उनका धर्म के प्रति झुकाव ही है। अपने सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन से मुक्ति का एक मात्र रास्ता जो ऐसे लोगों को समझ में आता है वह संभवतः धर्म से होकर ही जाता है। ऐसे वर्ग के लिए धर्म ही सब कुछ है। दुर्खीम जैसे समाजशास्त्री भले ही धर्म की तुलना अफीम से करते हो, मगर वास्तविकता में धर्म अफीम के अतिरिक्त बहुत कुछ है। धर्म का उदय ही मानव में उफनते विद्रोह एवं असंतोष को दूर करने के लिए हुआ है। धर्म से इतर काफी लोग या तो धर्म के ठेकेदार बन कर अपनी दुकानें चला रहे है अथवा इसके लिए ग्राहक मात्र है जो अपनी विफलता को दूर करने हेतु ईश्वर को ही समर्थवान पाता है। सम्पन्न व्यक्ति के आस्तिक एवं नास्तिक होने से शायद ही कोई फर्क पड़ता हो। वर्ग संघर्ष भले ही पूँजीवाद एवं समाजवाद के बीच रहा हो मगर धर्म अथवा ईश्वर के इसमें शामिल हो जाने मात्र से इस संघर्ष का स्वरूप धार्मिक आंदोलन का रूप धारण कर चुका है। यदि किसी समाज में धर्म एवं ईश्वर का अस्तित्व समाप्त कर दिया जाए अर्थात नास्तिक लोगों का एक समूह या वर्ग बनाया जाए तो ऐसे समाज में संघर्ष का कारण केवल पूँजीवाद एवं समाजवाद ही होगा। समाज में ऐसे वर्ग को गरीबो का ईश्वर अथवा गरीबो का धर्म कहा जा सकता है। एक वर्ग से दूसरे वर्ग में जाने का संघर्षमय रास्ता केवल धर्म अथवा नातेदारी के द्वारा ही संभव है। चूंकि पूँजीवादी के लिए धन ही श्रेष्ठ धर्म है अतः उसके लिए धार्मिक अंतर कोई खास मायने नहीं रखता परन्तु गरीब एवं वंचित वर्ग के लिए यह एक दीर्घकालिक अथवा अल्पकालिक क्षद्म सुख का कारण अवश्य हो सकता है।
लेखक-देवशील गौरव
pic courtesy:- Quora.com

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